लेख

लोकतंत्र बनाम पाकिस्तान

इमरान खान से जुड़ा हालिया घटनाक्रम बताता है कि पाकिस्तान जैसे बड़े आकार के देश में लोकतंत्र से जुड़ी आशंकाएं कितनी दुर्भाग्यपूर्ण साबित हो सकती हैं।

Published by
शेखर गुप्ता
Last Updated- May 14, 2023 | 7:18 PM IST

आप इमरान खान के साथ हैं या उनके खिलाफ? इस सवाल को दो तरीकों से पूछा जा सकता है। पहला, अगर आज पाकिस्तान में निष्पक्ष चुनाव कराए जाएं तो इमरान खान जीतेंगे या नहीं? दूसरा, अगर वह जीतते हैं तो यह पाकिस्तान के लिए अच्छा होगा या बहुत बुरा? पहले सवाल का जवाब है कि हां, इमरान बिल्कुल जीतेंगे। उनके साथ सड़कों पर जनता उतरी हुई है और ऐसा पहले किसी पाकिस्तानी नेता के साथ नहीं देखा गया। यहां तक कि नवाज शरीफ के शिखर दिनों में उनके साथ भी नहीं। उनके समर्थक भी बहुत जोशीले और मुखर थे लेकिन वे सेना से कभी सीधे नहीं टकराते थे।

इमरान की लोकप्रियता अद्भुत स्तर पर है। यही वजह है कि उनके प्रतिद्वंद्वी, शत्रुओं, सेना के शीर्ष अधिकारियों समेत सभी को लगता है कि वह आसानी से चुनाव जीत जाएंगे। यही वजह है कि वे अभी चुनाव नहीं कराने जा रहे हैं। अक्टूबर में चुनाव होने हैं और उस समय भी तभी चुनाव होंगे जब वे इमरान को संवैधानिक तौर पर अयोग्य घोषित करवा सकें और चुनाव लड़ने से रोक सकें। दूसरे प्रश्न का उत्तर आसान है। यकीनन अगर इमरान भारी मतों से जीतते हैं तो यह पाकिस्तान के लिए बहुत बड़ी त्रासदी होगी।

इसकी वजह यह है कि इमरान अति लोकलुभावनवाद, आक्रोश से भरी प्रतिशोध की राजनीति, इस्लामिक झुकाव, पश्चिम विरोध, भारत के प्रति अतिवादी दृष्टिकोण और आधुनिक आर्थिकी को लेकर जो रवैया अपनाते हैं, वह पाकिस्तान को और बड़े संकट में डाल देंगे।

यहां एक बार फिर दो सवाल खड़े होते हैं। पहला, क्या पाकिस्तान में लोकतंत्र को नकारे बिना उनको रोका जा सकता है? दूसरा अगर चुनाव का अर्थ अनिवार्य रूप से इमरान खान का बहुमत के साथ सत्ता में आना है तो क्या पाकिस्तान इसे बरदाश्त करने की स्थिति में है? या फिर अगर आप विदेश में रहने वाले कोई शुभेच्छु या देश में रहने वाले कोई समझदार व्यक्ति हैं तो क्या चुनाव के बाद बहुमत पाने वाले इमरान खान पर पाकिस्तान नियंत्रण रख सकेगा?

अगर अरब उभार की विफलता के बाद भी जो लोग नहीं मानते कि बिना तैयारी के लोकतंत्र की स्थापना खतरनाक हो सकती है, उन्हें पाकिस्तान पर नजर डालनी चाहिए। इस सहस्राब्दी में मनुष्यता ने जो मूल्य हासिल किए हैं उनमें लोकतंत्र सबसे महानतम मूल्यों में से एक है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बहुत बड़ी कामयाबी है। परंतु यह विचारों, संस्थाओं के निर्वात में काम नहीं कर सकता।

एक सफल लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि उसकी कमियों के साथ गहरे धैर्य का परिचय दिया जाए। इसके साथ ही एक संवैधानिक लोकतंत्र के लिए यह भी आवश्यक है कि बहुसंख्यक ताकतों को सीमा में रखा जाए। नवाज शरीफ को तीन बार सत्ता गंवानी पड़ी क्योंकि वह इस बोध की सराहना न कर पाए। इमरान खान ऐसा करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे।

Also Read: साप्ताहिक मंथन: आईना देखना जरूरी

यही कारण है कि ऐसी स्थिति में जब पाकिस्तान के संस्थान कमजोर हैं या उनका क्षय हो रहा है, उदाहरण के लिए उसकी न्यायपालिका, तब उस स्थिति में चुनाव जीतने वाले इमरान खान एक भारी झटका साबित हो सकते हैं, जिसकी देश को जरूरत न होगी। लोकतंत्र में चुनाव कसौटी होते हैं लेकिन पाकिस्तान की तथाकथित लोकतांत्रिक और उदार शक्तियों को फिलहाल चुनाव नहीं चाहिए। इस मामले में वे और सेना एक साथ हैं। हमारी बहस का मुख्य मुद्दा यही है। फिलहाल यह बात सबको स्पष्ट है कि सत्ताधारी गठबंधन न तो विश्वसनीय है और न ही उसमें यह शक्ति है कि टूटी अर्थव्यवस्था और नीतियों के साथ 23 करोड़ आबादी को संभाल सके।

अभी हाल तक पाकिस्तान के पास ऐसे गहन संकट के हालात के लिए एक पैराशूट होता था। मुझे कहते हुए खेद हो रहा है कि वह पैराशूट सेना थी। यह बहुत अच्छा विचार नहीं है, खासकर हम जैसे लोगों के लिए जो स्वभावत: लोकतंत्र का समर्थन करते हैं। परंतु सभी देश, खासकर लोकतांत्रिक देशों को ऐसे संस्थानों की आवश्यकता होती है जो किसी भी तरह के बहुसंख्यकवाद के खिलाफ खड़े हो सकें। इसमें संसदीय बहुमत भी शामिल है।

पाकिस्तान में न्यायपालिका, चुनाव आयोग, तथाकथित रूप से भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाला नैशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो आदि सभी वहां के लोकतंत्र या राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर पाने में नाकाम रहे हैं। अब तक सेना ही वह संस्थान थी जो स्थिरता की गारंटी देती थी। फिलहाल तो वह अपने अतीत की छाया भी नहीं प्रतीत होती। इस समय देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसकी सेना सबसे कमजोर है।

आप पूछ सकते हैं कि हमें इसकी परवाह क्यों होनी चाहिए? दूसरों को दिक्कत में देखने का अपना ही मजा है। पाकिस्तान को भुगतने दें। बहरहाल इस सप्ताह हम बात कर रहे हैं कि पाकिस्तान जैसे बड़े मुल्क में लोकतंत्र के खतरे में होने के क्या नतीजे हो सकते हैं।

अरब उभार कैसे नाकाम हुआ? अरब मुल्कों में एक के बाद एक जब तहरीर चौक का जोश उतर गया तो वहां चुनाव हुए। जिस बात को लोकतांत्रिक उभार समझा गया था वह दशकों के सैन्य, लोकप्रिय लेकिन लगभग धर्मनिरपेक्ष तानाशाहों के खिलाफ एक किस्म की बगावत थी। जाहिर है प्रतिक्रिया की प्रकृति इस्लामिक थी। इन प्रदर्शनों को धर्म ही गति दे रहा था।

Also Read: समृद्ध राज्य और चुनावी रेवड़ियों का चलन

ऐसे में जब एक के बाद एक देशों पर इस्लामिकों का कब्जा हुआ तो किसी को अचरज नहीं हुआ। कुछ हद तक ट्यूनीशिया को छोड़ दिया जाए तो यह मुस्लिम ब्रदरहुड का ही एक रूप था। इसकी शुरुआत मिस्र से हुई जहां सेना की वापसी हुई और उसने यथास्थिति बहाल कर दी। ऐसा करते हुए उसे जनसमर्थन भी मिला। ऐसा इसलिए हुआ कि मिस्र के लोगों ने वैसे इस्लामीकरण की उम्मीद नहीं की थी जैसा निर्वाचित सरकार ने शुरू किया था।
ट्यूनीशिया को लंबे समय तक अरब क्रांति की सफलता की कहानी माना गया, वह भी उसी राह पर गया। उसके अति लोकप्रिय आम आदमी नेता को जिसे पूर्वी देशों में सच्चा लोकतांत्रिक माना गया था, अब वह एक तानाशाह में बदल चुका है।

अरब दुनिया में लोकतंत्रीकरण का अर्थ है इस्लामीकरण। अब तक सैन्य तानाशाहों ने धर्म और धार्मिक नेताओं का दमन नहीं किया लेकिन फिर भी उन्हें नियंत्रण में रखा। चुनावों की वैधता के साथ इस्लामिक नेता अब उनके प्रभाव को बढ़ा रहे हैं। इससे तुर्की के रेचेप तैय्यप अर्दोआन जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड के नए समर्थकों को प्रोत्साहन मिला जिन्होंने अपने धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक लोकतांत्रिक देश को तेजी से इस्लामीकरण तथा निर्वाचित तानाशाही की ओर धकेल दिया। जाहिर है पाकिस्तानी सेना नहीं चाहेगी कि इमरान खान में मोहम्मद मुर्सी जैसा निर्वाचित नेता उभरे।

लोकतंत्र की स्थापना के लिए दशकों के धैर्य और जमीनी काम, जनांदोलन, विचारों और विचारधाराओं के विकास, संस्थानों की समझ और उनके निर्माण की आवश्यकता होती है। इसके लिए निर्वाचित बहुमत की सीमाओं को स्वीकार करने की परिपक्वता भी आवश्यक है।

उदाहरण के लिए भारत में इसमें से काफी काम स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुआ। बाद के दशकों में देश के किसी न किसी हिस्से में जनांदोलन चलते ही रहे। आपातकाल और उससे लड़ाई जैसे बड़े इतिहास बदल देने वाले घटनाक्रम भी हुए। अरब देशों में से किसी में ऐसी कोई तैयारी नहीं थी। यही कारण है कि लोकतंत्र स्थापित होने के बाद उनके पास उसे संभालने वाले नेता नहीं थे।

Also Read: जवाबदेही का बढ़ता दायरा

पाकिस्तान की स्थिति इस मोर्चे पर उतनी बुरी नहीं है। वहां लोकप्रिय आंदोलन हुए हैं, कई नेता भी सामने आ चुके हैं लेकिन अभी भी उसे काफी दूरी तय करनी है। जनता के स्तर पर उसे अभी भी लोकतंत्र के लिए जरूरी धैर्य विकसित करना है। यह धैर्य विकसित करना है कि अगर मुझे सरकार पसंद नहीं है तो मुझे अगले चुनाव तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस धैर्य के विकास के लिए मजबूत और विश्वसनीय संस्थानों की आवश्यकता है।

मुझे नहीं पता कि लुटियन्स की मूल टीम में किसने नॉर्थ ब्लॉक के प्रवेश द्वारा पर यह लिखवाया था: ‘स्वाधीनता जनता तक नहीं उतरेगी, जनता को खुद को उठाकर स्वाधीनता तक पहुंचाना होगा। यह एक ऐसा वरदान है जिससे लाभान्वित होने के पहले उसे हासिल करना जरूरी है।’ इसे देखने के दशकों बाद तक मेरी एक कल्पना रही कि मैं इस रेत की परत चढ़ा दूं। ऐसे अवसर रहे हैं जब मुझे लगा कि भारत छोड़कर जा रहे ब्रिटिश चाहे जितने भी रूखे रहे हों लेकिन वे हमें कुछ बता रहे हैं। पाकिस्तान के समझदार लोगों और संस्थानों के लिए भी इसे पढ़ना आज उपयोगी साबित हो सकता है।

First Published : May 14, 2023 | 7:18 PM IST