जीवाश्म ईंधन पर कर में कमी आने के बीच नया राजस्व उत्पन्न करने के क्षेत्र में नाकामी भारत की आर्थिक संभावनाओं के लिए
नुकसानदेह साबित हो सकती है। बता रहे हैं लवीश भंडारी
अब जबकि जलवायु परिवर्तन की जटिलताएं सामने आने लगी हैं और भारत कम कार्बन उत्सर्जन तथा अपेक्षाकृत हरित अर्थव्यवस्था की दिशा में बदलाव की तैयारी कर रहा है तो उसे कई चुनौतियों को हल करना होगा। ऐसा ही एक क्षेत्र है सरकारी राजस्व पर पड़ने वाला असर।
राज्य और केंद्र सरकारों के राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा जो एक अनुमान के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का करीब तीन फीसदी है, जीवाश्म ईंधन से हासिल होता है। जीवाश्म ईंधन से हासिल होने वाला कर और गैर कर राजस्व देश के समस्त रक्षा बजट से अधिक है और वह केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य पर किए जाने वाले व्यय से भी अधिक है।
परंतु हमारे सामने केवल यही नहीं बल्कि बदलाव की जटिलता की भी चुनौती होगी। जब हम कम जीवाश्म ईंधन की खपत करेंगे तो फंड के कई स्रोत सूख जाएंगे। जीवाश्म ईंधन के कारोबार में शामिल सरकारी कंपनियों के राजस्व में भी कमी आएगी और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सब्सिडी चाहने वाले माध्यमों को और अधिक मदद की आवश्यकता होगी। अलग-अलग राज्यों की राजस्व पर निर्भरता भी अलग-अलग है।
कोयला खनन के कारण कुछ राज्य मसलन ओडिशा आदि का रॉयल्टी राजस्व अधिक है जबकि अन्य राज्य मसलन महाराष्ट्र आदि कर राजस्व पर निर्भर हैं।
ऐसे में समस्या केवल यह नहीं है कि गैर जीवाश्म ईंधन से अतिरिक्त राजस्व कैसे जुटाया जाएगा बल्कि इन राजस्व को सभी अंशधारकों की संतुष्टि के हिसाब से साझा करना भी एक जटिल काम है।
उदाहरण के लिए कर तैयार करने में राज्य की स्वायत्तता के मुद्दे को लेते हैं। पेट्रोलियम उत्पादों को वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के दायरे में नहीं लाने की एक वजह यह भी थी कि मौजूदा मूल्यवर्धित कर यानी वैट की व्यवस्था राज्य सरकारों को स्वतंत्रतापूर्वक कर निर्धारण की सुविधा देती है।
जीएसटी (GST) के तमाम लाभों के बावजूद वह राज्यों की स्वायत्तता के स्तर पर उपयुक्त नहीं। वैट से परे कोई भी कदम उन राज्यों को चिंतित कर सकता है जो राजस्व के मामले में स्वायत्तता बनाए रखना चाहते हैं।
इलेक्ट्रिक वाहनों को भारी भरकम सब्सिडी देने से जुड़ी एक चुनौती भी सामने है। यह सही है कि नीतियां पेट्रोलियम ईंधन से चलने वाले वाहनों को कम करने और बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ाने की समर्थक हैं।
बहरहाल चुनौती यह है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को भारी सब्सिडी की जरूरत होती है जबकि जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाले वाहन सरकारों को राजस्व दिलाते हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों की सब्सिडी में कमी से यह बदलाव धीमा हो जाएगा लेकिन उच्च सब्सिडी सरकार के राजस्व पर बोझ बनती है। दिक्कत यह है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने और जीवाश्म ईंधन वाले वाहनों में कमी दोनों के सरकार में अलग-अलग हिमायती हैं।
इस बदलाव से होने वाली हानि को कम करने से जुड़े मुद्दों का एक और वर्ग है। उदाहरण के लिए कोयला खनन से जुड़े रोजगार अगले कुछ दशकों में समाप्त हो जाएंगे क्योंकि कोयले पर निर्भरता कम हो रही है। इस दौरान दो तरह के रोजगार खत्म होंगे। पहली श्रेणी वह है जो सीधे कोयला खनन में लगी है और दूसरी वह जो आने वाले सालों में खनन में तकनीकी नवाचार बढ़ने से प्रभावित होंगे।
परंतु वास्तविक चुनौती उन लोगों के लिए है जो कोयला खनन के कारण अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पाते हैं। इनमें वे सेवा प्रदाता शामिल हैं जो खानों और खनन करने वालों को सेवाएं देते हैं। इनकी तादाद अधिक है और कोयला खनन क्षेत्र में अधिक विकल्प नहीं हैं। एक अन्य उदाहरण ताप बिजली के क्षेत्र में फंसी संपत्तियों से जुड़ा है या फिर ऐसी पूंजी से जो भारत के ताप बिजली से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने पर बेकार हो जाएगी।
दूसरे शब्दों में, हम व्यापक तौर पर इस बदलाव के लिए राजस्व की आवश्यकताओं को व्यापक रूप से कुछ श्रेणियों में बांट सकते हैं: (अ) गिरते राजस्व की भरपाई करना (ब) बदलाव की प्रक्रिया को तेज करना (स) बदलाव के साथ होने वाले आर्थिक नुकसान को दुरुस्त करना और (द) उचित आवंटन सिद्धांतों की पहचान करना जो राज्यों को कमजोर न करें। अलग-अलग देखा जाए तो इनमें से प्रत्येक एक कड़ी चुनौती है लेकिन एक साथ रखने पर यह असंभव नजर आता है।
ऐसे हालात में तार्किक तरीका यही नजर आता है कि सही उपाय हासिल होने तक मामले को टाला जाए। सन 2070 तक का नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य अभी कुछ दशक दूर है। नई तकनीकों का तेजी से उभरना जारी है और भारत की अर्थव्यवस्था गहन ढांचागत बदलाव से गुजर रही है। ऐसे में इंतजार करना ही सही कदम होगा। लेकिन भारत ऐसा नहीं कर सकता। बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है जिसे रोका नहीं जा सकता। नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता और उत्पादन तेजी से बढ़ रहे हैं और इलेक्ट्रिक वाहन भी।
इस बीच आगे चलकर बदलाव की लागत भी तेजी से बढ़ेगी, इसका बड़ा बोझ सरकार को उठाना होगा। ऐसे में राजस्व के मोर्चे पर कुछ नहीं करने से ऐसे हालात बन जाएंगे जहां सरकारी राजस्व की वृद्धि में अहम कमी आएगी। इसका असर आने वाले एक-दो दशकों में राजकोषीय स्थिति पर अहम प्रभाव पड़ेगा। यह बात वृद्धि को प्रभावित करेगी।
इस समस्या के कुछ हल हैं लेकिन प्रत्येक के अपने अलग गुण हैं और भारत को यह चिह्नित करना होगा कि उसके लिए क्या बेहतर है। उदाहरण के लिए प्रत्यक्ष कर दरों को बढ़ाने से काम नहीं बनने वाला क्योंकि उसके क्रियान्वयन में दिक्कत आती रही है। कार्बन कर से बदलाव में तेजी आएगी और शायद राजस्व की तात्कालिक चुनौती में कमी आएगी लेकिन इससे दीर्घकालिक राजकोषीय दिक्कतों में कमी नहीं आएगी।
जीएसटी को युक्तिसंगत बनाना कारगर हो सकता है लेकिन इसके लिए केंद्र और राज्यों के बीच अहम बातचीत की जरूरत होगी। नए तरह के कर मसलन दूरी या सड़क के इस्तेमाल पर लगने वाला कर आदि का क्रियान्वयन आसान हो सकता है लेकिन शायद इससे राज्य की स्वायत्तता का लक्ष्य पूरा न हो।
ऐसे समय में अनुत्पादक व्यय अथवा कल्याण पर होने वाला खर्च कम करना मुश्किल हो सकता है जबकि ट्रिकल डाउन प्रभाव धीरे-धीरे काम कर रहा है। कुछ उपाय मसलन कार्बन कर आदि के लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता हो सकती है। ऐसा करना संभव है लेकिन इसमें समय लगेगा और बहुत अधिक समन्वय की जरूरत होगी।
इस समस्या की एक अहम विशेषता यह है कि अधिकांश अंशधारक सरकार का हिस्सा हैं। खासतौर पर केंद्र और राज्य सरकारों तथा सरकारी उपक्रमों के। यहां सरकार के भीतर उठाए गए कदम पहले ही रास्ता दिखा चुके हैं। जीवाश्म ईंधन वाली सरकारी कंपनियों को नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में प्रवेश करने की इजाजत देकर सरकार ने कुछ हद तक उन कंपनियों के हितों को बदलाव के साथ सुसंगत बना दिया है।
बदलाव तथा राजस्व उत्पादन से जुड़े कदमों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल अधिक कठिन कवायद हो सकता है लेकिन यह अहम है। कई तरह की लागत चाहे व्यय प्रोफाइल बनाना हो, फंसी हुई संपत्तियां हों या रोजगार प्रभाव, इन सबका वहन राज्य राज्यों को करना होगा। वे इसके लिए तैयार नहीं हैं।
भारत को ऐसी औपचारिक व्यवस्था बनानी होगी जहां राज्य स्तरीय बदलाव आवश्यकताओं को राजस्व के बरअक्स आंका जा सके। इसके अलावा उसे उभरते अंतराल को चिह्नित करते हुए विभिन्न विकल्पों को तलाशना होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन संभावित राजस्व स्रोतों की पहचान की आवश्यकता होगी जहां राज्य सरकारों को कुछ स्वायत्तता हासिल हो।
(लेखक सीएसईपी रिसर्च के प्रमुख हैं)