इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
कर्नाटक में 224 सीटों वाली विधानसभा के लिए मतदान हो चुका है और आज उनके नतीजे आ रहे हैं। मतदान के पहले कुछ सप्ताहों के दौरान सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और दो मुख्य विपक्षी दलों कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) के बीच गहन चुनावी लड़ाई देखने को मिली। इन दलों के चुनावी घोषणापत्र और प्रचार अभियान से यही संकेत निकलता है कि कर्नाटक विधानसभा के चुनावों के साथ ही लगभग वर्ष भर लंबी चुनावी गतिविधियों की शुरुआत हो गई है। कुछ ही समय में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना में भी चुनाव होने हैं। वहीं 2024 में देश में आम चुनाव भी होने हैं। यहां जाहिर सवाल यह है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव से आगामी चुनावी लड़ाइयों को लेकर क्या संदेश निकलता है?
इस सवाल का जवाब तलाश करने की कवायद भाजपा तथा कांग्रेस द्वारा अपने घोषणापत्र में किए गए चुनावी वादों की पड़ताल से होनी चाहिए। ये घोषणापत्र कर्नाटक चुनाव के पहले घोषित किए गए थे। इन घोषणापत्रों की सबसे चौंकाने वाली बात थी कल्याणकारी उपायों पर दिया जाने वाला जोर।
भाजपा ने जहां खाद्य सुरक्षा, समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास और आय समर्थन योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है, वहीं कांग्रेस के घोषणापत्र में पांच कल्याणकारी योजनाओं की गारंटी दी गई है।
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भाजपा ने अगर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को तीन गैस सिलिंडरों की आपूर्ति करने, आवास योजना और रियायती खाने का वादा किया है तो वहीं कांग्रेस की योजना अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण बढ़ाने के साथ-साथ मुस्लिमों का आरक्षण बहाल करने की है। इसी तरह भाजपा ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए बीमा कवरेज बढ़ाने तथा कांग्रेस ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति बेहतर बनाने का वादा किया है।
दोनों दलों के घोषणापत्र में उल्लिखित कल्याण योजनाओं की सूची खासी लंबी है। परंतु ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसी रियायती योजनाएं और रोजगार में आरक्षण जैसी घोषणाएं आम हो गई हैं। यह तब है जब कर्नाटक देश के अपेक्षाकृत समृद्ध राज्यों में आता है। इसका अध्ययन किया जाना चाहिए।
कर्नाटक की आर्थिक समीक्षा के अनुसार 2022-23 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय 3 लाख रुपये से अधिक थी। डॉलर के संदर्भ में तथा क्रय शक्ति समता के आधार पर यह 13,000 डॉलर के करीब है। कर्नाटक की बेरोजगारी दर घटकर 2.7 फीसदी रह गई जो शेष भारत से काफी कम है।
57 फीसदी के साथ उसकी श्रम शक्ति भागीदारी राष्ट्रीय औसत से अधिक है और अर्थव्यवस्था का आकार भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 8 फीसदी से अधिक है। आर्थिक नजरिये से ये आंकड़े कर्नाटक को देश के शीर्ष राज्यों में शामिल करते हैं।
कर्नाटक में कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां गरीबी है लेकिन कुल मिलाकर वह एक समृद्ध राज्य है और इसकी झलक चुनाव घोषणापत्रों में नजर आनी चाहिए थी। उन्हें बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से अलग होना चाहिए था। परंतु वहां भी मामला मुफ्त उपहारों तक सिमट गया है।
कर्नाटक की आर्थिक समृद्धि चुनावी वादों की प्रकृति को प्रभावित कर पाने में नाकाम क्यों रही? भाजपा, जिसका केंद्रीय नेतृत्व कुछ महीने पहले तक नि:शुल्क उपहारों की राजनीति से नाराज था उसे कर्नाटक में घरेलू गैस सिलिंडरों या रियायती भोजन का आसरा क्यों लेना पड़ा?
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कर्नाटक में राजनीतिक दल यह क्यों नहीं समझ सके कि अपेक्षाकृत संपन्न राज्य की आर्थिक आकांक्षाएं नि:शुल्क बुनियादी वस्तुओं की कम और बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा ढांचे के साथ अवसर तैयार करने की अधिक होनी चाहिए? राज्य के राजनीतिक दलों ने बीते कुछ वर्षों की राजनीतिक प्रगति का लाभ क्यों नहीं लिया और चुनाव में जीवन स्तर सुधारने और वृद्धि के अवसरों का एजेंडा क्यों नहीं आगे बढ़ाया?
ये सवाल परेशान करने वाले हैं। मुफ्त की चीजों के वादों की राजनीति अब राष्ट्रीय स्तर पर फैल गई है। भले ही किसी राज्य की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। केंद्र सरकार ने दिसंबर 2022 में निर्णय लिया था कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत देश के 81 करोड़ लोगों को एक साल तक नि:शुल्क खाद्यान्न दिया जाएगा। तब भी यह स्पष्ट था कि यह कदम राजनीति से प्रेरित है।
यह सही है कि उस कदम के साथ ही मार्च 2020 से आरंभ प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण बंद कर दिया गया था और इसलिए केंद्र को सब्सिडी में कुछ बचत हुई थी। परंतु यह भी स्पष्ट था कि दिसंबर 2023 तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण जारी रखने से सत्ताधारी भाजपा को राजनीतिक लाभ मिल रहा था क्योंकि 2023-24 में नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने थे और उसके बाद आम चुनाव की बारी थी। ऐसे में संभव है कि मुफ्त खाद्यान्न वितरण कुछ और समय के लिए बढ़ा दिया जाए।
अपेक्षाकृत अमीर राज्य होने के बाद भी भाजपा और कांग्रेस दोनों ने कर्नाटक के मतदाताओं के लिए कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के आगामी चुनावों में भी ऐसी घोषणाएं खूब देखने को मिलेंगी। इसका यह अर्थ भी है कि इन कल्याण योजनाओं का वित्तीय बोझ भी बढ़ेगा और राज्यों की राजकोषीय स्थिति प्रभावित होगी।
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कहने का आशय यह नहीं है कि आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए कल्याण योजनाओं की व्यवस्था होनी ही नहीं चाहिए। परंतु कर्नाटक चुनाव ने दिखाया है कि राजनीतिक दलों में मुफ्त खाद्यान्न तथा गैस सिलिंडर की पेशकश की प्रवृत्ति बढ़ी है, भले ही लोगों को इसकी जरूरत हो या नहीं।
ऐसे में राजकोष पर इसका बुरा असर पड़ रहा है लेकिन राज्य या केंद्र के स्तर पर इसका विरोध नहीं किया जा रहा है। कर्नाटक इन योजनाओं को निभा सकता है क्योंकि उसके पास संसाधन हैं और फंडिंग की क्षमता है। परंतु यह अन्य कम समृद्ध राज्यों के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
भाजपा ने समान नागरिक संहिता और राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी लागू करने का वादा किया जो राजनीतिक दृष्टि से विवादास्पद है। ठीक उसी तरह कांग्रेस का बजरंग दल और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे संगठनों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का वादा भी विवादित है और ये दोनों मुद्दे चुनाव प्रचार की दृष्टि से बड़े विवाद का विषय हैं।
समाज पर ऐसे अभियानों का नकारात्मक प्रभाव होना लाजिमी है। परंतु इस बात में संदेह नहीं है कि इस तरह के कल्याणकारी उपायों को अगर कर्नाटक जैसे आर्थिक समृद्धि वाले राज्यों में भी इस प्रकार बांटा गया तो इसका वित्तीय स्थिति पर नकारात्मक असर होगा। इससे भी बुरी बात यह है कि कई राज्य जहां अगले कुछ महीनों में चुनाव होने हैं, वे भी यही गलती दोहरा सकते हैं।