प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) की ओर से खाद्य एवं पेय पदार्थ निर्माताओं द्वारा ‘ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्यूशन’ (ओआरएस) शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने का परामर्श बहुत पहले आ जाना चाहिए था। बाल रोग विशेषज्ञों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा आठ साल से चलाए जा रहे अभियान का नतीजा यह परामर्श है कि उत्पादों के नाम, लेबल और ट्रेडमार्क में, यहां तक कि उत्पाद के नाम के आगे या पीछे भी इस शब्द का इस्तेमाल वर्जित है। केवल विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के अनुरूप और दवा की दुकानों में बेचे जाने वाले औषधीय ओआरएस उत्पादों को ही इस शब्द के इस्तेमाल की अनुमति होगी। यह परामर्श न केवल निर्जलीकरण की स्थिति में ओआरएस के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने में मददगार साबित होगा, बल्कि इससे उपभोक्ता एजेंसियां खाद्य एवं सौंदर्य प्रसाधनों पर अर्द्ध-औषधीय दावों पर नए सिरे से विचार करने के लिए भी प्रेरित होंगी।
ओआरएस मूलतः पानी, ग्लूकोज और सोडियम व पोटैशियम जैसे आवश्यक इलेक्ट्रोलाइट का चिकित्सकीय रूप से तैयार किया गया मिश्रण होता है। यह निर्जलीकरण के कारण शरीर से निकले तरल पदार्थों और लवणों की पूर्ति करता है। पिछले दो दशकों में यह देखा गया है कि व्यावसायिक रूप से मार्केटिंग किए जाने वाले अनेक उपभोक्ता उत्पाद- मुख्य रूप से आकर्षक रूप से पैक किए गए ‘स्पोर्ट्स’ और ‘एनर्जी’ ड्रिंक – सुपरस्टार्स द्वारा प्रचारित किए गए हैं। इनमें से कई उत्पादों को ‘ओआरएस के विकल्प’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इनमें न केवल चीनी की मात्रा बहुत अधिक होती है बल्कि कई में कैफीन भी होता है, जो निर्जलीकरण को कम करने में कोई मदद नहीं करता। कभी-कभी तो इनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 13.5 ग्राम प्रति लीटर चीनी की सिफारिश से 10 गुना तक अधिक मात्रा होती है। ये अतिरिक्त चीजें विशेष रूप से बच्चों के लिए हानिकारक हो सकती हैं।
इसके अतिरिक्त, ऐसे देश में जहां मधुमेह के मामले चिंताजनक रूप से ऊंचे स्तर पर हैं, यहां तक कि युवाओं में भी, उच्च चीनी वाले वाणिज्यिक उत्पाद जो ओआरएस के संदिग्ध लाभों का दावा करते हैं, विशेष रूप से हानिकारक हो सकते हैं। हालांकि एफएसएसएआई के परामर्श में दंड का उल्लेख नहीं है, लेकिन इसके निर्देशों का पालन न करने पर खाद्य संरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 के तहत दंड या जुर्माना लग सकता है। इसलिए इन नए लेबलिंग कानूनों की सफलता निगरानी और व्यापक शिक्षा अभियानों पर निर्भर करेगी ताकि उपभोक्ताओं को औषधीय रूप से तैयार ओआरएस उत्पादों और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध उत्पादों के बीच के अंतर के बारे में पर्याप्त रूप से जागरूक किया जा सके। व्यावसायिक खाद्य उद्योग के पास मौजूद धनबल को देखते हुए यह और भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विनिर्माताओं ने प्रतिबंध के अचानक लागू होने की शिकायत करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। न्यायालय ने लगभग 180 करोड़ रुपये मूल्य के मौजूदा स्टॉक को बेचने की अनुमति देकर अस्थायी राहत दी है।
इस सलाह से अन्य मानक-निर्धारण और प्रवर्तन एजेंसियों को लेबलिंग कानूनों में कठोरता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित होना चाहिए। नाश्ते के अनाज और स्नैक बार, पैकेज्ड फलों के रस और स्मूदी, या विटामिन-युक्त पानी में अक्सर चीनी, परिष्कृत कार्बोहाइड्रेट, ट्रांस-वसा और नमक की मात्रा अधिक होती है और उनमें पोषण मूल्य न्यूनतम होता है। इनमें से कई उत्पाद भ्रामक रूप से संकेत देते हैं कि वे ताजे भोजन और फलों के स्वस्थ विकल्प हैं। इस मसले का हल करने का एक तरीका यह है कि एफएसएसएआई लेबलिंग में ऐसा बदलाव निर्धारित करे ताकि यह निहितार्थ हटा दिया जाए कि ये उत्पाद स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ हैं।
इसी तरह, ‘प्राकृतिक’ और ‘हर्बल’ कॉस्मेटिक उत्पादों के प्रति दीवानगी ने ऐसे उत्पादों की बाढ़ ला दी है जो विशिष्ट कॉस्मेटिक दोषों को दूर करने के लिए औषधीय लाभों का दावा करते हैं। वैसे तो केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन और भारतीय मानक ब्यूरो कॉस्मेटिक उत्पादों पर चिकित्सीय प्रकृति के दावे करने पर प्रतिबंध लगाते हैं, फिर भी बाजार में ऐसे उत्पाद बहुतायत में हैं। विनिर्माताओं को भ्रम दूर करने के लिए अपनी लेबलिंग में बदलाव करने पर मजबूर करना भारतीय उपभोक्ताओं के लिए एक अच्छा संकेत होगा, जो अक्सर गुमराह होते रहते हैं।