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Editorial: जलवायु वित्त पर असहमति, कॉप29 बैठक के कमजोर परिणाम

तीव्र बहस के उपरांत रविवार को जब तय अवधि के दो दिन बाद जब यह बैठक समाप्त हुई तब वह एक ऐसे वित्तीय समझौते पर पहुंची, जिसका भारत, नाइजीरिया, बोलिविया और क्यूबा ने घोर विरोध किया

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- November 25, 2024 | 9:52 PM IST

अजरबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप29) की 29वीं बैठक एक ऐसी जलवायु वित्त बैठक के रूप में आयोजित हुई जहां ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन करने वाले विकसित देश विकासशील देशों के जलवायु अनुकूलन और उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2025 के आगे की नई वित्तीय प्रतिबद्धता तय करने वाले थे। परंतु तीव्र बहस के उपरांत रविवार को जब तय अवधि के दो दिन बाद जब यह बैठक समाप्त हुई तब वह एक ऐसे वित्तीय समझौते पर पहुंची, जिसका भारत, नाइजीरिया, बोलिविया और क्यूबा ने घोर विरोध किया।

इसके अलावा जितनी राशि की प्रतिबद्धता जताई गई उसके विरोध में छोटे द्वीपीय देशों के समूह तथा जलवायु संकट झेल रहे अन्य देशों ने आयोजन का बहिष्कार भी किया। हालांकि नए समग्र मात्रात्मक लक्ष्य (एनसीक्यूजी) के अंतर्गत 2035 तक सालाना 300 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता जताई गई है जो पहले जताई गई सालाना 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता से काफी अधिक है। लेकिन यह विकासशील देशों की 1.3 लाख करोड़ डॉलर की मांग से काफी कम है।

इस तमाम असंतोष के बीच वार्ताकारों ने संकेत दिया है कि समझौता चाहे जितना भी अपूर्ण हो, परंतु नहीं होने से तो वह बेहतर ही होता है। महज दो माह पहले कॉप29 के पहले बाकू में वार्ताकारों की बैठक में सदस्य देश एनसीक्यूजी के अधीन किसी वित्तीय प्रतिबद्धता पर नहीं पहुंच पाए थे। परंतु जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील देशों के पास इस बात की अच्छी-खासी वजह है कि वे बाकू में हुए समझौते को लेकर मजबूत पूर्वग्रह रखें।

अगर मौजूदा रुझानों को मानक माना जाए तो 300 अरब डॉलर की अपर्याप्त राशि जुटा पाना भी मुश्किल नजर आ रहा है। पहले जलवायु वित्त लक्ष्य के लिए 100 अरब डॉलर की राशि तय की गई थी। इस राशि पर कोपनहेगन में 2009 में आयोजित कॉप 15 में सहमति बनी थी। इस लक्ष्य को 2022 में यानी केवल एक बार हासिल किया जा सका था वह भी लक्षित वर्ष के दो साल बाद। दूसरी बात यह कि अधिक वित्तीय सहायता की मांग भी अस्पष्ट हैं।

उदाहरण के लिए कॉप 29 में ‘बाकू से बेलेम’ खाके पर सहमति बनी। ब्राजील के बेलेम शहर में अगले वर्ष कॉप30 का आयोजन होना है। वहां सभी पक्ष साथ मिलकर ‘सभी सार्वजनिक और निजी स्रोतों’ का इस्तेमाल करके 2035 तक सालाना 1.3 लाख करोड़ डॉलर के लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करेंगे।
योजना यह है कि 2030 तक इस निर्णय पर नजर रखी जाए। इस बीच 2026 और 2027 में रिपोर्ट आएंगी। आखिर में समझौता विकासशील देशों से आग्रह करता है कि वे इस लक्ष्य को पाने के लिए स्वैच्छिक रूप से सहयोग करें। यह वैश्विक समृद्ध देशों यानी ग्लोबल नॉर्थ के दायित्वों में महत्त्वपूर्ण कमी करने वाली बात है।

एक सकारात्मक बात यह है कि करीब एक दशक की बातचीत के बाद कॉप 29 में करीब 200 देश इस बात पर सहमत हुए कि पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 के अधीन कार्बन बाजार के संचालन की दिशा में बढ़ा जाए। इसके बाद दो देशों के बीच व्यापार और कार्बन क्रेडिट प्रणाली के पूरी तरह काम करने की उम्मीद है। कार्बन ट्रेडिंग जलवायु वित्त का एक अहम स्वरूप है और ये नियम भारत को इस बाजार को परिचालित करने में मदद करेंगे।

भारत को उसके वार्ताकार द्वारा समझौते को नकारने तथा दुनिया के गरीब देशों की हिमायत करने का लाभ मिला है। परंतु तथ्य यह है कि विकासशील देशों की आपत्तियों को आसानी से खारिज कर दिया गया। यह बताता है कि इन वार्ताओं में काफी असमानता है और विकसित देश इस संकट में अपने ऐतिहासिक दायित्व से पीछे हट रहे हैं। जलवायु संकट को शंका की दृष्टि से देखने वाली ट्रंप सरकार के आगमन के बाद यह रुझान और बढ़ेगा।

ट्रंप अपने पहले कार्यकाल में पेरिस समझौते को नकार चुके हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि बाइडन प्रशासन के ठोस इरादों के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस लगातार जलवायु वित्त अनुरोधों पर उसे नकारती रही। भारत और विकासशील देशों के लिए बेहतर होगा कि वे अपनी अनुकूलन रणनीतियों पर ध्यान दें और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करें। ताप बिजली पर बढ़ती निर्भरता को कम करना अच्छी शुरुआत होगी।

First Published : November 25, 2024 | 9:52 PM IST