सन 1981 में दक्षिण भारत के चार राज्य (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) राष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियों में पांचवें हिस्से से कुछ अधिक के बराबर योगदान करते थे। अब इनकी संख्या पांच हो गई है क्योंकि तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग हो गया है। आर्थिक गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी भी बढ़कर लगभग तिगुनी यानी 30 फीसदी हो गई है।
आमतौर पर यह स्वीकार भी किया जाता है कि दक्षिण भारत का प्रदर्शन देश के अन्य इलाकों से बेहतर रहा है लेकिन यह कितना बेहतर रहा है इस बारे में जानकारी कई को चौंका सकती है। जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में भी दक्षिण भारत के राज्यों का प्रदर्शन बेहतर रहा है। ऐसे में चूंकि उनकी आबादी बिहार या उत्तर प्रदेश की दर से नहीं बढ़ी इसलिए वहां आर्थिक वृद्धि के लाभ का बंटवारा भी अपेक्षाकृत कम लोगों के बीच होता रहा है।
तेज आर्थिक वृद्धि और आबादी में धीमी बढ़ोतरी के मिश्रण की वजह से दक्षिण भारत के राज्यों की प्रति व्यक्ति आय गरीब राज्यों की तुलना में दो से पांच गुना है। निश्चित तौर पर दक्षिण के राज्यों का प्रदर्शन महाराष्ट्र और गुजरात से भी बेहतर रहा है। परंतु यह तुलना तब सबसे प्रखर रूप में सामने आती है जब हम बिहार की तुलना कर्नाटक से करते हैं। कर्नाटक की प्रति व्यक्ति आय बिहार की तुलना में पांच गुना अधिक है। तेलंगाना की प्रति व्यक्ति आय उत्तर प्रदेश से चार गुना अधिक है और केरल की प्रति व्यक्ति आय असम से दोगुनी है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के बीच भी इतना ही अंतर है।
बेहतर आय के साथ बेहतर सामाजिक-आर्थिक गुण भी आते हैं। दक्षिण भारत की जीवन संभाव्यता अन्य स्थानों से बेहतर है, वहां साक्षरता दर भी काफी बेहतर है और दक्षिण भारत की महिलाएं उत्तर भारत की महिलाओं की तुलना में औसतन एक संतान कम पैदा करती हैं।
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निश्चित तौर पर कम से कम दो राज्यों में प्रजनन दर दो बच्चे प्रति महिला की प्रतिस्थापन दर से कम हुई है इसलिए समय के साथ दक्षिण भारत के राज्यों की आबादी कम होने लगेगी जबकि गोदावरी के उत्तर में (यह नर्मदा की तुलना में इस बंटवारे का बेहतर मानक है) आबादी बढ़ती रहेगी। ये असंतुलन अन्य असंतुलन पैदा करते हैं मसलन राज्यों द्वारा जुटाया जाने वाला कर राजस्व।
झारखंड की आबादी केरल के बराबर है लेकिन उसका कर राजस्व आधा है। मध्य प्रदेश और तमिलनाडु के बीच भी ऐसा ही है। राजकोषीय शक्ति में यह असंतुलन आंशिक तौर पर केंद्र की ओर से होने वाले स्थानांतरण से होता है। दक्षिण के पांच राज्य केंद्र के वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह में एक चौथाई के योगदानकर्ता हैं लेकिन केंद्र की ओर से राज्यों को दी जाने वाली राशि में उन्हें छठे हिस्से से भी कम मिलता है। अगर केंद्र के संसाधनों का असमानुपातिक बंटवारा नहीं हुआ तो गरीब राज्य और अधिक पीछे छूट जाएंगे। दक्षिण के राज्यों ने कभी शिकायत नहीं की है लेकिन यह अंतर गहरा बना हुआ है।
जब हम सौर ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, मोबाइल फोन और इलेक्ट्रॉनिक कलपुर्जों आदि के क्षेत्र में निजी निवेश की बात करते हैं तो यहां भी कहानी टेक सेवाओं जैसी ही है: अधिकांश कारोबार दक्षिण में चला जाता है और बाकी बचा कारोबार भी पश्चिम के दो बड़े राज्यों महाराष्ट्र और गुजरात में चला जाता है। कुल मिलाकर पूर्व के राज्यों के लोगों के पास यही विकल्प रह जाता है कि वे पश्चिम और दक्षिण भारत जाकर मजदूर के रूप में काम करें।
यही वह परिदृश्य है जिसमें अगली जनगणना और राज्यों में संसदीय सीटों के नए सिरे से आवंटन या परिसीमन को देखे जाने की आवश्यकता है। आज, दक्षिण भारत के राज्यों के पास करीब एक चौथाई सीटें हैं लेकिन आबादी कुल आबादी के पांचवें हिस्से के बराबर है।
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परिसीमन के बाद यह स्थिति बदल जाएगी और संभव है कि करीब दो सौ नई बनने वाली लोकसभा सीटों में दक्षिण की हिस्सेदारी काफी कम हो। इसके अलावा लोकसभा में उत्तर के अधिक आबादी वाले राज्यों का दबदबा होगा जहां सामाजिक-आर्थिक हालात कमजोर हैं। ऐसे में अलग किस्म की राजनीति नजर आ सकती है। उदाहरण के लिए भाषाई नीति को लेकर।
दक्षिण से पहले ही ऐसी आवाजें उठी हैं कि उन्हें जनांकिकीय सफलता के लिए दंडित न किया जाए। अभी तक इस बात को लेकर मुद्दा नहीं बना है कि दक्षिण के कर का पैसा उत्तर और पूर्व में न भेजा जाए लेकिन यह मसला भी गंभीर हो सकता है। चूंकि दक्षिण के अधिकांश हिस्सों में क्षेत्रीय दलों का शासन है इसलिए राष्ट्रीय और उत्तर भारत के दल शायद उस इलाके के विरोध की अनदेखी करें लेकिन भौगोलिक, आर्थिक, भाषाई और सामाजिक-राजनीतिक (हिंदुत्व बनाम क्षेत्रीय पहचान) सीमांकन को ढक लेने वाले पार्टीवार विभाजन के अपने खतरे हैं।
सरकार के लिए यही बेहतर होगा कि वह अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता या राज्य सभा में कोई बदलाव नहीं करने की घोषणा पहले ही कर दे। बदले में दक्षिण के राज्यों को भी यह देखना चाहिए कि उन्हें उत्तर के बाजार की जरूरत है।