यह बात अब साफ हो गई है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के विद्यार्थियों के लिए 27 फीसदी सीटों का आरक्षित किया जाना संविधान की मूल भावना के साथ किसी तरह का खिलवाड़ नहीं है।
इन संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के 93वें संशोधन के खिलाफ अपना फैसला देगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए फैसले में 29 मार्च 2007 को दिए उस अंतरिम आदेश के खत्म होने की बात कही है, जिसमें ओबीसी छात्रों को 27 फीसदी आरक्षण दिए जाने संबंधी कानून पर रोक लगाई गई थी।
इसका मतलब यह हुआ कि अगले शैक्षणिक सत्र से सामान्य श्रेणी के छात्र ऐसे संस्थानों की कुल सीट संख्या की महज 50.5 फीसदी सीटों के लिए प्रतियोगी परीक्षा देने के पात्र होंगे। अब तक सामान्य श्रेणी के छात्र 77.5 फीसदी सीटों के लिए प्रतियोगी परीक्षा देते आए थे। यानी ऐसे छात्रों के लिए सीट संख्या में एक तिहाई से भी ज्यादा की गिरावट दर्ज होगी।
ऐसा लगता है कि सरकार का इरादा इस बात को लेकर साफ है कि वह इस नई व्यवस्था को अगले शैक्षणिक सत्र से पूरी तरह लागू कर देगी और इस बारे में मोइली समिति की सिफारिशों को नजरअंदाज किया जाएगा, जिसने अगले 3 वर्षों में इसे क्रमिक रूप से लागू किए जाने की बात कही थी। इस फैसले की जद में देश के 20 केंद्रीय विश्वविद्यालय, सभी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), सभी भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और सरकार द्वारा पोषित कॉलेज आएंगे।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच का कहना है कि कोटे की समीक्षा एक खास समयावधि पर होनी चाहिए। पर पिछले तजुर्बे बताते हैं कि इस तरह की पुनर्रीक्षा की उम्मीद करना बेमानी है और ऐसा कभी नहीं होगा।
इस बात पर बहस भी इस वक्त बेमानी है कि सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी की जो परिभाषा मानी है, वह सही है या नहीं। कई लोगों का तर्क यह हो सकता है कि मंडल आयोग द्वारा दी गई ओबीसी की परिभाषा से इतर चीजें की गई हैं। पर यह भी उतना ही सही है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट आज से करीब 3 दशक पहले आई थी और वी. पी. सिंह के कार्यकाल में इसे लागू किया गया था, जिसका भी लंबा अर्सा गुजर चुका है।
आज करीब हर राजनीतिक वर्ग इसको स्वीकार भी कर चुका है। असली बहस अब इस बात पर होनी है कि किस जाति और उपजाति का नाम ओबीसी की लिस्ट में शुमार किया जाता है, जो गुर्जरों के मामले में पहले से ही सुलगा हुआ सवाल है। गुर्जरों को लगता है कि उनकी स्पर्ध्दी जाति ‘मीणा’ को ओबीसी का दर्जा दिया जा चुका है और यह जाति इस मामले में गुर्जरों से आगे निकल गई है।
इस बात की भी कुछ कोशिशें होंगी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नई कोटा प्रणाली से क्रीमी लेयर को बाहर किए जाने की व्यवस्था को किसी तरह से हटा लिया जाए।