Photo: Shutterstock
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा गत सप्ताह जारी किए गए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों ने विश्लेषकों को चौंका दिया। अधिकांश लोगों को यह अंदेशा तो था कि मांग में कमी जीडीपी में भी नजर आएगी लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर केवल 5.4 फीसदी रह जाएगी जो सात तिमाहियों में सबसे कम दर है।
रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्री खासतौर पर निराश होंगे क्योंकि उन्होंने अक्टूबर की मौद्रिक नीति समीक्षा में सात फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान पेश किया था। वित्त वर्ष की पहली छमाही में अर्थव्यवस्था केवल छह फीसदी की दर से बढ़ी थी और अब रिजर्व बैंक को पूरे वर्ष के लिए 7.2 फीसदी के वृद्धि अनुमान पर पुन: विचार करना होगा।
दूसरी तिमाही के दौरान विनिर्माण क्षेत्र ने वृद्धि पर असर डाला था। उस अवधि में उसमें साल-दर-साल आधार पर केवल केवल 2.2 फीसदी की वृद्धि देखने को मिली थी जबकि पहली तिमाही में 7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी। निर्माण क्षेत्र में भी धीमापन आया और खनन क्षेत्र में भी। हालांकि कृषि क्षेत्र पिछले साल की समान अवधि के 1.7 फीसदी की तुलना में 3.5 फीसदी की दर से बढ़ा।
अनुमान से कम वृद्धि दर ने नीति प्रबंधकों के लिए जटिलता बढ़ा दी है और कई सवाल पैदा किए हैं। यह बात ध्यान देने लायक है कि अगले आम बजट की प्रस्तुति के पहले ये जीडीपी के आखिरी आंकड़े हैं। यह सही है कि एनएसओ चालू वित्त वर्ष के पहले अग्रिम अनुमान जनवरी 2025 में जारी करेगा। इन अनुमानों में अतिरिक्त सूचना को शामिल किए जाने की संभावना सीमित होगी। चालू वर्ष की पहली छमाही का आर्थिक प्रदर्शन कम से कम दो अहम नीतिगत चुनौतियां पेश करता है।
पहली चुनौती है राजकोषीय प्रबंधन। ध्यान देने वाली बात है कि पहली छमाही में नॉमिनल वृद्धि दर 8.9 फीसदी रही। वर्ष के लिए बजट अनुमान 10 फीसदी के नॉमिनल वृद्धि अनुमानों पर आधारित हैं। अगर यही रुझान दूसरी छमाही में भी जारी रहता है तो विशुद्ध संदर्भों में राजकोषीय घाटे को निचले स्तर पर बनाए रखना होगा ताकि जीडीपी के 4.9 फीसदी तक के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। अगर मान लिया जाए कि राजस्व लक्ष्य हासिल होंगे तो इसका अर्थ होगा कम सरकारी व्यय।
ताजा आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर तक केंद्र सरकार की कुल प्राप्तियां बजट अनुमान के 53.7 फीसदी थीं। गत वित्त वर्ष के दौरान तुलनात्मक स्तर 58.6 फीसदी था। व्यय पक्ष की बात करें तो समायोजन की गुंजाइश मौजूद है लेकिन पूंजीगत व्यय की धीमी गति से नीति नियामकों को चिंतित होना चाहिए। वित्त वर्ष के आरंभिक सात महीनों में सरकार ने अपने आवंटन की सिर्फ 42 फीसदी राशि व्यय की जो धीमी वृद्धि को एक हद तक स्पष्ट करता है।
दूसरी नीतिगत चुनौती है आर्थिक गतिविधियों को टिकाऊ बनाना। कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार के पूंजीगत व्यय में इजाफा वृद्धि को गति प्रदान करेगा। यह धारणा कुछ हद तक दूसरी छमाही में फलीभूत हो सकती है। बहरहाल, सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था वृद्धि के लिए कब तक उच्च सरकारी व्यय पर निर्भर रहेगी।
राजकोषीय बाधाओं को देखते हुए पूंजीगत व्यय में निरंतर इजाफा करना मुश्किल होगा। चालू वर्ष में आवंटन जीडीपी के 3.4 फीसदी के बराबर है। उच्च वृद्धि के लिए अन्य कारकों खासतौर पर निजी निवेश को बढ़ाना होगा। मध्यम अवधि के नजरिये से देखें तो बाहरी अनिश्चितता हालात को केवल कठिन बनाएगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत ने जटिलताएं बढ़ा दी हैं। मौद्रिक नीति के मोर्चे पर मौद्रिक नीति समिति पर नीतिगत ब्याज दरें कम करने का दबाव बढ़ेगा। एमपीसी को इस सप्ताह के आखिर में होने वाली बैठक में अपने रुख पर टिके रहना चाहिए। मुद्रास्फीति के 6.2 फीसदी के स्तर को देखते हुए बिना सोचे-समझे की गई कोई भी प्रतिक्रिया हालात को जटिल बना सकती है। चाहे जो भी हो, सुस्ती से निपटने के लिए नीतिगत दर में कमी से परे उपाय सोचने होंगे।