इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
सन 1960 के दशक के आखिर और 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में जब मैं भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) कलकत्ता का विद्यार्थी था तब उस दौर के सभी कॉलेज जाने वाले बच्चों की तरह मैं भी सामाजिक रुझानों में गहरी रुचि रखता था। उस समय की बौद्धिक बहसों का सबसे बड़ा विषय जानते हैं क्या था? अपनी सांसें थाम कर सुनिए। वह विषय था- ‘परिवार नियोजन भारत की आर्थिक प्रगति की कुंजी है।’ उस दौर में लोक नीति की बहस में यह विषय उतना ही प्रमुख था जितना कि आज आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का विषय है।
सन 1960 के दशक में भारत के परिवार नियोजन के नारे कुछ इस प्रकार थे: ‘हम दो, हमारे दो’ और ‘अगला बच्चा अभी नहीं, तीन के बाद कभी नहीं।’ सड़कों के किनारे होर्डिंग पर, सिनेमा घरों में और अखबारों में भी ऐसे विज्ञापन आया करते थे। भारतीय डाक एवं तार विभाग ने परिवार नियोजन सप्ताह को लेकर 25 लाख डाक टिकट भी जारी किए थे।
संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और यहां तक कि फोर्ड फाउंडेशन जैसे निजी परोपकारी संगठनों ने भारत में परिवार नियोजन को बढ़ावा देने में मदद की। रोज इस बारे में नई-नई खबरें आती थीं कि सरकार जन्म नियंत्रण के लिए क्या उपाय अपना रही है। इसमें गर्भनिरोधक यंत्रों से लेकर देश में बनाया गया पहला कॉन्डोम निरेाध तक शामिल थे। इनके केंद्र में प्राय: गरीब और वंचित वर्ग के लोग थे। उस समय कहा यह जाता था कि दुनिया की 14 फीसदी आबादी भारत में रहती है जबकि दुनिया के कुल भूभाग का केवल 2.4 फीसदी हिस्सा भारत में है।
अब जब कभी मैं समकालीन सुर्खियों पर नजर डालता हूं तो मुस्कुरा उठता हूं। उदाहरण के लिए गत सप्ताह न्यूयॉर्क टाइम्स की यह सुर्खी- ‘भारत का सबसे कीमती निर्यात: करोड़ो कामगार जो वैश्विक व्यापार के अवसरों को बढ़ा रहे हैं।’ इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इससे कई पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा मिल रहा है। और भी उल्लेखनीय बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक अब ‘जनसंख्या विस्फोट’ जैसे शब्द की जगह ‘जनांकिकीय लाभांश’ का इस्तेमाल करने लगे हैं।
जब मैंने अधिक सोच-विचार करने वाले मित्रों से इस अवधारणा के बारे में पूछा तो एक स्पष्टीकरण यह मिला कि इस समय भारत की अत्यधिक विविधता मसलन 22 आधिकारिक भाषाओं, हजारों बोलियों, संस्कृतियों और उपभोक्ता आदतों को अक्सर एक कमजोरी के रूप में देखा जाता है क्योंकि यह व्यापार के लिए कोई एक बाजार प्रदान नहीं करता है बल्कि देश में कई छोटे-छोटे बाजार हैं। इसे समझना और इसे संचालित करना अत्यधिक जटिल और अक्षम माना जाता है।
परंतु क्या यह संभव है कि भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था जो आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और अत्यधिक व्यक्तिकरण पर आधारित होगी, वह इस विखंडन को लाभ के रूप में देखे क्योंकि जो कंपनी भारत में सामान बेचना सीख जाती है वह दुनिया के किसी भी बाजार में कामयाबी के लिए प्रशिक्षित हो जाती है। भारत की यह विविधता एआई मॉडल्स के लिए एक बड़ा प्रशिक्षण मैदान है। ऐसा एआई जो भारत की समग्र संकृति में अनुवाद, ग्राहक सेवा और मार्केटिंग को कुशलता से संचालित कर सकता है, वह दुनिया का सबसे सबसे मजबूत और बेहतर एआई हो सकता है।
उसके बाद एक अन्य समकालीन चिंता है विदेशी पर्यवेक्षकों और भारत के अभिजात वर्ग के बीच यह चिंता कि एक ‘पिछड़ी’ हस्तशिल्प-आधारित अर्थव्यवस्था कहीं देश की प्रगति में बाधा न बन जाए। भारत का विशाल, खंडित और मुख्यतः असंगठित हस्तशिल्प क्षेत्र (जो करोड़ों लोगों को रोजगार देता है) अक्सर आर्थिक अक्षमता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसे औद्योगिकीकरण और स्वचालन में विफलता माना जाता है, जो लोगों को कम उत्पादकता वाली नौकरियों में फंसा देता है।
लेकिन एक ऐसे भविष्य में, जहां एआई और रोबोटिक्स लगभग शून्य लागत पर ‘संपूर्ण’ (खामी रहित) वस्तुएं बड़े पैमाने पर बना सकते हैं, क्या प्रामाणिकता, मूल स्रोत और मानवीय कौशल नई विलासिता बन सकते हैं? भारत, जो इस विशाल और अबाध हस्तशिल्प परंपरा को संरक्षित किए हुए है, संभवतः दुनिया की सबसे बड़ी और विविध मानवीय कौशल संपदा का स्वामी बन सकता है।
इस विचार के मूल में वह है जिसे हम ‘स्वचालन का विरोधाभास’ कह सकते हैं। एक ऐसी दुनिया में जहां एआई एक बेहतरीन कुर्सी बना सकता है और एक रोबोट उसे 1,000 कुर्सी प्रति मिनट की दर से तैयार कर सकता है तो ‘बेहतरीन’ कुर्सी के दाम गिर जाते हैं क्योंकि सभी कुर्सियां एक जैसी नजर आने लगती हैं। इस नई दुनिया में दुर्लभ और सबसे मूल्यवान चीजें शायद किफायती नहीं रहेंगी। उनमें मानवीय स्पर्श का अभाव हो सकता है और उसके पीछे का सांस्कृतिक कथानक भी नदारद हो सकता है।
किसी उत्पाद का मूल्य अब इस बात पर कम निर्भर करेगा कि वह क्या करता है और अधिक इस पर कि वह कैसे बना। उपभोक्ता किसी वस्तु के लिए नहीं, बल्कि उसके पीछे की कहानी और किसी वास्तविक व्यक्ति व स्थान से जुड़ाव के लिए अतिरिक्त मूल्य चुकाएंगे। हम यह प्रवृत्ति पहले से ही लक्जरी बाजारों में देख रहे हैं (जैसे स्विस घड़ियां और महंगे बैग), लेकिन स्वचालन इसे एक सामान्य उपभोक्ता इच्छा बना सकता है।
इटली या जापान जैसे देशों में हस्तशिल्प की परंपरा है। वहीं भारत की खासियत है इतने बड़े पैमाने पर हस्तशिल्प कलाओं की व्यापक जीवंतता। हमारे देश में लाखों कारीगर हजारों समुदायों में फैले हुए हैं। उनमें से हर एक की बुनाई, धातु-कला, नक्काशी, कढ़ाई आदि में अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। ये कोई नए शौक नहीं हैं। नागालैंड के हाथ से बुने कपड़े हों या कश्मीर का पश्मीना। ये केवल एक उत्पाद भर नहीं हैं। यह एक सतत प्राचीन सांस्कृतिक कथा का हिस्सा हैं। यह प्रामाणिकता न तो नकली बनाई जा सकती है और न ही किसी कृत्रिम बुद्धिमता से इसे तैयार किया जा सकता है।
सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म पहले ही वितरण की समस्या को हल कर रहे हैं। भविष्य में राजस्थान के किसी गांव में बैठा कोई व्यक्ति अपने विशिष्ट और उच्च मूल्य वाले सामान को सीधे न्यूयॉर्क या टोक्यो के ऐसे ग्राहक को बेच सकेगा जो ऐसी चीजों का कद्रदान हो।
ऐसे में इस समय जिसे एक व्यापक कम तकनीक वाले बोझ के रूप में देखा जा रहा है वही चीज आगे चलकर उच्च मूल्य वाली निर्यातोन्मुखी वस्तु बन सकती है जो आर्थिक इंजन को गति प्रदान करे। देश में भविष्य का मेड इन इंडिया का टैग कम लागत वाले निर्माण से उच्च मूल्य वाली विशिष्ट वस्तुओं में बदल सकता है जो इंसानों द्वारा तैयार की जाती हों।
(लेखक तकनीक और समाज के बीच के संपर्कों को समझने के लिए समर्पित हैं)