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दोधारी तलवार: भारत की रक्षा खरीद और शक्ति संतुलन, स्वदेशी हथियारों से सशक्त हो रही सेना

रूस हो या चीन, हथियार खरीद के लिए विदेश पर निर्भरता ही अच्छी बात नहीं है। यही कारण है कि रक्षा मंत्रालय आत्मनिर्भरता पर इतना अधिक जोर दे रहा है।

Last Updated- August 18, 2024 | 9:31 PM IST
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सेना को हथियारबंद बनाना आसान काम कभी नहीं रहा। 1960 के दशक के आरंभ में भारतीय वायु सेना के सामने कठिन प्रश्न था कि उसे कौन सा लड़ाकू विमान चुनना चाहिए? भारतीय नौसेना के पास पहले ही ब्रिटिश युद्ध पोत थे, इसलिए वायु सेना ने सोवियत संघ से लाइसेंस लेकर मिग-21 बनाने का निर्णय लिया। हथियार खरीदार के रूप में हमारे आरंभिक दिनों में ही अंतरराष्ट्रीय हथियार बाजार की सबसे बुनियादी हकीकत खुलकर हमारे सामने आई – हथियार खरीद का चयन केवल तकनीक या लागत पर आधारित नहीं होता बल्कि इसे चुनते समय विदेश नीति और रणनीति का बहुत ध्यान रखा जाता है।

हाल ही में मध्यम दूरी के विविध भूमिका वाले लड़ाकू विमान के चयन में भी देश के सामने यही दुविधा आई। युद्ध में प्रभाव, कीमत और लाने-ले जाने की सुविधा के हिसाब से भारत शायद फ्रांस के राफेल की जगह स्वीडन के ग्रिपेन फाइटर का चयन करता। किंतु फ्रांस के राजनयिक और कूटनीतिक वजन, परमाणु शक्ति के उसके दर्जे तथा अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में उसकी तकनीकी बढ़त को देखते हुए दसॉ का राफेल विमान होड़ में जीत गया।

ऐसी ही वजहों से नौसेना अपने तथाकथित प्रोजेक्ट-75, इंडिया के तहत छह एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन (एआईपी) पनडुब्बियों की खरीद पर विचार ही कर रही है और एक दशक बाद भी किसी निर्णय पर पहुंचने में कामयाब नहीं हो सकती है। देश में पनडुब्बियों से जुड़े किसी भी व्यक्ति से बात कीजिए और वह जर्मन पोत निर्माता एचडीडब्ल्यू का नाम लेगा, जिसकी टाइप 209 पनडुब्बियां 1980 के दशक के मध्य से ही सेवा दे रही हैं।

जनवरी 2005 में जर्मनी के पोत निर्माता समूह टिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स (टीकेएमएस) ने एचडीडब्ल्यू का अधिग्रहण कर लिया था। टिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स भारत के मझगांव डॉक (एमडीएल) के साथ अहम साझेदारी में टाइप 214 एआईपी पनडुब्बियां बनाने जा रही है। परंतु स्वीडन की ही तरह जर्मनी भी हथियारों की बिक्री में राजनयिक या कूटनीतिक तौर पर अहम नहीं है, इसलिए प्रोजेक्ट 75-आई अनाथ की तरह पड़ा है।

हथियारों की बिक्री, तकनीकी नियंत्रण, सामरिक गठजोड़ और औद्योगिक साझेदारी के बीच का संबंध पश्चिमी लोकतांत्रिक गठबंधन ऑकस के उदय में भी सामने आया है। ऑकस (ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंगडम-अमेरिका) करीबी सहयोगी देशों के बीच बनी व्यवस्था है।

क्वाड के दो सहयोगियों भारत और जापान को इसमें जगह नहीं दी गई है। ऑकस की बुनियाद ऑस्ट्रेलिया को 12 परमाणु चालित हथियारबंद पनडुब्बियों के लिए तकनीकी साझेदारी मुहैया कराने के लिए भी रखी गई है। इससे लगभग तय माना जा रहा एक सौदा खत्म हो गया है और वह है फ्रांसीसी पोत निर्माता नेवल ग्रुप से पारंपरिक ऊर्जा से चलने वाली 12 हथियारबंद शॉर्ट फिन बाराकुडा पनडुब्बियों की खरीद।

ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी तकनीक मुहैया कराने के चौंकाने वाले फैसले का स्पष्ट रणनीतिक उद्देश्य था ताइवान के आसपास चीनी हमले की स्थिति में ऑस्ट्रेलिया का समर्थन हासिल करना। अनुमान था कि ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन चीन के खिलाफ जंग में अमेरिका का साथ देंगे। हालांकि ऑस्ट्रेलिया का समर्थन तभी तय हो गया जब 2018 में स्कॉट मॉरिसन ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री बने। उस समय अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया को पूरी तरह साथ लेने के लिए यह साहसी कदम उठाया।

अमेरिका चाहता था कि अमेरिकी नौसेना जरूरत पड़ने पर ऑस्ट्रेलियाई अड्डों और उसकी नौसैनिक सुविधाओं का पहले से अधिक लाभ उठाएं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि 2024 के समापन से पहले ऑकस के तीनों देश एक त्रिपक्षीय अलगोरिद्म बनाएंगे ताकि पी-8 सोनोबॉय से चीनी पनडुब्बियों के बारे में जानकारी जुटा सकें। यह ऑकस की पहली ठोस पिलर 2 तकनीक होगी, जिससे काम लिया जाएगा।

क्षमता में ये मामूली वृद्धि वैसी ही समन्वित और दूरदर्शी हैं, जैसी ऑकस समझौते में चाही गई हैं। इस बीच भारत शक्ति संतुलन का विकल्प चुनने के लिए जूझ रहा है। एक ओर उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो तथा पश्चिमी लोकतंत्रों के समर्थन वाला यूक्रेन है तो दूसरी ओर चीन तथा कुछ अन्य देशों (जो उतने लोकतंत्र समर्थक नहीं हैं) से समर्थन पाने वाला रूस है।

रूस के समर्थन में वे देश हैं, जिन्हें संघर्ष के इस घटनाक्रम में गुपचुप हथियार खरीद का अवसर दिख रहा है। भारत लड़ाकू विमानों, मध्यम भार ढोने वाले हेलीकॉप्टरों, बख्तरबंद लड़ाकू वाहन, एयर डिफेंस गन, फ्रिगेट, पनडुब्बी आदि के लिए रूसी और सोवियत दौर के हथियारों पर निर्भर है। लेकिन उसे रूस के अलावा दूसरे देशों से मिलने वाले उपकरणों की भी बड़ी सूची है, जिसमें भारी और हल्के परिवहन विमान तथा हेलीकॉप्टर, पनडुब्बी, एरोस्पेस इंजन और समुद्री गैस टरबाइन आदि शामिल हैं। भारत को विकल्प चुनते समय ध्यान रखना होगा कि रूस समर्थन देने से चीन के सैन्य और रक्षा उद्योग को भी फायदा होगा।

रूस हो या चीन, हथियार खरीद के लिए विदेश पर निर्भरता ही अच्छी बात नहीं है। यही कारण है कि रक्षा मंत्रालय आत्मनिर्भरता पर इतना अधिक जोर दे रहा है। उसकी प्रमुख स्वदेशीकरण संबंधी पहल ‘इनोवेशन फॉर डिफेंस एक्सीलेंस – डिफेंस इनोवेशन ऑर्गनाइजेशन (आईडेक्स-डीआईओ)’ को रक्षा अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा बदलाव लाने वाला बताया जा रहा है।

रक्षा मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग के अंतर्गत डीआईओ द्वारा स्थापित आईडेक्स सफलतापूर्वक आगे बढ़ा है और रक्षा क्षेत्र में स्टार्टअप को अच्छी गति प्रदान की है। इस समय वह 400 स्टार्टअप और सूक्ष्म, लघु तथा मझोले उपक्रमों के साथ काम कर रहा है। अब तक 2,000 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की 37 सामग्री को मंजूरी दी जा चुकी है।

सैन्य विकास रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डीआरडीओ का काम है जिसने शोध के लिए नौ क्षेत्र चिह्नित किए हैं। ये हैं प्लेटफॉर्म, हथियार प्रणाली, सामरिक प्रणालियां, सेंसर और संचार प्रणालियां। अंतरिक्ष, साइबर सुरक्षा, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और रोबॉटिक्स, मटीरियल और डिवाइस तथा सैनिक सहायता भी इनमें शामिल हैं।

इन पहलों की बदौलत कई आधुनिक उत्पाद सामने आए जिनमें 155 मिमी आर्टिलरी गन धनुष, तेजस लड़ाकू विमान, जमीन से हवा में मार करने वाली आकाश मिसाइल प्रणाली, अर्जुन टैंक, ध्रुव हल्के हेलीकॉप्टर आदि शामिल हैं। एक मानवरहित विमान का पूर्ण और सफल परीक्षण भी किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रौद्योगिकी विकास कोष भी उद्योगों को 10 करोड़ रुपये की राशि प्रदान करता है।

रक्षा मंत्रालय ने रक्षा हथियारों और उपकरणों की चार सकारात्मक स्वदेशीकरण सूचियां (पीआईएल) जारी की हैं, जिनमे से किसी भी उपकण या हथियार के आयात की इजाजत नहीं है। 101 उत्पादों वाली पहली पीआईएल अगस्त 2020 में जारी की गई थी। 108 उत्पादों की दूसरी सूची मई 2021 में और 101 उत्पादों की तीसरी सूची अप्रैल 2022 में जारी की गई थी। नवीनतम पीआईएल गत माह जारी की गई।

इतना ही नहीं 26,000 से अधिक रक्षा उत्पादों को रक्षा मंत्रालय के सृजन पोर्टल पर अपलोड किया गया है और निजी क्षेत्र को उन्हें देश में ही बनाने के लिए कहा गया है। इनमें से 7,032 उत्पादों का स्वदेशीकरण हो चुका है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार 2018-19 के बाद से रक्षा आयात 46 फीसदी से घटकर 36.7 फीसदी रह गया है। परंतु आत्मनिर्भरता की तलाश अभी जारी है।

First Published - August 18, 2024 | 9:31 PM IST

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