हम इसकी अच्छाई या बुराई पर बहस करते रह सकते हैं लेकिन इस बात में संदेह नहीं है कि मोदी की भाजपा ने अब तक की सर्वाधिक हिंदूवादी व्यवस्था निर्मित की है। जैसा कि हमने पिछले सप्ताह इसी स्तंभ में लिखा भी था, इस व्यवस्था में अधिकांश अल्पसंख्यकों के लिए जगह नहीं है, खासतौर पर मुस्लिमों के लिए।
अगर भाजपा के मतदाता, जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के मतदाताओं की तुलना में लगभग दोगुने हैं, अगर इससे खुश हैं तो भला किसे शिकायत हो सकती है? एक लोकतांत्रिक देश में आंकड़ों की ही जीत होती है। यदि आपको यह पसंद नहीं है तो आंकड़ों को उलट दीजिए। एक धर्मनिरपेक्ष, मध्यमार्गी लड़ाई छेड़ने के लिए सबसे पहले सच को स्वीकार करना होगा।
यह बात हमें सन 1955 की लोकसभा में हुई एक बहस की ओर ले जाती है। जवाहरलाल नेहरू को सदन में कई चुनौतीपूर्ण अवसरों में से एक का सामना करना पड़ा था और ऐसा खुद उनकी ही सरकार की वजह से हुआ था।
तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद उनकी ओर झुके और उनके कानों में कुछ कहा। दरअसल वह नेहरू को उर्दू के एक नये शायर शहाब जाफरी का एक शेर सुना रहे थे जो कुछ यूं था: तू इधर- उधर की न बात कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा/मुझे रहजनों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।
आगे चलकर ये पंक्तियां हिंदी प्रदेश की राजनीतिक बहस में सबसे ज्यादा इस्तेमाल की गईं। अगर आप मोदी-शाह की भाजपा की मौजूदा व्यवस्था से बहुत अधिक हताश हैं तो आपको यह सवाल कांग्रेस से तथा अन्य तमाम ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों से पूछना चाहिए। अखिलेश यादव की सपा, लालू के राजद और मायावती की बसपा तक सभी से यह सवाल होना चाहिए कि उनका धर्मनिरपेक्ष कारवां क्यों लुटा और उनकी अमूल्य निधि यानी हिंदू वोट उनसे क्यों छिने? हम भाजपा पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि उसने आपके मत चुराये लेकिन उस समय क्या ये दल सो रहे थे?
मोदी की भाजपा को बहुमत कहां से मिला? जाहिर है हिंदी प्रदेश से जो देश के उत्तर, पूर्व और दक्षिण पूर्व तक विस्तारित है। यानी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक। पश्चिम में महाराष्ट्र और गुजरात को शामिल कर लें तो इतने में ही भाजपा की 250 से अधिक लोकसभा सीटें पार हो जाती हैं।
भाजपा ने इन राज्यों में 1989 के बाद निर्णायक रूप से हिंदू मत हासिल कर लिए हैं। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, सन 1989 के बाद हिंदी हृदय प्रदेश में सवाल यही रहा है कि जिसे धर्म एकजुट करता है क्या उसे जाति बांट सकती है या जिसे जाति बांटती है क्या धर्म उसे जोड़ सकता है। 2009 तक के दो दशक में जाति जीत रही थी। 2014 से धर्म विजयी हो रहा है। आइये, तथ्यों की पड़ताल करते हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार में हिंदू वोट उन लोगों में बंट गए जो दलितों, यादवों और अन्य ओबीसी वर्गों पर दावा करते थे जबकि सवर्णों के मत भाजपा और शक्तिहीन दलों के साथ रह गए। मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में राज्य प्रायोजित नहीं लेकिन राज्य के संरक्षण में चल रही अवैध वसूली, हत्या, अपहरण आदि से वे इतने पीड़ित और शक्तिहीन महसूस कर रहे थे कि उन्होंने संरक्षण के लिए मायावती को वोट दिया। भाजपा तब तक तैयार नहीं थी। उसे दिया जाने वाला वोट बरबाद हो जाता।
महाराष्ट्र और गुजरात दो अन्य निर्णायक राज्य थे जहां कुल 74 लोकसभा सीट हैं। वहां भी दशकों तक ऐसा ही चला। एक राज्य में मराठा और दलित बनाम ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का मामला था तो दूसरे में खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) का दबदबा था। इनमें से हर राज्य में सन 1989 से 2014 के बीच ज्यादातर समय इन्हीं गठजोड़ का शासन रहा।
नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले गुजरात में इसे बदला। 2002 में अपनी पहली चुनावी जीत के बाद के दो दशक में खाम फॉर्मूला दफन ही हो गया। महाराष्ट्र में विपक्ष को शायद उम्मीद की किरण दिखी हो कि शिव सेना हिंदू मतों को वापस खींच लाएगी लेकिन फिलहाल तो ठाकरे परिवार को पहले शिवसेना को दोबारा हासिल करना है।
दक्षिण में भाजपा केवल कर्नाटक में जड़ें जमा पाई है। कर्नाटक कांग्रेस का इतना बड़ा गढ़ था कि इंदिरा गांधी ने चिकमगलूर और सोनिया गांधी ने बेल्लारी को लोकसभा के लिए सुरक्षित माना।
वहां भी मध्य वर्ग के सहारे जीत का फॉर्मूला था लेकिन पहले देवेगौड़ा ने शक्तिशाली वोक्कालिगा जाति का समूह तैयार किया और उसके बाद राजीव गांधी द्वारा पार्टी के सबसे अहम लिंगायत नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल के अपमान ने नाराज लिंगायत समुदाय को भाजपा की ओर मोड़ दिया। तब से वे वहीं हैं। सच कहा जाए तो हम इस चर्चा में इतना आगे आ गये लेकिन हमने अब तक मुस्लिम मतों का जिक्र नहीं किया। इनमें से प्रत्येक राज्य में भाजपा के खिलाफ जीतने वाले जातीय गठजोड़ में मुस्लिम शामिल हैं। इन दलों ने मुस्लिमों को कुछ मामूली प्रलोभन देने के अलावा उनके लिए कुछ नहीं किया। वे निश्चिंत थे कि मुस्लिम भाजपा के डर से उन्हें वोट देंगे। समय बीतने के साथ ‘धर्मनिरपेक्ष मत’ मुस्लिमों के लिए कोड हो गया। यह वैसा ही हो गया जैसे कि अपनी सुरक्षा के लिए किसी को धन देना।
भाजपा के वाजपेयी-आडवाणी युग से मोदी और शाह के युग तक के बदलाव ने धर्मनिपेक्षता और मुसलमानों के प्रति सद्भाव से पेश आने को भी समाप्त कर दिया। भाजपा के संस्थापक इफ्तार का आयोजन करते थे लेकिन मोदी ने फोटो खिंचाने के लिए भी मुस्लिमों की टोपी पहनने से इनकार कर दिया।
हिंदू मतदाताओं ने इसे स्पष्ट संकेत माना कि भाजपा उनकी पार्टी है। नयी भाजपा को सार्वजनिक बहस में मुस्लिमों के प्रति रुखाई से पेश आने में कोई दिक्कत नहीं है। वह मुस्लिम तुष्टीकरण और हिंदुओं को पीड़ित किए जाने की बातें सहजता से करती है।
उधर धर्मनिरपेक्ष दल अभी भी पुराने तौरतरीके ही आजमा रहे थे। लेकिन इस बीच मोदी की भाजपा ने तेजी से हिंदू बहुसंख्यकों के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर ली।
विपक्ष को यह बात समझ में आ गई। राहुल गांधी ने मंदिर जाना शुरू किया और उनका गोत्र तथा जनेऊ सार्वजनिक हुआ। अखिलेश, लालू/तेजस्वी, मायावती सभी ने सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान मुस्लिम कार्यकर्ताओं को दी जा रही प्रताड़ना के खिलाफ सतर्कतापूर्ण चुप्पी बरती। लेकिन इससे उनका रक्षात्मक रुख और घबराहट ही उजागर हुई। इससे भाजपा और हिंदू मतदाता खुश ही हुए।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने नेताओं के चुनावी संशय की वजह से ही घुटती जा रही है। इन नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता को 30-35 प्रतिशत वोट बैंक को अपने साथ रखने का उपाय बना दिया है। यह वोट बैंक कुछ निचली जातियों और मुस्लिम मतदाताओं से मिलकर बना। इसका अर्थ यह हुआ कि देश की धर्मनिरपेक्षता के संरक्षण का बोझ 14 फीसदी मुसलमानों पर डाल दिया गया। यह ज्यादा दिन चलने वाला नहीं था।
अगर कोई इसमें बदलाव लाना चाहता है तो पहले उसे हिंदुओं को अपने पाले में लाना होगा। जब तक आपके पास हिंदू मतदाताओं का बड़ा हिस्सा नहीं होगा तब तक आप निराश ही रहेंगे। भाजपा को आपकी इन चीख पुकार और नाराजगी से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘भारतीय गणराज्य का अंत हो चुका है’ या ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ का खात्मा हो चुका है।
जैसा कि आंबेडकर ने भारतीय संविधान सभा की बहस में ‘धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी’ शब्द को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने से इनकार करते हुए कहा था कि हम (निर्माता पीढ़ी) यह तय करने वाले कौन होते हैं कि भविष्य में हमारा गणराज्य किस सामाजिक व्यवस्था को अपनाएगा? बहुसंख्यक भारतीयों ने उसे अपने विचार के मुताबिक ढालने के लिए मतदान किया है।
जब तक आपके पास हिंदुओं के लिए कोई अधिक आकर्षक पेशकश नहीं होगी तब तक इस परिदृश्य को बदल पाना संभव नहीं दिखता। ऐसे में गुस्से में ट्वीट करते रहना और रीट्वीट और लाइक्स गिनते रहना ही आसान है। जीत हासिल करने का वह भी एक तरीका है, चाहे वह जैसी भी हो।
