केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत देश के 81.35 करोड़ लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न मुहैया कराती है। यह अनाज अंत्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले परिवारों तथा अन्य प्राथमिकता वाले परिवारों को देश भर में मौजूदा पांच लाख से अधिक उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से बांटा जाता है। यह कहना उचित ही है कि जैसे-जैसे देश विकसित हो रहा है और आय बढ़ रही है, ऐसे सरकारी समर्थन पर निर्भर लोगों की तादाद कम होनी चाहिए। परंतु हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ।
अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी तथा अन्य ने एक नए अध्ययन में बताया है कि कैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास हुआ और कैसे खपत के आंकड़े इसके प्रभाव के बारे में बताते हैं। यह व्यापक चर्चा और नीतिगत ध्यान का विषय होना चाहिए। अध्ययन के अनुसार योजना के तहत वितरित 28 फीसदी अन्न लक्षित लाभार्थियों तक नहीं पहुंच सका जबकि राजकोष को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का पुराना इतिहास है लेकिन लक्षित पीडीएस की शुरुआत 1997-98 में की गई। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों के लिए इश्यू कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के 50 फीसदी के बराबर तय की गई थी। गरीबी रेखा से ऊपर के परिवारों के लिए यह कीमत एमएसपी के 90 फीसदी के बराबर तय की गई थी।
इस व्यवस्था में मूल्य समायोजन की एक प्रणाली अंतर्निहित है। बीते वर्षों के दौरान संशोधन किए गए लेकिन 2013 में एनएफएसए के पारित होने के साथ ही व्यवस्था में सुधार हुआ। यह अधिनियम देश की 67 फीसदी आबादी को अपने दायरे में लेता है। इसमें से 75 फीसदी लोग ग्रामीण तथा 50 फीसदी शहरों में रहते हैं। चूंकि इश्यू मूल्य कम था इसलिए समग्र लागत बढ़ती गई।
सरकार ने कोविड-19 महामारी के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत पात्र लोगों को अतिरिक्त अनाज दिया और यह समाज के वंचित वर्गों के लिए बहुत मददगार साबित हुआ। कई विस्तारों के बाद इसे एनएफएसए में मिला दिया और पात्र लोगों को खाद्यान्न नि:शुल्क उपलब्ध कराया जा रहा है।
ऐसे में अर्थव्यवस्था की प्रगति के बावजूद विगत कुछ सालों में पीडीएस का दायरा और पैमाना दोनों बढ़े हैं। चालू वर्ष के लिए केंद्र सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल 2.05 लाख करोड़ रुपये का है। पीडीएस जितने बड़े पैमाने पर लागू है, उसे देखते हुए उसके असर का आकलन करना आवश्यक है। यद्यपि विगत कुछ वर्षों में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ा है और लीकेज में कमी आई है लेकिन अभी भी यह काफी अधिक है। वर्ष 2011-12 की खपत संख्या के आधार पर शांता कुमार समिति (2015) ने कहा था कि इस व्यवस्था में करीब 46 फीसदी लीकेज है।
नवीनतम घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर उपरोक्त अध्ययन में पाया गया कि भारतीय खाद्य निगम और राज्य सरकारों द्वारा आपूर्ति किए गए अनाज का 28 फीसदी लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहा है। इसके परिणामस्वरूप 69,108 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है।
इस सालाना लागत के अलावा (जो बढ़ते एमएसपी और अन्य लागत के साथ बढ़ने वाली है) यह स्थापित तथ्य है कि कार्यक्रम नागरिकों की पोषण संबंधी जरूरतें नहीं पूरी कर पा रहा है। पांच साल से कम उम्र के देश के 30 फीसदी बच्चे औसत से कम वजन वाले हैं जबकि 15 फीसदी वयस्कों का बॉडी मास इंडेक्स कम है। ऐसे में व्यय और परिणाम को देखते हुए अब वक्त आ गया है कि इस कार्यक्रम पर नए सिरे से विचार कर इसे इस तरह तैयार किया जाए कि यह सरकार और लाभार्थी दोनों के लिए कारगर हो।
बहुआयामी गरीबी में उल्लेखनीय कमी के बीच लक्षित लाभार्थियों का भी दोबारा आकलन किया जाना चाहिए। चूंकि नकदी हस्तांतरण लोकप्रिय हो रहा है और वह प्रबंधन की दृष्टि से भी अधिक व्यावहारिक है तो खाद्य सब्सिडी के क्षेत्र में भी इस पर विचार किया जाना चाहिए।