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विकासशील देशों का नेतृत्व कल्पना और भुलावा

भारत अगर विकासशील देशों का नेतृत्व करना चाहता है तो उसे हकीकत को परखना होगा। इस बात की काफी संभावना है कि नई उभरती द्विध्रुवीय व्यवस्था में यह चीन का पक्षधर बन जाए।

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- August 27, 2023 | 9:40 PM IST

इन दिनों नेहरू को नकारना या उनसे पल्ला झाड़ना चाहे जितना चलन में हो लेकिन उन्होंने विदेश नीति में जो बातें शामिल की थीं उनका एक हिस्सा नरेंद्र मोदी सरकार में भी जस का तस है।

इस दलील को स्थापित करने के लिए हम यह गिनती कर सकते हैं कि हाल के दिनों में मोदी ने सार्वजनिक रूप से ‘ग्लोबल साउथ’ (विकासशील देशों) का प्रयोग कितनी बार किया है। उन्होंने तमाम वैश्विक शिखर बैठकों में, अमेरिकी कांग्रेस को संबोधन में, ब्रिक्स शिखर बैठक में और यहां तक कि स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से भी इसका इस्तेमाल किया है।

पहले इस विचार को विस्तार से जानते हैं और यह भी कि नेहरू के युग से यह निरंतरता में क्यों है। विचार यह है कि भारत या उसका नेता बाकियों का नेतृत्व कर सकता है। यहां बाकियों से तात्पर्य है अमेरिका, उसके यूरोपीय साझेदारों और अन्य गठबंधन वाले देशों के अलावा जो भी देश हैं। अगर आप ग्लोबल साउथ शब्द को गूगल करें तो पाएंगे आमतौर पर इसमें दक्षिणी गोलार्द्ध के देश शामिल हैं।

परंतु तब प्रश्न यह उठता है कि आप जापान और दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को कहां रखेंगे? जाहिर है यहां भूगोल काम नहीं करता।

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इतिहास हमें बताता है कि ग्लोबल नॉर्थ और साउथ को देशों के आधार पर विभाजित करने वाली रेखा का विचार पूर्व जर्मन चांसलर विलहेम ‘विली’ ब्रांड्ट का दिया हुआ है। सन 1980 में ब्रांड्ट की अध्यक्षता वाले एक आयोग ने ‘नॉर्थ-साउथ: अ प्रोग्राम फॉर सर्वाइवल’ नामक एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसने मनमाने ढंग से दुनिया को 30 डिग्री उत्तर अक्षांश के दोनों ओर बांट दिया।

यह अमेरिका और मैक्सिको के बीच से निकलते हुए अफ्रीका के ऊपर से, यूरोप से होते हुए चीन को समेटती है। इसके बाद उसे ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को इससे बाहर रखने के लिए कलाकारी करनी पड़ी। जापान और दक्षिण कोरिया को भी इससे बाहर रखा गया। दुनिया को अमीर उत्तर और गरीब और विकासशील दक्षिण में बांटने का विचार भौगोलिक परीक्षा में विफल रहता है।

जानकारी के मुताबिक पहली बार यह शब्द 1969 में कैथलिक जर्नल कॉमनवील के विशेष अंक में सामने आया था। वह विशेष अंक वियतनाम युद्ध पर था। लेखक कार्ल ओग्लेस्बी ने शिकायत की थी कि उत्तर के अमीर देशों ने सदियों तक ग्लोबल साउथ पर दबदबा बनाये रखा जिससे ऐसी व्यवस्था बन गई जो बर्दाश्त करने लायक नहीं थी। बीच के पांच दशकों में इसे कई नाम मिले: तृतीय विश्व, विकासशील देश और अब ग्लोबल साउथ। मोदी इसके सबसे प्रमुख और शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे हैं।

हम पहले ही देख चुके हैं कि कैसे यह परिभाषा भूगोल के क्षेत्र में नाकाम है। आइए अब परीक्षण करते हैं कि आर्थिक रूप से यह कैसी है।

सभी विश्वसनीय स्रोतों के आधार पर और तमाम आकलन के आधार पर आप पाएंगे कि ग्लोबल साउथ में 78 देश हैं। इनमें से प्रमुख हैं: चीन, भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील, नाइजीरिया और बांग्लादेश। समूह की आबादी का अधिकांश हिस्सा इन छह देशों से आता है। इनमें आर्थिक समानता क्या है?

हमें पता है कि चीन अभी भी यह दावा करना पसंद करता है कि वह विकासशील देश है। परंतु 12,000 डॉलर से अधिक की प्रतिव्यक्ति आय के साथ वह विकासशील देश तो नहीं है। अगर मान भी लें कि चीन ग्लोबल साउथ में है तो क्या वह भारत को समूह का नेता बनने देना चाहेगा?

एक बार फिर अगर आय को मानक माना जाए और भौगोलिक विभाजन रेखा को सुविधा के साथ बदला जाए तो जल्दी ही रूस ग्लोबल साउथ में आने का हकदार हो जाएगा।

भूगोल और आर्थिकी के मामले में तो हम नाकाम रहे हैं अब बात करते हैं सामरिक मानकों की। ग्लोबल नॉर्थ के कई अहम साझेदार साउथ में हैं मसलन: जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस और भारत भी क्यों नहीं? आखिर लगातार तीन भारतीय प्रधानमंत्रियों ने अमेरिका को अपना ‘नैसर्गिक सामरिक सहयोगी’ बताया है।

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जापान और ऑस्ट्रेलिया ग्लोबल नॉर्थ में अमेरिका के सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगी हैं लेकिन वे क्वाड में हमारे सहयोगी भी हैं। क्या हमारे सामरिक सहयोगी ग्लोबल साउथ में भी हैं? तथ्य यह है कि हमारे साझेदार, आर्थिक हित, हमारे प्रवासी और हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हित आदि सभी ग्लोबल नॉर्थ में हैं। हम ग्लोबल नॉर्थ को इसलिए नकारते हैं कि हम उसे खुद से आगे पाते हैं। ऐसे में हम बाकियों का नेतृत्व करना चाहते हैं।

नेहरू के भारत को विरासत में ऐसी दुनिया मिली थी जो दो विश्वयुद्धों से ध्वस्त थी और औपनिवेशिक शक्तियों के पतन के बीच उसने खुद को एकजुट किया था। वह समय अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में दो गुटों का समय था।

नेहरू के राजनीतिक रूपक, व्यक्तिगत जीवनशैली और सामाजिक संपर्क पश्चिमी थे। उनकी वैचारिक प्रगति ब्रिटिश समाजवादियों के बीच हुई थी। इस बात ने उन्हें स्वाभाविक रूप से पश्चिम से दूरी रखने वाले रुझान का बना दिया।

उस समय पूर्व-पश्चिम का विभाजन अधिक था और उत्तर-दक्षिण का कम। उस वक्त पश्चिम में दंभ था, वह दबदबे वाला और शोषणकारी था और सोवियत धड़ा पूर्व के खेमे में था। पूर्व के श्रेष्ठ और पश्चिम के बुरा होने के भाव ने वहीं से आकार लिया।

यह बात उस समय की हमारी लोकप्रिय संस्कृति में रच बस गई। सन 1960 में आई राज कपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है में शैलेंद्र का लिखा गीत याद कीजिए: ‘कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं/ ये पूरब है पूरब वाले, हर जान की कीमत जानते हैं।’

आश्चर्य नहीं कि नेहरू ने जिस गुटनिरपेक्ष आंदोलन को खड़ा किया था उसका रुझान भी पश्चिम और अमेरिका विरोधी था। अगर गुटनिरपेक्षता किसी भी तरह बची भी थी तो इंदिरा गांधी ने सोवियत समर्थक रुझान के साथ इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया। उन्होंने मॉस्को के साथ शांति, मित्रता और सहयोग संधि भी की। उसके बाद भारत और क्यूबा जैसे देशों के साथ गुट निरपेक्ष आंदोलन सोवियत ब्लॉक का हिस्सा बनकर रह गया।

भारतीयों की पीढि़यों में यह प्रभाव इतना गहरा रहा कि शीतयुद्ध के समापन के बाद भारत को नई हकीकत को स्वीकारने में करीब दो दशक का वक्त लगा। मैंने दो दशक इसलिए कहा क्योंकि मैं भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते को संसद की मंजूरी को निर्णायक पल मानता हूं।

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शीतयुद्ध के बाद की एकध्रुवीय दुनिया को चीन का उभार चुनौती दे रहा है। एकध्रुवीय व्यवस्था किसी को पसंद नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान नई दिल्ली में गुटनिरपेक्षता 2.0 का विचार पेश किया गया लेकिन जल्दी ही कांग्रेस के सत्ता गंवा देने के कारण यह विचार ठप हो गया। मोदी के बारे में ज्यादातर लोगों ने माना कि वह अतीत से निर्णायक रूप से दूरी बना सकते हैं वह ऐसा करते भी आए हैं। वह व्यावहारिक रूप से, लेनदेन के भाव से और संशय के साथ ऐसा कर रहे हैं और यह बात भारत के लिए अच्छी साबित हुई है।

चीन ने अमेरिका के दबदबे और रूस के तेज पराभव के बीच चुनौती पैदा की है परंतु इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई है। यही वजह है कि बहुपक्षीयता, बहुलता के नए विचार सामने आ रहे हैं। बिना बहस के किसी बात को खारिज नहीं किया जाना चाहिए। परंतु आज यह मानना सही होगा कि अमेरिकी प्रभाव के बाहर कोई नई बहुपक्षीय व्यवस्था बनेगी तो उस पर चीन का दबदबा होगा।

शांघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स केवल दो उदाहरण हैं। इस स्थिति में ग्लोबल साउथ के नेतृत्व को हकीकत के नजरिये से परखने की आवश्यकता है। शीतयुद्ध में सोवियत संघ भौगोलिक रूप से दूर था और वह एक सुपरिभाषित धड़े का नेता था। उसने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को बाहर से प्रभावित किया। आज चीन केंद्र में है और ग्लोबल साउथ के सामने एक अनिश्चित रास्ता है। बहुत संभव है कि यह उभरती द्विपक्षीय विश्व व्यवस्था में चीन के खेमे में तब्दील हो जाए। हम चाहें या न चाहें।

First Published : August 27, 2023 | 9:40 PM IST