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भारत के प्रति निवेशकों का ठंडा रुख हो सकता है विपरीत सकारात्मक संकेत

भारत के प्रति निवेशकों का उत्साह ठंडा पड़ा है लेकिन उनमें अभिरुचि की कमी एक विपरीत सकारात्मक संकेत हो सकती है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश

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आकाश प्रकाश   
Last Updated- November 05, 2025 | 11:23 PM IST

पिछले दिनों मुझे वैश्विक निवेशकों के साथ कुछ समय बिताने का अवसर मिला। इनमें से कुछ तो पूंजी के सबसे चतुर दीर्घकालिक आवंटकों में शुमार हैं और उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है। वे इस उद्योग को नेतृत्व भी प्रदान करते रहे हैं। इतने वर्षों से लगातार यह सब करते हुए मुझे भी यह समझ आने लगा है कि कैसे समय के साथ प्राथमिकताएं और थीम बदल सकती हैं।

मेरे लिए इनमें से प्रमुख हासिल क्या रहा? इस यात्रा के दौरान मुझे भारत को लेकर जितनी उदासीनता देखने को मिली उतनी पहले कभी नहीं दिखी थी। ये हालात 20 वर्ष पहले की याद दिला रहे थे। मेरी मुलाकात सबसे हुई लेकिन इसके पीछे उनकी विनम्रता और पुराने रिश्ते ही बड़ी वजह थे। एक भी बैठक ऐसी नहीं हुई जहां लोगों ने भारत के बाजारों में निवेश का इरादा जताया हो। वे भारत के बारे में जानकारी पाकर खुश थे और यह तर्क समझ सकते थे कि भारत सापेक्ष प्रदर्शन के मामले में अब क्यों अपने निम्नतम बिंदु पर पहुंच चुका है, यानी यहां से यह ऊपर ही जाएगा। परंतु किसी भी प्रकार की कार्रवाई को लेकर उनका कोई झुकाव नहीं था। यह काफी गंभीर बात है।

भारत को लेकर वही पुरानी चिंताएं हैं। मूल्यांकन बहुत अधिक है। आर्थिक और आय के क्षेत्र में कोई गति नहीं है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में हमारी कोई तरक्की नहीं है, न ही हम इसके लाभार्थी हैं और हम लोकलुभावनवाद में उलझे हुए हैं। कई वर्षों में पहली बार मुझे सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 7 फीसदी के स्तर पर टिकाऊ बने रहने को लेकर सवालों का सामना करना पड़ा। पहले इसे स्वाभाविक माना जाता था। पहली बार मुझे ऐसे सवालों का सामना करना पड़ा कि क्यों भारत निम्न मध्य आय वाले देश के रूप में अटका नहीं रह सकता?

एआई के आगमन और रोजगार पर उसके असर के साथ भारत की आबादी अब उतनी बड़ी शक्ति नहीं नजर आती। कई लोगों ने मुझसे पूछा कि भारत एआई के क्षेत्र में सक्रिय क्यों नहीं है? मुझे बताया गया कि चीन शोध एवं विकास पर भारत की तुलना में 25 गुना अधिक व्यय करता है। वहां शोध और विकास व्यय जीडीपी के 3.5 फीसदी के बराबर है जबकि भारत में यह व्यय 0.7 फीसदी है। हालांकि चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भी भारत से पांच गुना है। जहां तक उभरते उद्योगों की बात है, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें भारत प्रमुख भागीदार हो या जिसकी तकनीक पर नियंत्रण रखता हो।

वाहन और औषधि क्षेत्र के उद्योगों में भी भारत पीछे छूट रहा है। क्या शेयर पर रिटर्न और मार्जिन पर भारत का जोर कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ चुका है। क्या बाजार पूंजीकरण को लेकर जुनून लंबी अवधि के नवाचार को क्षति पहुंचा रहा है? क्या हमारा बाजार अल्पकालिक सोच में ज्यादा उलझा हुआ है?

सबसे प्रमुख संदेश यही था कि दुनिया एक और चीन को सहन नहीं कर सकती है। चीन वैश्विक विनिर्माण के क्षेत्र में दबदबे से पीछे नहीं हट रहा है। वह अपनी हिस्सेदारी बनाए रखने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। भारत जैसे आकार के देश के लिए यह गुंजाइश नहीं है कि वह विनिर्माण और निर्यात के क्षेत्र में ऐसा कुछ करे जैसा कि चीन ने तीन दशकों में किया है। शेष विश्व इसे स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि इस समय वैश्वीकरण का भारी राजनीतिक प्रतिरोध हो रहा है। आईटी सेवाओं के क्षेत्र में क्या एआई सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को नुकसान पहुंचाएगा? अगर हमें दफ्तरों में काम करने वाले कम लोगों की जरूरत होगी तो इन भूमिकाओं को विदेश स्थानांतरित करने की क्या संभावना है? जो नौकरियां बची रहेंगी उन्हें देश में ही रखना जरूरी है ताकि सामाजिक शांति बनी रहे।

ये सारी बातें वृद्धि में स्थिरता और उसके अनुमान से जुड़ी हुई हैं। जब हर कोई इस बात से सहमत होता कि भारत में दशकों तक तेज वृद्धि हासिल करने की क्षमता है तो वे ऊंचे मूल्यांकन और वृद्धि की कीमत चुकाने को तैयार होते। लेकिन अगर वृद्धि ही संदेह के दायरे में आ जाए तो मौजूदा मूल्यांकन टिकाऊ नहीं रह जाता है। विदेशी निवेशकों पर लगने वाले पूंजीगत लाभ कर को लेकर भी वास्तविक चिंताएं थीं। उन्हें किसी अन्य विदेशी बाजार में ऐसा कर नहीं चुकाना होता है और इस बात ने बीते कुछ वर्षों में रिटर्न पर असर डाला है। यही वजह है कि भारत का आकर्षण कम हुआ है।

शुल्क दरों और भू-राजनीति को लेकर ज्यादातर लोग चिंतित नहीं थे। हर किसी को यही लगता है कि अमेरिका के लिए चीन ही इकलौता वास्तविक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है। चीन को काबू में रखने के लिहाज से भारत महत्त्वपूर्ण है और इससे यह सुनिश्चित होगा कि भारत और अमेरिका के बीच के रिश्ते लंबे समय तक ठंडे न रहें। हालांकि इस घटनाक्रम ने भारत की आर्थिक प्रभावशीलता की कमी को उजागर कर दिया। भारत भले ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो, लेकिन क्या वह किसी आपूर्ति श्रृंखला में वास्तव में अपरिहार्य भूमिका निभाता है?

अधिकांश निवेश आवंटक अभी भी नकदी के मोर्चे पर कठिनाई का सामना कर रहे हैं। हालात 12 महीने पहले की तुलना में बेहतर हैं, लेकिन अमेरिका का प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम बाजार अभी भी पूरी तरह से खुला नहीं है। संभावित सूचीबद्धता की पाइपलाइन बहुत बड़ी है, और सभी यूनिकॉर्न कंपनियों का मुद्रीकरण संभव नहीं है। किसी भी नए निवेश की अपेक्षित तरलता पर बारीकी से नजर रखी जा रही है, और नकदी की कमी का जोखिम उठाने के लिए भुगतान प्राप्त करना एक सामान्य विषय बन गया है। भारत डिस्ट्रिब्यूशन टू पेड-इन कैपिटल यानी डीपीआई (यानी निवेशकों द्वारा लगाई गई पूंजी की तुलना में उनको लौटाई गई नकदी) के दृष्टिकोण से अभी भी एक कमजोर कड़ी बना हुआ है। भारत में प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल इस मोर्चे पर काफी निराशाजनक रहे हैं, जबकि यहां आईपीओ बाजार दुनिया के सबसे मजबूत बाजारों में से एक है। इसके अलावा, नए फंड्स के आकार को लेकर भी काफी बहस हुई।

हर किसी के दिमाग में एआई ही प्रमुख है। कुछ लोग इतने भाग्यशाली हैं कि उनके पास इस विषय में बहुत अधिक निवेश है, और वे बबल (कीमतों में भारी अस्थायी उछाल) को लेकर चिंतित हैं कि कब बाहर निकलना चाहिए? दूसरे लोग, जिनका इस क्षेत्र में पर्याप्त निवेश नहीं है, सोच रहे हैं कि क्या अब निवेश करना उचित होगा। एआई दुनिया को कैसे बदलेगा? बबल के दौर में निवेश कैसे किया जाए? क्या 1999/2000 का डॉट-कॉम बबल एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है?

उभरते बाजारों में लंबे समय के बाद नए सिरे से रुचि देखी गई। कई निवेशक डॉलर में अपना जोखिम कम करने को लेकर उत्सुक थे। उभरते बाजारों के शेयर परिसंपत्ति वर्ग ने 15 वर्षों के कमजोर प्रदर्शन के बाद आखिरकार इस वर्ष बेहतर प्रदर्शन किया। यह एक नए रुझान की शुरुआत हो सकती है। अगर धन अमेरिका से उभरते बाजारों में आता है तो इस क्षेत्र में बहुत आवक होगी।

मैंने भारत में रुचि की कमी को एक विरोधाभासी सकारात्मक संकेत के रूप में देखा। इसके साथ ही विदेशी स्वामित्व का रिकॉर्ड निम्न स्तर, सभी फंडों द्वारा संरचनात्मक रूप से भारत में कम निवेश और गत पांच साल में विदेशी निवेश प्रवाह का शून्य स्तर भी इस संकेत को मजबूत करते हैं। भारत ने गत एक वर्ष में उभरते बाजारों और एशिया की तुलना में 30 फीसदी कमजोर प्रदर्शन किया है। यह पिछले 30 साल में एक रिकॉर्ड है।

उम्मीद है कि वित्त वर्ष 27 में आय की गति बढ़ेगी खासतौर पर वित्तीय क्षेत्र के नेतृत्व में ऐसा होगा और नॉमिनल जीडीपी करीब 400 आधार अंक तक बढ़ेगा। वैश्विक निवेश प्रवाह किसी न किसी चरण में फिर से शुरू होगा। चाहे वह उभरते बाजारों की वापसी के साथ हो या एआई कारोबार के फीके पड़ने पर। मूल्यांकन सस्ते तो नहीं हैं, लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 15 फीसदी कम हैं। इस यात्रा के दौरान जो संशय मैंने महसूस किया, उसके बावजूद मुझे लगता है कि भारत के लिए अगले वित्तीय वर्ष की स्थिति सकारात्मक दिख रही है। बशर्ते घरेलू निवेश प्रवाह स्थिर रहें और हम आईपीओ बाजार को क्षति न पहुंचाएं।


(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)

First Published : November 5, 2025 | 10:52 PM IST