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बदलते विश्व व्यापार नियम और भारत के लिए विकल्प

ईयू के साथ अपनी वार्ता के दौरान भारत को देसी उत्पादकों विशेष तौर पर बड़े उद्योगों को होड़ से बचाने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए।

Last Updated- November 04, 2024 | 10:36 PM IST
विश्व व्यापार संगठन का क्या होगा भविष्य, What will be the future of World Trade Organization?

वैश्विक व्यापार संस्थाओं में हो रहे परिवर्तन के साथ भारत को अपनी व्यापार नीति में लचीलापन लाने की जरूरत है। बता रही हैं अमिता बत्रा

भारत जब वैश्विक, क्षेत्रीय और द्विपक्षीय व्यापार वार्ताओं में आगे बढ़ रहा है तब यह समझना भी जरूरी है कि वैश्विक व्यापार रुझानों में बदलाव के साथ ही वैश्विक व्यापार संस्थानों और नियमों के स्वरूप भी बदल रहे हैं। इनमें सबसे जरूरी यह समझना है कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ)तरजीही व्यापार समझौतों (पीटीए) के ‘स्पैगेटी बोल इफ्केट्स’ के कारण कमजोर नहीं पड़ा, जैसा 1990 के दशक में कुछ अर्थशास्त्रियों ने साबित करने की कोशिश की थी।

वास्तव में वह कमजोर इसलिए हुआ है क्योंकि अमेरिका ने विवाद सुलझाने वाले उसके केंद्रीय स्तंभ पर चोट की है। स्पैगेटी बोल इफेक्ट कहता है कि कई देशों के बीच व्यापार समझौते होने से क्षेत्र में जटिलता बढ़ जाती है और व्यापार संबंधों की गति धीमी हो जाती है।

तरजीही व्यापार समझौते 2000 के दशक में अहम हो गए, जब किसी वस्तु का उत्पादन अलग-अलग देशों में होने लगा और दूसरे देशों में उसे भेजा जाने लगा। तब व्यापार की बदलती प्रकृति के बीच व्यापार समझौतों के प्रावधानों की गहराई और दायरा भी बढ़ा। इन समझौतों में व्यापार के नए नियम बनाए गए जो बदलते दौर के हिसाब से थे। उस वक्त दोहा वार्ता में डब्ल्यूटीओ के जिन प्रावधानों पर चर्चा चल रही थी वे वैश्विक व्यापार में इस बदलाव के लिए मददगार नहीं थे। डब्ल्यूटीओ इतनी जल्दी नए नियम नहीं बना सकता था, इसलिए देश डब्ल्यूटीओ नियमों के दायरे में रहकर ही तरजीही व्यापार समझौते करने लगे। ये समझौते डब्ल्यूटीओ के जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स ऐंड ट्रेड (गैट) के अनुच्छेद 24 के दायरे में भी थे।

उसी समय डब्ल्यूटीओ के सभी सदस्य देशों की व्यापार संबधी शिकायतों और उनके बीच हो रहे विवादों के समाधान के लिए विवाद निपटान तंत्र (डीएसएम) मंच मुहैया कराता रहा। इसके लिए देश का तरजीही व्यापार समझौते में शामिल होना जरूरी नहीं था। इस तरह दुनिया में वैश्विक व्यापार के दो तरीके – द्विपक्षीय और क्षेत्रीय स्तर पर तरजीही व्यापार समझौते और बहुपक्षीय प्रणाली – इस दौरान सफलतापूर्वक एक साथ काम करते रहे।

लेकिन पिछले पांच साल में डीएसएम के अपील निकाय में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर अमेरिका के अड़ियल रवैये ने नियमों पर चल रही वैश्विक व्यापार व्यवस्था के सारे किए-धरे पर पानी फेर दिया है। बहुपक्षीय व्यवस्था की गैट से डब्ल्यूटीओ तक की यात्रा में सबसे अहम सुधार पर चोट कर अमेरिका ने बहुपक्षीय व्यापार को बहुत कमजोर कर दिया है।

इसी के साथ व्यापार की क्षेत्रीयता को भेदभावपूर्ण तरीके से पुनर्परिभाषित किया जा रहा है। उत्तर अमेरिका के भीतर होने वाले व्यापार को अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौते से पहले ही बढ़ावा मिल रहा था। अब उसे अमेरिका के मुद्रास्फीति कटौती अधिनियम (आईआरए) के जरिये और भी मजबूत किया गया है।

आईआरए का मुख्य उद्देश्य इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र में क्षेत्रीय व्यापार एवं मूल्य श्रृंखला को बढ़ावा देना है। इसके लिए अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने वाले देशों से आ रही स्थानीय सामग्री की प्रतिशत हिस्सेदारी उत्पाद में बढ़ने पर सब्सिडी और कर क्रेडिट दिया जाता है। अमेरिका कुछ देशों के प्रति चिंता भी जताता रहता है और ऐसे देशों से पुर्जों तथा सामग्री के आयात पर भी उसने प्रतिबंध लगा दिया है। इस तरह आईआरए भेदभाव भरा है और डब्ल्यूटीओ के सर्वाधिक तरजीही वाले राष्ट्र के सिद्धांत और मुक्त व्यापार समझौते के नियमों का उल्लंघन करता है।

इसी तरह आम भाषा में कार्बन कर कहलाने वाली कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) की कानूनी वैधता सवालों के घेरे में है, वह डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन करती है और कम विकसित देशों की प्रशासनिक तथा संस्थागत क्षमताएं कम होने के कारण उसे लागू करना भी मुश्किल है। साथ ही यह यूरोपीय संघ के भीतर ही क्षेत्रवाद को भी बढ़ावा देती है।

इस समय, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और व्यापक एवं प्रगतिशील ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी (सीपीटीपीपी) ही ऐसे दो बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते हैं जो खुले, गैर-भेदभावपूर्ण और डब्ल्यूटीओ नियमों के अनुरूप हैं। सीपीटीपीपी एक उच्च-मानक, महत्वाकांक्षी और भविष्य-उन्मुख व्यापार समझौता है। इसके सदस्य देशों की संख्या बढ़ रही है और आवेदकों की कतार भी लंबी है ऐसे में इसमें व्यापार विस्तार की काफी संभावना है।

इस संदर्भ में बात करें तो इस समय क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) और समग्र तथा प्रगतिशील ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी (सीपीटीपीपी) ही दो बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते हैं, जो खुले हैं, भेदभाव से परे हैं और डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप हैं। सीपीटीपीपी उच्चस्तरीय, महत्त्वाकांक्षी और भविष्योन्मुखी व्यापार समझौता है। इसके सदस्य बढ़ते जा रहे हैं और सदस्य बनने की इच्छा रखने वाले देशों की कतार भी इतनी बड़ी है कि इसमें व्यापार को विस्तार देने की बड़ी क्षमता है।

बहुपक्षीय स्तर पर डब्ल्यूटीओ के झंडे तले बहुपक्षीय समझौतों की व्यावहारिक अहमियत बढ़ती जा रही है। साझा हित के किसी मुद्दे पर व्यापार नियमों के लिए सहमत होने वाले डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों के ऐसे समझौते नई बात नहीं हैं। ऐसा पहला समझौता सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों पर शुल्क खत्म करने के लिए 1996 में हुआ था। अब बड़ी तादाद में देश ई-कॉमर्स और निवेश सुविधा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों से जुड़ी इन पहलों में हिस्सा ले रहे हैं।

अब सवाल यह है कि वैश्विक व्यापार में इन संस्थागत रुझानों को देखते हुए भारत की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? सबसे पहले भारत को स्वीकार करना होगा कि डब्ल्यूटीओ और उसकी विवाद निपटान संस्था अपने पुराने रूप में वापस नहीं आ पाएंगे। डब्ल्यूटीओ के पतन की शुरुआत डॉनल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते हुए की थी मगर जो बाइडन ने चार साल राष्ट्रपति रहते हुए और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान में अपील संस्था का संकट दूर करने का कोई संकेत नहीं दिया है। हाल के डब्ल्यूटीओ मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में भी बहुपक्षीय संस्था के सुधार पर औपचारिक बयान भर दिए गए हैं।

दूसरी, पीटीए की व्यापकता और क्षेत्रवाद, व्यापार और वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) के प्रमुख माध्यम हैं, जो स्थानीय लोकलुभावन नीतियों, लचीलेपन की आवश्यकता, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों के जवाब में तैयार हो रहे हैं।

उत्पादन में सुगमता के लिए निवेश के अधिक अनुकूल और पर्यावरण के अनुकूल प्रशासन से संबंधित प्रावधान, पर्यावरण का अधिक ख्याल रखने वाली आपूर्ति श्रृंखलाएं निकट भविष्य में तरजीही व्यापार समझौतों की प्रमुख शर्त हो सकती हैं। इसलिए व्यापार में नए दौर की समस्याओं को ‘व्यापार से इतर’ करार देने का पुराना रुख बरकरार रखना शायद भारत के लिये व्यापार वार्ताओं में सही नहीं होगा।

तीसरी, भारत को सीपीटीपीपी में सदस्यता के लिए आवेदन करना चाहिए और इसके लिए तैयारी शुरू करनी चाहिए। यूरोपीय संघ (ईयू) के साथ एफटीए को अंजाम देना इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा। ईयू के साथ अपनी वार्ता के दौरान भारत को देसी उत्पादकों विशेष तौर पर बड़े उद्योगों को होड़ से बचाने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए। उसके बजाय चिंता वाले क्षेत्रों में भारत को उत्पाद या उत्पाद श्रेणी से जुड़ी विशेष रियायतों, रक्षा के उपायों और बदलाव के लिए अधिक समय पर जोर देना चाहिए।

चौथी, भारत को सीबीएएम के संबंध में दोहरी रणनीति अपनानी चाहिए। उसे कार्बन उत्सर्ज कम करने की दिशा में बढ़ने की बात तो स्वीकार करनी चाहिए मगर सीबीएएम में बहुपक्षीय नियमों के अंतर्निहित उल्लंघन की बात पर जोर भी देना चाहिए जैसा वित्त मंत्री ने भी हाल ही में किया है।

पांचवीं, भारत को बहुपक्षीय समझौतों में भाग लेने के प्रति अधिक सकारात्मक भी होना चाहिए। बहुपक्षीय वार्ताओं के लिए सर्वसम्मति को प्राथमिक सिद्धांत के रूप में तरजीह देना उचित है, लेकिन हमें वैश्विक व्यापार के नियम तय करने के लिए वेरिएलब ज्यॉमेट्री (जहां सभी देशों को एक जैसे नियमों का पालन नहीं करना पड़ता है) के वैकल्पिक ढांचों को भी समझना चाहिए।

इसलिए अपनी व्यापार नीति में लचीलापन लाने के साथ ही भारत को वैश्विक व्यापार संस्थाओं और व्यापार नियमों में हो रहे बदलाव की बेहतर समझ तैयार करनी चाहिए। इसके लिए भारत को गैर-सरकारी स्रोतों से विशेषज्ञों के साथ सक्रिय भागीदारी बढ़ानी चाहिए।

(लेखिका सीएसईपी में वरिष्ठ फेलो और जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्राध्यापक (अवकाश पर) हैं। लेख में निजी विचार हैं)

First Published - November 4, 2024 | 10:12 PM IST

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