संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के दशक भर लंबे शासन और मौजूदा सरकार के बहुमत वाले दस वर्ष के शासन से एक बड़ा सबक निकला है: समयबद्ध और सुविचारित आर्थिक सुधार दोनों ही परिस्थितियों में चुनौतीपूर्ण हैं। यह सही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले दस वर्षों में मनमोहन सिंह के दशक की तुलना में कहीं अधिक सुधार हुए हैं लेकिन सच यह है कि बहुमत के शासन के बावजूद कुछ अहम सुधारों को वैधानिक बनाना और उनका क्रियान्वयन करना मुश्किल रहा।
जिन सुधारों को अंजाम दिया जा चुका है उनमें जन धन, आधार और मोबाइल आधारित सब्सिडी सुधार (जेएएम), वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) तथा ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) शामिल हैं लेकिन इन्हें या तो कानूनी रद्दोबदल के जरिये पूरा किया गया या फिर ये अभी तक अधूरे हैं।
कृषि, श्रमिक, भूमि और अन्य सुधारों के बारे में तो जितना कम कहा जाए उतना बेहतर। यहां तक कि एयर इंडिया को टाटा के हाथों सौंपे जाने के बाद निजीकरण और परिसंपत्तियों की बिक्री की बुनियादी पहल भी रुक गई। कुछ बैंकों के निजीकरण की योजनाएं ठंडे बस्ते में चली गईं और केवल सड़क क्षेत्र में परिसंपत्तियों की बिक्री की गई।
अगर मान लें कि मई 2024 में एक बार फिर मोदी के नेतृत्व में बहुमत की सरकार आएगी तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सुधारों की गति में तेजी आएगी। 2024 के बाद बड़ी राजनीतिक चुनौतियां हालात को जटिल बना देंगी क्योंकि परिसीमन होगा और महिला आरक्षण का भी समय आ जाएगा।
इन दोनों को केवल विधान बनाकर अंजाम नहीं दिया जा सकता है। इसके लिए महीनों तक गहन राजनीतिक बातचीत की आवश्यकता होगी। यह चर्चा ऐसे दलों से करनी होगी जो मोदी सरकार के साथ बहुत अच्छे ताल्लुकात नहीं रखते। इसमें राजनीतिक लेनदेन होगा जो मोदी सरकार अब तक नहीं कर सकी है।
ऐसा नहीं है कि सरकार किसी नतीजे पर पहुंचना नहीं चाहती, बल्कि मोदी की लोकप्रियता विपक्ष के लिए किसी उचित समझौते पर पहुंचना मुश्किल बनाती है। उन्हें डर है कि राष्ट्र हित के लिए उठाया गया कोई कदम भी मोदी के लिए राजनीतिक लाभ वाला साबित होगा। जीएसटी के क्रियान्वयन के समय यह स्पष्ट हो गया और राम मंदिर के समय तो और भी अधिक। राम मंदिर के समय लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल सैद्धांतिक रूप से सहमत थे लेकिन उन्होंने 22 जनवरी के समारोह का बहिष्कार किया क्योंकि उन्हें डर था कि इससे मोदी को राजनीतिक लाभ मिलेगा।
कुछ राज्यों में विपक्ष अव्यावहारिक होने के बावजूद नि:शुल्क उपहार बांट रहा है क्योंकि उसे डर है कि इसके बिना वह मोदी को नहीं हरा पाएगा। जेएएम आधारित सुधारों का एक अप्रत्याशित परिणाम यह हुआ कि सब्सिडी अब लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे पहुंचती है। सब्सिडी सुधार के बाद मतदाताओं को भी यकीन है कि राजनेता अपने चुनावी वादे अवश्य निभाएंगे। कुल मिलाकर चूंकि बोझ करदाताओं पर पड़ना है इसलिए राजनेता कोई भी वादा करने से नहीं हिचकते।
मई 2024 के आम चुनाव में जीत पक्की मानते हुए मोदी सरकार की पहली प्राथमिकता है विपक्ष के साथ विश्वास कायम करना। उसे उन्हें आश्वस्त करना होगा कि वह हर जगह उनका सहयोग लेगी। उसे वरिष्ठ मंत्रियों को यह दायित्व सौंपना चाहिए कि वे बहुदलीय मसलों पर निरंतर बातचीत करते रहें। अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग को राज्य सभा में भी बहुमत मिल जाता है और संवैधानिक संशोधनों के लिए विपक्ष की कोई जरूरत नहीं रह जाती तो भी यही तरीका अपनाना चाहिए।
रोजगार इस समय प्राथमिक आर्थिक चुनौती हैं। मोदी सरकार और कुछ राज्य सरकारें युवाओं की बेरोजगारी की समस्या हल करने के लिए अधिक से अधिक लोगों को चुनाव के पहले सरकारी नौकरी देने की कोशिश कर रही हैं। यह कोई हल नहीं है। सरकारी भर्तियों की गुंजाइश है लेकिन राज्यों के संसाधनों का इस्तेमाल चुनावी रेवड़ियों में होने के कारण इसकी संभावना पर असर पड़ा है।
रोजगार की समस्या की प्रकृति ढांचागत है। बीते 20 सालों में सकल घरेलू उत्पाद में मजबूत वृद्धि के बावजूद रोजगार को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं। उनमें से एक है कारक बाजार सुधारों का खराब क्रम। सन 1991 में पूंजी बाजार का उदारीकरण हुआ लेकिन भूमि और श्रम बाजारों का उदारीकरण नहीं किया गया।
नतीजतन, कॉर्पोरेट क्षेत्र ने श्रम को पूंजी से प्रतिस्थापित कर दिया। चीन में तेज वृद्धि इसलिए संभव हुई क्योंकि उसने विदेशी कंपनियों को सस्ते श्रम का लाभ दिया। उन्हें हाल तक कोई विधिक संरक्षण हासिल नहीं था।
बीते 15-20 वर्षों में तकनीक ने सेवा क्षेत्र के कुछ हिस्सों में भी श्रम को प्रतिस्थापित करना शुरू कर दिया है। बैंकिंग से लेकर दूरसंचार और सॉफ्टवेयर तक ऐसा देखने को मिला है। विचार कीजिए कि हममें से कितने लोगों को अब किसी काम के लिए बैंक जाना होता है।
श्रम कानूनों में सन 1990 के दशक में सुधार किया जाना चाहिए था जो हमने नहीं किया। अभी भी हम ऐसा करने से भयभीत हैं जबकि ऐसा करने के लाभ मिल सकते हैं। उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना से जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है लेकिन इससे रोजगार में इजाफा नहीं होगा।
अधिक रोजगार तैयार करने के लिए अप्रेंटिस योजना पर जोर देने की जरूरत है। यह केंद्र और राज्य दोनों के स्तर पर करना होगा। अप्रेंटिसशिप से सस्ता श्रम और कौशल के अवसर मिलते हैं लेकिन श्रम संगठन इसे नियमित रोजगार कम करने के षड्यंत्र के रूप में भी देख सकते हैं।
इन संगठनों को राजनीतिक बढ़त हासिल है। चूंकि अधिकांश नौकरियां अनुबंध वाली हैं तो माना जा सकता है कि अधिकांश अतिरिक्त रोजगार नई कंपनियों और छोटे तथा सूक्ष्म उपक्रमों से आएंगे। इन कंपनियों को ऋण उपलब्ध कराना होगा तथा अस्थायी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया करानी होगी। इसके लिए अहम सरकारी सब्सिडी की जरूरत हो सकती है। यह सब बिना सभी दलों की सहमति के नहीं हो सकेगा।
अधिकांश रोजगार शहरों में तैयार होंगे। यही वजह है कि केंद्र-राज्य संबंधों में नगर निकायों और स्थानीय निकायों को अधिक शक्ति देने की बात शामिल करनी होगी। राज्य शिकायत करते हैं कि केंद्र के पास अधिक राजकोषीय शक्ति है। यही बात उन पर भी लागू होती है क्योंकि उनके शहरी केंद्र संसाधनों के लिए उन पर बहुत अधिक निर्भर हैं। यदि अधिकांश नए रोजगार शहरी केंद्रों में होंगे तो ऐसा बिना राज्यों के अतिरिक्त संसाधन के नहीं हो सकता।
आदर्श राजनीतिक स्थिति वह है जहां राजकोषीय संसाधन केंद्र से राज्यों को जाते हैं और उसके बाद शहरी और ग्रामीण समुदायों को। लब्बोलुआब यह है कि एक बहुदलीय राजनीतिक समझौते की आवश्यकता है और इसके लिए अगली केंद्र सरकार को सुधारों पर जोर देना होगा। अगर मई 2024 के बाद यह बदलाव नहीं होता है तो भारत के आर्थिक नतीजे कमजोर बने रहेंगे। खासकर रोजगार के मोर्चे पर हम पीछे रहेंगे।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)