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Editorial: दबाव की अनदेखी नहीं

रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में 6.7 फीसदी और तीसरी तिमाही में 7.6 फीसदी की दर से बढ़ेगा।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- November 21, 2024 | 9:28 PM IST

हाल के सप्ताहों में अर्थशास्त्र के कुछ विद्वानों ने कहा है कि भारत में आर्थिक गतिशीलता में धीमापन आ रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के ताजा मासिक बुलेटिन में प्रकाशित आलेख ‘द स्टेट ऑफ इकॉनमी’ (अर्थव्यवस्था की स्थिति) को हालांकि रिजर्व बैंक के नजरिये का परिचायक नहीं माना जा सकता है लेकिन इसमें कहा गया है कि दूसरी तिमाही में नजर आ रही सुस्ती अब समाप्त हो गई लगती है।

हालांकि तस्वीर मिली जुली है लेकिन लग रहा है कि निजी खपत एक बार फिर घरेलू मांग को गति दे रही है। रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में 6.7 फीसदी और तीसरी तिमाही में 7.6 फीसदी की दर से बढ़ेगा। दूसरी तिमाही के आधिकारिक अनुमान अगले सप्ताह घोषित किए जाएंगे। बहरहाल, आलेख में एक उल्लेखनीय बात यह थी कि इसमें मुद्रास्फीति के हालात का विश्लेषण किया गया जिस पर विभिन्न मंचों पर बहस चल रही है।

यह नजरिया फिर से जोर पकड़ रहा है कि मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) को नीतिगत दरों का निर्धारण करते समय खाद्य कीमतों की अनदेखी करनी चाहिए। यह मांग भी हो रही है कि नीतिगत ब्याज दरों को कम किया जाए। ऐसा करने वालों में वरिष्ठ सरकारी अधिकारी भी शामिल हैं। इस संदर्भ में यह देखना दिलचस्प होगा कि मुद्रास्फीति के वास्तविक हालात क्या हैं और रिजर्व बैंक का रुख कैसा है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति की दर अक्टूबर में 6.2 प्रतिशत रही जबकि सितंबर में यह 5.5 फीसदी थी।

उल्लेखनीय है कि सीपीआई खाद्य और सीपीआई कोर में मासिक आधार पर 2.2 और 0.6 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। हाल के महीनों में जहां खाद्य मुद्रास्फीति हेडलाइन दरों से संचालित रही वहीं अक्टूबर में कोर दरों में भी इजाफा हुआ। अक्टूबर में कोर मुद्रास्फीति की दर 3.8 फीसदी थी। चिंता की वजह यह है कि रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों ने ऊंची खाद्य कीमतों के दूसरे दर्जे के प्रभावों को रेखांकित किया जाता है।

इस बात के भी संकेत हैं कि कुछ क्षेत्रों में जीवन यापन की लागत का दबाव वेतन भत्तों में भी नजर आने लगा है। हेडलाइन दरों के आने वाले महीनों में कम होने की उम्मीद है। इस पर करीबी नजर रखने की आवश्यकता है। यह बात भी रेखांकित करने योग्य है कि अगर हेडलाइन या खाद्य मुद्रास्फीति की दर आने वाले महीनों में कम होती है तो इससे कीमतों में इजाफे की दर धीमी होगी और उपभोक्ता तुलनात्मक रूप से ऊंची कीमत चुकाना जारी रखेंगे। हाल के वर्षों में कीमतों में टिकाऊ वृद्धि को देखते हुए, खासतौर पर खाद्य के क्षेत्र में मूल्य वृद्धि के कारण वेतन संबंधी वार्ता प्रभावित हो सकती है।

ऐसे में केंद्रीय बैंक के लिए यह बात महत्त्वपूर्ण है कि वह मुद्रास्फीति के नतीजों को यथासंभव लक्ष्य के साथ सुसंगत बनाए और मुद्रास्फीति संबंधी अनुमानों को संभालें। वृद्धि की बात करें तो बुलेटिन में सही कहा गया है कि उच्च मुद्रास्फीति खपत मांग को प्रभावित कर रही है और कॉर्पोरेट मुनाफे और पूंजीगत व्यय पर भी असर पड़ रहा है। ऐसे में टिकाऊ उच्च वृद्धि के लिए मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखना आवश्यक है।

खाद्य कीमतों के असर के शुरुआती संकेतों को देखते हुए दरों में समय से पहले कटौती अनुमानों को प्रभावित कर सकती है और मुद्रास्फीति का सामान्यीकरण हो सकता है। रिजर्व बैंक ने 2010 के दशक के आरंभ में खाद्य कीमतों में वृद्धि की अनदेखी करने की गलती की थी। इससे मुद्रास्फीति व्यापक हो गई। इसका दोहराव नहीं होना चाहिए।

नीतिगत दरों में कटौती की संभावना की बात करें तो चौथी तिमाही में रिजर्व बैंक के लिए आधार मुद्रास्फीति अनुमान 4.1 फीसदी है जो 4 फीसदी के लक्ष्य के करीब है। इससे अगले वर्ष दरों में कटौती की गुंजाइश बन सकती है। बहरहाल, अगर आर्थिक विकास की गति वास्तव में धीमी पड़ती है तो जैसी कि कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी उम्मीद जताई है, तो ब्याज दरों में कटौती की मांग और बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में एमपीसी को केंद्रित रहने की जरूरत होगी।

First Published : November 21, 2024 | 9:28 PM IST