लेख

Editorial: चीन सदा-सर्वदा विकासशील!

शी चीन की भविष्य की वृद्धि को लेकर कोई आशंका व्यक्त कर रहे थे और ऐसा कुछ कह रहे थे कि उनका देश मध्य आय के जाल में उलझा रहेगा।

Published by
बीएस संपादकीय   
Last Updated- August 28, 2023 | 9:39 PM IST

दक्षिण अफ्रीका में हाल ही में संपन्न ब्रिक्स देशों की शिखर बैठक से इतर चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने जोर देकर कहा कि उनका देश ‘विकासशील देशों के समूह का सदस्य था, है और हमेशा रहेगा।’

इस बात की संभावना कम है कि शी चीन की भविष्य की वृद्धि को लेकर कोई आशंका व्यक्त कर रहे थे और ऐसा कुछ कह रहे थे कि उनका देश मध्य आय के जाल में उलझा रहेगा। यदि वह ऐसा नहीं कह रहे थे तो फिर उनके इस वक्तव्य की व्याख्या किस प्रकार की जाए?

दरअसल वह इस बात की घोषणा कर रहे थे कि चीन चाहे जितना अमीर हो जाए और उसके हित विकासशील देशों के हितों से चाहे जितने अलग हो जाएं, वह हमेशा खुद को विकासशील देशों का नेता कहलवाना चाहता है। पश्चिम के उदार लोकतांत्रिक देशों के साथ महाशक्ति बनने की किसी भी प्रतिस्पर्धा में चीन की उम्मीद यही है कि वह अपने विकासशील देश के दर्जे के साथ दुनिया के विकासशील देशों का समर्थन जुटा सकेगा।

Also read: विकासशील देशों का नेतृत्व कल्पना और भुलावा

भारत के लिए इसे एक परेशान करने वाले रुझान के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत पहले ही वैश्विक जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में खुद पर दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश का ठप्पा लगवाने का खमियाजा भुगत चुका है। चीन की धुआं उगलने वाली फैक्टरियां चाहती हैं कि उन पर उत्सर्जन कम करने का दबाव न बनाया जाए और इसके लिए वे समग्र एवं प्रति व्य​क्ति के हिसाब से भारत जैसे विकासशील देशों में बेहद कम उत्सर्जन की आड़ लेना चाहती हैं।

भारत के लिए इस चालाकी का जारी रहना ठीक नहीं है। यह भारत का दायित्व है कि वह विश्व स्तर पर अन्य उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के साथ साझा हितों को सुरक्षित करे। इनमें ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे बड़े देशों से लेकर सब-सहारा अफ्रीका के छोटे देशों तक शामिल हैं। इन साझा हितों में विकेंद्रीकरण और समावेशी वैश्विक आर्थिक व्यवस्था शामिल है जिसमें फाइनैंस और आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े व्यापक सुधार शामिल हैं जो शायद पश्चिम अथवा चीन के तात्कालिक हित में नहीं हों।

इन विचारों को विशुद्ध विकासशील देशों के गठबंधनों के द्वारा आगे बढ़ाया जाना चाहिए, न कि अमेरिका अथवा चीन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में।भारत अब विकासशील देशों के नेता के रूप में चीन की स्थिति का समर्थन नहीं करता है। वह उसके खुद को विकासशील देश के रूप में स्वयं चिह्नित करने की भी वकालत नहीं करता।

हालांकि वह ऐसे मसलों पर स्वनिर्धारण के सिद्धांत के साथ है। अब वक्त आ गया है कि ऐसे सिद्धांत में भारत के लिए क्या है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन के भीमकाय कद और उसके सहजता से आय वितरण में ऊपरी हिस्से में जाने को स्वीकार किया जाना भी लंबित है।

Also read: तकनीकी तंत्र: अंतरिक्ष में निवेश के असीमित लाभ

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि चीन की प्रतिव्यक्ति आय अर्जेन्टीना, मलेशिया, मैक्सिको और तुर्की से अधिक है। उसकी प्रति व्यक्ति आय यूरोपीय संघ के देशों से 1,000 डॉलर के आसपास ही कम है।परंतु विकासशील देश के रूप में स्व-निर्धारण उसे यह सुविधा देता है कि वह विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय स्तरों पर कुछ वरीयता हासिल कर सके।

भारत को अब यह प्रश्न करना चाहिए कि उसे ऐसे विकासपथ पर आगे बढ़ने से क्या हासिल हो रहा है जहां उसके सामरिक प्रतिस्पर्धी को इस प्रकार के लाभ हासिल हो रहे हैं। वैश्विक विकास ने सीधी राह पकड़ ली है: गरीब देश पूंजी और तकनीक आकर्षित करते हैं, अमीर होते हैं और अपने से नीचे वाले देशों के यहां निवेशक बन जाते हैं। कोई भी देश हमेशा विकासशील बने रहने की उम्मीद नहीं कर सकता है क्योंकि जमीनी तथ्य इसके खिलाफ जाते हैं। चीन भी इसका अपवाद नहीं होना चाहिए।

First Published : August 28, 2023 | 9:39 PM IST