बीते सप्ताहांत संपन्न हुए श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनावों ने कई पुरानी मिसाल तोड़ी हैं और देश की दशकों पुरानी राजनीतिक परंपरा को भी उलट दिया। श्रीलंका में आमतौर पर सत्ता दो अलग-अलग शक्तियों के बीच बंटती रही है जिनका नेतृत्व मध्य-दक्षिण और मध्य-वामपंथी दल करते हैं।
यहां तक कि पिछले ताकतवर लोगों मसलन राजपक्षे परिवार के राष्ट्रपतियों ने भी इन्हीं दो दलों में से किसी एक से शुरुआत की थी। परंतु नव निर्वाचित राष्ट्रपति अनुरा कुमार दिसानायके जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) से आते हैं। वह श्रीलंकाई राजनीति की वाम और राष्ट्रवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसके अलावा दिसानायके को पहली प्राथमिकता वाले मतों में बहुमत नहीं मिला जबकि कार्यकारी राष्ट्रपति के अन्य चुनावों में ऐसा होता रहा है। ऐसा इसलिए हुआ कि यह त्रिकोणीय मुकाबला था जिसमें निवर्तमान राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे, दिसानायके और सजित प्रेमदासा मैदान में थे।
प्रेमदासा और विक्रमसिंघे पुराने प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन दोनों ही श्रीलंकाई राजनीति के मध्य-दक्षिण धड़े का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा एक समय दबदबा रखने वाली यूनाइटेड नैशनल पार्टी से ताल्लुक रखते हैं।
इससे यह समझा जा सकता है कि आखिर क्यों दिसानायके दूसरी प्राथमिकता के इतने वोट आसानी से जुटा सके जिससे वह जीतने में कामयाब रहे। प्रेमदासा और विक्रमसिंघे भी पुराने राजनीतिक परिवारों से हैं और पूर्व राष्ट्रपतियों से जुड़े हैं। दिसानायके एक बाहरी व्यक्ति हैं और श्रीलंका की राजनीति में यह भी कम अस्वाभाविक बात नहीं।
सवाल यह है कि क्या दिसानायके उसी तरह देश चलाएंगे जैसा कि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार अभियान में कहा था: एक बाहरी विद्रोही के रूप में। जरूरी नहीं कि यह श्रीलंका के लिए अच्छी खबर हो। देश की अर्थव्यवस्था दो साल पहले की उथलपुथल के बाद कुछ हद तक स्थिर हो चुकी है। उस समय तो देश लगभग डिफॉल्ट जैसे हालात का शिकार हो गया था। परंतु देश अपने कर्ज के भारी बोझ को लेकर सही ढंग से नहीं निपट सका है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अर्थव्यवस्था को जो नया अवसर दिया है उसे लेकर घरेलू स्तर पर बहुत अधिक विवाद है। माना जा रहा है कि उसकी शर्तों में जो खर्च कटौती शामिल है उसकी वजह से देश में गरीबी बढ़ी है। विश्व बैंक का भी यही अनुमान है। दिसानायके के चुनाव से जुड़ी यही इकलौती चिंता नहीं है।
उन्होंने खुद को और अपने दल जेवीपी को नए सिरे से पेश किया है लेकिन लंबे समय तक इनका जुड़ाव न केवल किसान विद्रोह की माओवादी विचारधारा से रहा है बल्कि सिंहली राष्ट्रवाद से भी उनका जुड़ाव रहा है। उनका प्रचार अभियान काफी हद तक इस अतिवादी क्षेत्र को दी जानकारियों पर भी आधारित रहा जिसमें यह बात भी शामिल रही कि वे श्रीलंका की शक्तिशाली सैन्य लॉबी को युद्ध अपराधों की जांच से भी बचाएंगे।
यह भी माना जाता है कि उनकी पार्टी भारत के बजाय चीन को लेकर बहुत अधिक सहज है। जबकि चीन ने पिछले पूरे दशक श्रीलंका को लगातार अपने पाले में करने का प्रयास किया है। श्रीलंका के ताजा अनुभवों के बाद अब देखना होगा कि यह रिश्ता कैसे आगे बढ़ता है।
भारत ने दिसानायके तक तत्काल पहुंच बनाने का प्रयास किया है और वह उन्हें संदेह का लाभ देना चाहता है। वह गत वर्ष भारत आए थे और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिले थे। नए राष्ट्रपति ने यह स्पष्ट किया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण का नए सिरे से परीक्षण किया जाएगा और उन्होंने यह संकेत भी दिया है कि वह निर्यात को बढ़ावा देने और आर्थिक सुधारों को श्रीलंका की दिक्कतों का टिकाऊ हल मानते हैं।
जहां तक सामाजिक समरसता की बात है तो तीनों उम्मीदवारों में से देश की तमिल अल्पसंख्यक आबादी के साथ सत्ता में साझेदारी के लंबे समय से चले आ रहे वादे को निभाने की सबसे कम उम्मीद उन्हीं से थी। परंतु उन्होंने कम से कम देश की बहुसांस्कृतिक विरासत की तो बात की है। संभव है कि संसदीय चुनाव जल्दी ही होंगे और उन्हें विधायी बहुमत मिलेगा तथा वह अपनी पसंद का प्रधानमंत्री चुन सकेंगे। तब यह स्पष्ट होगा कि देश कैसे आगे बढ़ता है।