जलवायु परिवर्तन हमें एक नए प्रकार के ध्रुवीकरण की तरफ ले जा रहा है। यह विषय विचारधारा के टकराव का रूप ले चुका है और वामपंथी विचार वाले जलवायु आपातकाल घोषित करने की मांग कर रहे हैं, परंतु दक्षिणपंथी सोच रखने वाले ऐसी किसी पहल के विरोध में तर्क दे रहे हैं।
अमेरिका में डेमाक्रेटिक पार्टी में एक ‘प्रगतिशील समूह’ जलवायु परिवर्तन को आपात स्थिति घोषित करने की मांग कर रहा है, जबकि रिपब्लिकन (जो प्रायः कारोबारी हितों के पक्षधर समझे जाते हैं) इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। रिपब्लिकन पार्टी से राष्ट्रपति के उम्मीदवारों में एक विवेक रामास्वामी ने तो जलवायु परिवर्तन के विषय पर दुनिया में पैदा घबराहट को ‘हास्यास्पद’ करार दिया है।
जापान, बांग्लादेश, दक्षिण कोरिया, स्पेन, इटली और न्यूजीलैंड सहित 24 देशों या उनकी संसदों ने जलवायु परिवर्तन को जलवायु आपातकाल घोषित कर रखा है। दूसरे देशों पर भी ऐसी पहल करने के लिए दबाव बढ़ता जा रहा है।
वर्तमान स्थिति मुझे एक कहानी की याद दिलाती है, जो मैंने अपने स्कूल में सुनी थी। कहानी कुछ यूं थी कि एक बार एक राजा ने अपने मंत्री के कहा कि वह ऐसी तरकीब खोज कर लाए कि अपने राज्य में कहीं भी कदम रखने पर उसके (राजा के) पैर में धूल नहीं लगे। एक उपाय यह बताया गया कि राज्य की जमीन का कतरा-कतरा चमड़े से ढक दिया जाए। निःसंदेह यह सुझाव कारोबारी समुदाय की तरफ से आया था। अधिक बुद्धिमानी एवं सस्ता समाधान यह था कि राजा या जो कोई भी व्यक्ति अपने पैर साफ रखना चाहता है उन्हें एक जोड़ी जूता दे दिया जाए।
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए सुझाए जा रहे उपाय अधिक रूढ़िवादी लग रहे हैं। जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में काम करने वाले सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने पर लाखों करोड़ रुपये डॉलर खर्च करने वाले उपाय बता रहे हैं, जबकि यह समस्या सभी के लिए एक जैसी नहीं है।
जलवायु आपातकाल घोषित करने के विरोध में पिछले साल विरोध शुरू हुआ जब 1,000 से अधिक वैज्ञानिकों एवं पेशेवरों ने ‘वर्ल्ड क्लाइमेट डेक्लरेशन’ (डब्ल्यूसीडी) जारी कर दिया, जिसका शीर्षक दिया था ‘देयर इज नो क्लाइमेट इमरजेंसी’ (अर्थात जलवायु आपातकाल की स्थिति नहीं है)। इस साल अगस्त के अंत तक जिन लोगों ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे या कम से कम जो घोषणा के विषय से सहमत थे, उनकी संख्या बढ़कर 1,600 हो गई। इनमें पांच भारत से भी थे।
इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन की बात से इनकार नहीं किया गया है, बल्कि इससे निपटने के तार्किक एवं वैज्ञानिक तरीकों पर जोर दिया गया है ताकि इस विषय को अनावश्यक तूल नहीं दिया जाए और लोगों में घबराहट पैदा होने से रोका जाए। इस घोषणा के मुख्य बिंदु मुझे तो पहली नजर में उचित ही लगते हैं। पहली बात तो वैश्विक तापमान बढ़ने में केवल मनुष्यों के क्रियाकलाप ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि ‘प्राकृतिक एवं मानव जनित कारक भी जिम्मेदार होते हैं’।
इतना ही नही वैश्विक, तापमान में बढ़ोतरी वैज्ञानिकों के अनुमान से कम रही है। डब्ल्यूसीडी का कहना है कि जलवायु नीति अधूरे प्रारूप पर निर्भर होती है, जिसके कुछ वास्तविक दोष हैं। यह भी तर्क दिया गया है कि ये रुझान इस बात की भी अनदेखी करते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड गैस ही अकेला दोषी नहीं है क्योंकि यह पौधों के जीवित रहने का आधार है।
डब्ल्यूसीडी की सलाह सरल एवं वाजिब है। इसके अनुसार, ‘विज्ञान को जलवायु तंत्र की बेहतर समझ प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए, जबकि राजनीतिक स्तर पर संभावित नुकसान कम से कम रखने के लिए ध्यान देना चाहिए और इसके लिए प्रमाणित एवं किफायती तकनीक का सहारा लेकर परिस्थितियों के अनुकूलन स्वयं को ढालने की रणनीति अपनाए जाने को प्राथमिकता देना चाहिए।‘
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अब प्रश्न यह है कि जलवायु परिवर्तन पर दुनिया में घबराहट पैदा करने वाले लोग एवं समूह अधिकांश देशों में कैसे सफल रहे हैं? इसका उत्तर यह हो सकता है कि मीडिया में जलवायु से जुड़े घटनाक्रम को बढ़-चढ़ कर बताने, बाढ़, जंगलों में आग, तूफान आदि घटनाओं को आपस में जोड़कर (मगर अधूरे साक्ष्य के रूप में) इन्हें जलवायु आपदा के संकेत के रूप में प्रस्तुत करने में ऐसे समूह सफल रहे हैं। अगर कोई किसी घटना का एक हिस्सा हमारे सामने किसी न किसी रूप में बार-बार प्रस्तुत करता है तो प्रायः लोग इसे सही मान लेते हैं।
हमें जलवायु आपातकाल घोषित करने की स्थिति से हमेशा बचना और चिंतित होना चाहिए, क्योंकि इससे शक्ति कुछ खास लोगों के पास केंद्रित हो जाती है। इस तरह, पूरी व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो जाती है। अगर जीवन को नुकसान पहुंचाने वाली किसी महामारी से बचने के लिए अल्प अवधि के लिए आपात स्थिति घोषित की जाती है तो यह अलग बात है, मगर जलवायु आपातकाल बिल्कुल अलग है। क्या हम चाहते हैं कि जलवायु पर चरम सोच रखने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग हमारा भविष्य तय करें?
यहां पर हमें कुछ खास बिंदुओं पर अवश्य विचार करना चाहिए। पहली बात, सामान्य स्तर पर जलवायु आपातकाल की स्थिति पैदा नहीं हो सकती है, मगर इसका असर झेलने वाले कुछ देशों के समक्ष आपात स्थिति घोषित करने की नौबत आ सकती है। मालदीव जैसे कुछ द्वीप या बांग्लादेश के तटीय इलाके निश्चित तौर पर ऐसा करना जलवायु आपातकाल की घोषणा करना चाहेंगे मगर विभिन्न जलवायु क्षेत्रों वाले बड़े देशों को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप ढलने के साथ कार्बन उत्सर्जन घटाने पर एक साथ ध्यान देना चाहिए।
दूसरी बात, भारत जैसे देश, जहां आबादी तो अधिक है मगर अमेरिका की तरह भरपूर प्राकृतिक संसाधन नहीं है, को पर्यावरण के नुकसान से जुड़े तात्कालिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भारत में वायु, जल एवं धरती काफी प्रदूषित हो गए हैं और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना प्राथमिकता की सूची में बाद में भी रखा जा सकता है। हमें जलवायु परिवर्तन के बीच अनुकूलन पर ध्यान देना चाहिए न कि शून्य उत्सर्जन हासिल करने पर।
तीसरी बात, पूरे विश्व का ध्यान विज्ञान और जलवायु को लेकर बेहतर उपाय खोजने पर होना चाहिए। इस पर ज्यादातर समझदार लोग सहमत हो सकते हैं। प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, गर्मी एवं शीतलहर और जंगल में आग आदि से प्रभावित होने वाले लोगों के लिए सक्षम आपदा-राहत प्रणाली तैयार करना आवश्यक हो गया है। उदाहरण के लिए पुर्तगाल समुद्र में बढ़ते जल स्तर से बचाव के लिए तटीय इलाकों में 2 मीटर ऊंचा सुरक्षा घेरा तैयार कर रहा है। बांग्लादेश और केरल के तटीय क्षेत्रों में यह उपाय आजमाया जा सकता है।
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भारत लगभग हरेक साल बाढ़ एवं सूखे की समस्या झेलने का आदि रहा है, इसलिए हमें ऐसी सालाना आपदा को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। मगर हमें इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्या हम गर्म हवाएं या वनों में आग लगने जैसे घटनाएं रोकने एवं इनसे निपटने में सक्षम हैं? हाल में अमेरिका के हवाई, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में जंगलों में आग लगने की भीषण घटनाएं सामने आई हैं।
अगर इन घटनाओं से आर्थिक क्रियाकलापों में बाधा लगातार आती है तो क्या हमारी कंपनियों को अनुकूलन और हानि कम करने के लिए अधिक संसाधन का प्रावधान करने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए? नीति में बदलाव कर हम कंपनियों को कारोबारी व्यवधान कोष बनाने के लिए कहा जाना चाहिए।
इस कोष का इस्तेमाल कारोबार प्रभावित होने के दौरान कर्मचारियों को मदद देने और मध्यम एवं लघु क्षेत्र के आपूर्तिकर्ताओं को आवश्यकता पड़ने पर नकदी समर्थन देने में किया जाना चाहिए। कंपनियों को सामाजिक निगमीय उत्तरदायित्व (सीएसआर) के बजाय व्यवधानों के समय कारोबारी गतिविधियों को समर्थन देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
अंत में, हमें स्थानीय निकायों एवं जिला प्रशासन को अधिक अधिकार दिए जाएं ताकि कौशल विकास, खाद्य सुरक्षा, आधारभूत शिक्षा एवं स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन से जुड़ी आवश्यकताएं स्थानीय स्तर पर ही पूरी की जा सकें। हमें जलवायु परिवर्तन पर मची हाय-तौबा को अनावश्यक तूल नहीं देना चाहिए और किफायती एवं सुलभ समाधान, खासकर स्थानीय स्तर, खोजना चाहिए। हमें लोगों में घबराहट पैदा करने वाले और जलवायु परिवर्तन की बात नकारने वाले दोनों लोगों में किसी का पक्ष नहीं सुनना चाहिए। इन दोनों के ही निष्कर्ष गलत हो सकते हैं।
(लेखक स्वराज पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)