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दलितों की नई पार्टी का संदेश: शिक्षा और विदेश अवसरों से नई राजनीतिक दिशा तय करने की तैयारी

दलितों की क्विट इंडिया पार्टी को शिक्षा, प्रवासी भारतीयों के सहयोग और वैश्विक अवसरों से उभरती नई राजनीतिक व सामाजिक दिशा का प्रतीक माना जा रहा है

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आदिति फडणीस   
Last Updated- September 26, 2025 | 9:46 PM IST

दलितों को और ज्यादा चाहिए। यहां तक कि अगर उन्हें भारत में नहीं मिल पाता है तो वे इसे पाने के लिए दूसरे देश तक जा सकते हैं। यह संदेश दलितों की क्विट इंडिया पार्टी (डीक्यूआईपी) का है, जिसकी स्थापना बुद्धिजीवी और दलित चिंतक चंद्र भान प्रसाद ने की है। हालांकि, अब तक राजनीतिक दल के तौर पर इसका पंजीकरण नहीं हुआ है, लेकिन यह समूह दलित चिंतन की दिशा तय करने में एक ताकत बनता दिख रहा है।

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का दलितों के लिए मूलमंत्र शिक्षा था। सही मायने में वह दलितों को यही सलाह देते थे कि ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ और अपने आप पर भरोसा रखो। आंबेडकर भारत के पहले अछूत थे, जिन्होंने पीएचडी की उपाधि हासिल की और विदेश में पढ़ाई करने गए। इसका पूरा श्रेय बड़ौदा के महाराजा द्वारा दी गई छात्रवृत्ति को जाता है, जिससे उन्हें कानून की डिग्री लेने के अलावा कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (एलएसई) से पीएचडी पूरा करने का मौका मिला। 

प्रसाद को शुरुआती प्रेरणा किसानों के आंदोलन से मिली है और उन्हें प्रवासी भारतीयों (एनआरआई) से भी मदद मिली है। उनका कहना है कि वे दिन अब लद गए जब दलित के बच्चे भारत के किसी भी सामान्य विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर संतुष्ट हो जाते थे। अब उन्हें महत्त्वाकांक्षी और  आत्मविश्वासी होना होगा। दलितों को अपने बच्चों को पढ़ाई करने के लिए विदेश भेजना होगा और वह भी किसी आम विश्वविद्यालय से नहीं बल्कि हॉर्वर्ड, कोलंबिया, लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई करानी होगी। बच्चों को भी फर्राटेदार अंग्रेजी आनी चाहिए और विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (स्टेम) जैसे कौशल विकसित करने के साथ ही विदेश के विश्वविद्यालयों में संकाय सदस्य बनने का लक्ष्य रखना चाहिए। उनकी महत्त्वाकांक्षाएं असीम होनी चाहिए।

प्रसाद के इस भरोसे का सैद्धांतिक आधार यह है कि दलितों के पास अभिजात वर्ग का अभाव है और इसके नतीजतन, उनके लिए कोई भी सामाजिक नियामक अथवा एजेंसी नहीं है। कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में वह क्षमता थी। मगर कांशीराम ने आंदोलन को आंबेडकर की बजाय पेरियार की ओर मोड़ दिया और उन्होंने दलितों की दुर्दशा पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि वह स्वयं गरीबी और अभाव में जी रहे थे, ताकि अपने अनुयायियों के साथ तालमेल बिठा सकें। भारत के कई हिस्सों में उनका बामसेफ अंध प्रशंसकों के व्यक्ति केंद्रित संगठन में तब्दील हो गया। नतीजतन, जब कोई संगठन छोड़ता है तो वह बिखर जाता। अंतिम झटका बहुजन से सर्वजन की ओर बदलाव था, जिसके परिणामस्वरूप चंद्रशेखर आजाद और उनकी भीम आर्मी जैसे आक्रामक नेताओं का उदय हुआ।

प्रसाद यह भी मानते हैं कि सिर्फ विदेश से शैक्षणिक डिग्री ले लेने भर से काम नहीं चलेगा और यह कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि भेदभाव हर जगह है। वर्ष 2016 में इक्वलिटी लैब्स द्वारा अमेरिका में दक्षिण एशियाई मूल के 1,200 व्यक्तियों पर किए गए एक सर्वेक्षण (2018 में जारी) के मुताबिक  26 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्होंने अपनी जाति के कारण शारीरिक हमले का अनुभव किया है, जबकि 59 फीसदी ने बताया कि उनपर जाति से जुड़ी टीका-टिप्पणियां की गईं। हालांकि, यह अब तक का एकमात्र ऐसा सर्वेक्षण है।

सर्वेक्षण में शामिल आधे से अधिक लोगों ने बताया कि वे खुद को दलित बताने से डरते हैं। कुछ तो अपनी जाति तक छिपा लेते हैं हालांकि कुछ लोग इसे गर्व से बताते हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी छात्र कनिष्क एलुपुला ने 2019 में अमेरिका में जाति पर आधारित एक परियोजना के दौरान पुलित्जर सेंटर के शोधकर्ताओं को बताया था, ‘मैं जब हार्वर्ड में रहता हूं तो मैं एक अछूत के तौर पर पहचाना जाना चाहता हूं, क्योंकि मैं चाहता हूं कि लोग यह जानें।’ अमेरिका की अदालतों में भी जातिगत भेदभाव के मामले दर्ज किए गए हैं। खासकर प्रौद्योगिकी उद्योग का गढ़ माने जाने वाले कैलिफोर्निया में भी।

भारत में घरेलू स्तर पर जातिगत समस्याओं को दूर करने के लिए विभिन्न साधन पेश किए गए हैं। महाराष्ट्र एकमात्र ऐसा राज्य है जो विदेश के विश्वविद्यालय में दाखिला पाने वाले दलित विद्यार्थियों को ट्यूशन फी, भत्ता और रहने-खाने का खर्च देने के लिए छात्रवृत्ति देता है। अफर्मेटिव एक्शन के लिए भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) द्वारा साल 2010 में एक राष्ट्रीय सकारात्मक कार्रवाई परिषद की स्थापना की गई थी, जिसके अध्यक्ष दिवंगत जेजे ईरानी थे। सालाना रिपोर्ट के आधार पर कहें तो इस मोर्चे पर प्रगति भी अनियमित है। अब भी किसी बड़ी कंपनी के शीर्ष प्रबंधन स्तर पर कोई दलित नहीं है, लेकिन दलितों की मैट्रीमनी वेबसाइटें ऐसे लोगों से विवाह की मांग या चाहत से भरी पड़ी हैं, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) में कार्यरत हों।  दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (डीआईसीसीआई) के नेतृत्व में दलितों के नेतृत्व वाले उद्यम फल-फूल रहे हैं और कई राज्य सरकारों ने दलित ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने के लिए खरीद नीतियों में बदलाव किया है। 

मगर प्रवासी दलित भारतीयों का एकजुट होना देश में राजनीतिक और सामाजिक रूप से कितना प्रभावशाली हो सकता है, यह कह पाना मुश्किल है। आखिरकार, प्रवासी भारतीयों की गतिविधियों ने कई मुद्दों को आगे बढ़ाया है। दूसरी ओर, दलितों के खिलाफ हिंसा लगातार बढ़ रही है और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि सजा की दर अब भी करीब 25 फीसदी है, जो काफी कम है। दलितों के लिहाज से बात करें तो शिक्षा और पूंजीवाद ही आगे बढ़ने का एक रास्ता बना हुआ है। अवज्ञा दूसरा रास्ता है।

First Published : September 26, 2025 | 9:46 PM IST