बीते कई वर्षों में महत्त्वपूर्ण आर्थिक द्विविधता / द्वैतवाद और असमानता भारत की पहचान बन चुकी है। अल्पसंख्या वाले अमीरों और ढेर सारे गरीबों के बीच आय, संपत्ति तथा जीवन अवसरों को लेकर बुनियादी खाई वास्तव में आर्थिक द्वैतवाद के कई अन्य पहलुओं का परिणाम है जिनमें: शहरी बनाम गरीब, संगठित बनाम असंगठित, भूमि (तथा अन्य परिसंपत्ति) स्वामित्व बनाम भूमिहीन, रोजगारशुदा बनाम बेरोजगार, सुशिक्षित बनाम अल्पशिक्षित तथा गरीब बनाम अमीर राज्य आदि। असमानता के इन व्यापक आर्थिक पहलुओं के ऊपर सामाजिक पहलू भी हैं, मसलन उच्च जाति बनाम निम्र जाति, बहुसंख्यक हिंदू बनाम अल्पसंख्यक मुस्लिम और पुरुष बनाम महिला। आर्थिक द्वैतवाद के अनेक पहलू हैं और समय के साथ तमाम पहलुओं के रुझान बदलते रहते हैं।
व्यापक बात करें तो सन 1980 के दशक से आर्थिक वृद्धि और ढांचागत बदलावों ने गरीबी के आंकड़ों में काफी कमी की। सन 1970 के दशक के 50 फीसदी से ज्यादा घटकर 2011-12 में यह अनुपात 20 फीसदी के करीब रह गया। दरअसल राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ओर से अंतिम सार्वजनिक आंकड़ा उसी वर्ष का उपलब्ध है। परिवारों की खपत का एक सर्वेक्षण राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 2017-18 में भी किया था लेकिन उसके नतीजे नहीं पेश किए गए। गुपचुप तरीके से बाहर आई जानकारी के आधार पर समाचार पत्रों ने जो खबरें छापीं उनके मुताबिक चार दशक में पहली बार कई बड़े राज्यों में तथा कुल मिलाकर भी ग्रामीण गरीब आबादी में कुछ इजाफा हुआ है। इसमें चकित करने वाली कोई बात नहीं थी क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के आखिरी वर्षों की धीमी आर्थिक वृद्धि तथा 2016 के अंत में नोटबंदी तथा 2017-18 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के खराब क्रियान्वयन के दोहरे झटके ने मुश्किल खड़ी की। गरीबी दर में इजाफे की बात 2011-12 और 2017-18 के बीच रोजगार की स्थितियों में आई भारी गिरावट के भी एकदम अनुकूल थी। यह आंकड़ा उन वर्षों के आधिकारिक रोजगार/श्रम शक्ति सर्वे से निकला है। इन सर्वेक्षणों के अनुसार तो कुल बेरोजगारी तीन गुना हो गई जबकि युवा बेरोजगारी दर तथा श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी में भारी गिरावट आई।
इसके बाद कोविड महामारी आई और मार्च 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन लग गया। इसके चलते अप्रैल-जून 2020 तिमाही में जीडीपी 24 फीसदी गिर गई जबकि पूरे वर्ष के लिए यह गिरावट 7.3 फीसदी रही। ध्यान रहे ये आशावादी आधिकारिक आंकड़े हैं। अप्रैल और मई में बेरोजगारी 20 फीसदी बढ़ गई तथा श्रम शक्ति भागीदारी में भी तेजी से कमी आई। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकनॉमी (सीएमआर्ईई) के आंकड़ों के अनुसार इन महीनों में करीब 10 करोड़ लोग अपनी आजीविका गंवा बैठे। रोजगार और आय को पहुंचे नुकसान के केंद्र में गैर कृषि असंगठित क्षेत्र था जिसमें श्रमिक तथा विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के छोटे और सूक्ष्म उपक्रम प्रमुख थे। इसके अलावा ज्यादा संपर्क वाले रोजगार मसलन खुदरा दुकानें, स्वागत उद्योग, यात्रा और पर्यटन आदि ज्यादा प्रभावित हुए। जून से लॉकडाउन चरणबद्ध तरीके से समाप्त होना शुरू हुआ और कई क्षेत्रों में उत्पादन सुधरा। इनमें बड़े और संगठित कारोबार प्रमुख थे। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 2020 के अंत तक तिमाही जीडीपी ने कोविड पूर्व का स्तर प्राप्त कर लिया लेकिन मार्च-जून 2021 में कोविड की दूसरी लहर ने तगड़ा झटका दिया। उसके बाद हालात पुन: तेजी से सुधरे।
बहरहाल, रोजगार और आय में सुधार की गति धीमी रही। खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में जबकि देश के कुल रोजगार में उसका योगदान 85 फीसदी है। इसलिए देश के शेयर बाजार ने जहां अप्रत्याशित तेजी हासिल की और यूनिकॉर्न की तादाद बढ़ी, वहीं काम करने लायक उम्र के श्रमिकों की रोजगार (ज्यादातर असंगठित) में हिस्सेदारी का अनुपात जनवरी 2020 की तुलना में जुलाई-सितंबर 2021 में 2.5 फीसदी कम रहा। 2017-18 की तुलना में तो यह 4 फीसदी कम था।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय तथा प्यू रिसर्च सेंटर जैसे विभिन्न संस्थानों ने अनुमान जताया है कि कोविड के झटके के कारण भारत में गरीबों की तादाद तेजी से बढ़ सकती है तथा 2020-21 में इनमें 7.5 करोड़ से 20 करोड़ का इजाफा हो सकता है। तमाम वजह हैं जिनके चलते इनकी तुलना करना मुश्किल है। लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि राष्ट्रीय गरीबी अनुपात 2017-18 में 23 फीसदी था तो अब वह 2020-21 में 30-35 फीसदी हो चुका होगा। ग्रामीण इलाकों में गरीबी अधिक तेजी से बढ़ी है। इनकी पुष्टि होने न होने के लिए परिवारों की खपत के व्यापक नमूनों के सर्वेक्षण के नतीजों की प्रतीक्षा करनी होगी। मात्रात्मक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि कोविड काल और लॉकडाउन के दौरान गरीबी तेजी से बढ़ी।
ऐसे में आय और खपत के इन बुनियादी पहलुओं के बीच कोविड ने देश में आर्थिक द्वैतवाद को तेजी से बढ़ाया। साथ ही इसने रोजगारशुदा बनाम बेरोजगार, संगठित बनाम असंगठित, शहरी बनाम ग्रामीण तथा अमीर बनाम गरीब के आर्थिक द्वैतवाद को और खराब किया। इसने शिक्षा को भी गहरा नुकसान पहुंचाया। यहां भी गरीब सबसे अधिक प्रभावित रहे क्योंकि वे स्कूल कॉलेजों द्वारा दी जा रही ऑनलाइन शिक्षा से अच्छी तरह नहीं जुड़ सके।
देश की अर्थव्यवस्था में पहले से ही द्वैत की दुविधा है और उस पर आर्थिक द्वैत में महत्त्वपूर्ण इजाफा हमारे आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र पर मध्यम और दीर्घकालिक अवधि में नकारात्मक असर डालेगा। इससे आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं को झटका लग सकता है। साथ ही रोजगार और गरीबी की स्थिति खराब रहेगी तथा सामाजिक और राजनीतिक मतभेद बढ़ सकते हैं और भूराजनीतिक हालात मुश्किल हो सकते हैं।
इन समस्याओं का कोई आसान हल नहीं है लेकिन आर्थिक और सामाजिक नीतियों से हालात सुधर सकते हैं। सुधार के उद्देेश्य से बनने वाली नीतियों में ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में रोजगार बढ़ाए जा सकें। यदि रोजगार दर बढ़ती है तो आय और खपत बढ़ेगी। इससे गरीबी में कमी आएगी और समग्र आर्थिक वृद्धि में भी सुधार होगा। व्यापक संदर्भों में बात करें तो रोजगार बढ़ाने के सबसे बेहतर तरीकों से हम सभी अवगत हैं। इसमें शामिल हैं: ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रमों में सुधार, बेहतर नीतियों की सहायता से देसी और विदेशी दोनों बाजारों के लिए श्रम आधारित विनिर्माण को बढ़ावा देना, स्कूलों में शिक्षा के नतीजों में सुधार और कौशल विकास पर जोर, रोजगार विस्तार से जुड़ी नियामकीय बाधाओं को कम करना, सार्वजनिक स्वास्थ्य और बुनियादी स्वास्थ्य सेवा में सुधार, राष्ट्रीय कर और जीडीपी अनुपात में सुधार करना ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क तथा अन्य अधोसंरचनाओं पर व्यय बढ़ाया जा सके। इसके अलावा कारोबारी माहौल सुधारना भी इसका अहम अंग है ताकि निजी निवेश में सुधार लाया जा सके।
(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
