लेख

बेहतर जीएसटी की ओर: नए सुधार अहम, लेकिन और कदम जरूरी

जीएसटी पर उठाए जा रहे नए कदमों को प्रगतिशील माना जा सकता है लेकिन इस दिशा में और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। बता रहे हैं अजय शाह, विजय केलकर और अरविंद मोदी

Published by
अजय शाह   
विजय केलकर   
अरविंद मोदी मोदी   
Last Updated- August 21, 2025 | 11:29 PM IST

देश के वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर बहस तेज हो गई है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एक चार बिंदुओं वाली आलोचना में कहा है: मौजूदा व्यवस्था बहुत अधिक जटिल है और इसकी वजह कई दरों का होना है, यह एमएसएमई को हतोत्साहित कर रही है, राजकोषीय संघवाद को क्षति पहुंचा रही है और पेट्रोलियम उत्पादों को अपरिपक्व रूप से बाहर रखा गया है। इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधारों’ वाले ‘दोहरे दीवाली पैकेज’ की घोषणा की। उन्होंने वादा किया कि कर ढांचे को 5 फीसदी और 18 फीसदी के दो स्लैब में सीमित करके इसे सरल बनाया जाएगा। इन घटनाओं को मूल जीएसटी ढांचे के तहत परिकल्पित ‘एक परिपूर्ण जीएसटी’ के सिद्धांत के समक्ष रखकर आंका जा सकता है।

जीएसटी दर के ढांचे की पहेली

सात स्लैब और विविध दरों वाले ढांचे (0.25, 3, 5, 12, 18, 28 फीसदी और 28 फीसदी के साथ उपकर) ने काफी आर्थिक दिक्कतें और जटिलताएं पैदा कीं। ये दरें सही मायनों में बहुत ऊंची दरें थीं। राहुल गांधी ने एक दर की बात कही है जो उचित ही यह बताती है कि दरों की विविधता ही प्रमुख समस्या है। प्रधानमंत्री ने व्यवस्था को 5 स्लैब वाले ढांचे में सुसंगत बनाने की बात कही है जिसमें अधिकांश खपत वस्तुओं को 5 फीसदी कर दायरे में रखने की बात है जबकि सामान्य वस्तुओं और सेवाओं पर 18 फीसदी कर लगाकर दरों को कम करने और उन्हें युक्तिसंगत बनाने की दिशा में कदम उठाया जाएगा।

12 फीसदी के कर दायरे में आने वाली करीब 99 फीसदी वस्तुएं 5 फीसदी में चली जाएंगी और 28 फीसदी के स्लैब वाली 90 फीसदी वस्तुएं 18 फीसदी में। 28 फीसदी के साथ उपकर वाला स्लैब 40 फीसदी की एकल दर में बदल जाएगा। जबकि 0.25 फीसदी और 3 फीसदी की रियायती दर चुनिंदा उच्च मूल्य वाली वस्तुओं पर लगती रहेगी। यह तरक्की तो है लेकिन परिपूर्ण जीएसटी नहीं है। कम एकल दर की व्यवस्था दुनिया भर में अपनाई जा चुकी है और यही इकलौती सही राह है।

5 फीसदी की मौजूदा दर भ्रामक है। आज, कई पहलुओं में इनपुट टैक्स क्रेडिट (आईटीसी) प्रतिबंधित या सीमित हैं। यह जीएसटी की भावना के विपरीत है। ऐसे हालात में प्रभावी कर बोझ बहुत अधिक हो जाता है। सकल कर संग्रह 18 फीसदी की दर के साथ बढ़ाचढ़ाकर बताया गया प्रतीत होता है क्योंकि आईटीसी को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। यह डिजाइन कैस्केडिंग यानी सोपानी प्रभाव की ओर ले जाता है और सार्थक शुद्ध राजस्व के बिना जटिलता पैदा करता है। अब वक्त आ गया है कि एकल जीएसटी दर के साथ पूर्ण आईटीसी की व्यवस्था हो।

एमएसएमई और सांठगांठ वाले पूंजीवाद की बहस

राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि जीएसटी एमएसएमई पर बोझ डालकर क्रोनी कैपिटलिज्म यानी ‘सांठगांठ वाले पूंजीवाद’ को जन्म देता है। भले ही यह बात राजनीतिक रूप से कही गई हो लेकिन यह हकीकत से दूर नहीं है। बड़े कारोबार अपने इनपुट पर आईटीसी वसूल लेते हैं और उन पर अक्सर 18 फीसदी की मानक दर लगती है, वहीं एमएसएमई अक्सर ऐसा करने से चूक जाते हैं।

इसकी कई वजह होती हैं मसलन अनुपालन बाधाएं, नकदी की तंगी और असंगठित क्षेत्र के आपूर्तिकर्ता आदि। इससे उन पर कर का बोझ बढ़ता है और वे छोटे और असंगठित स्वरूप में बने रहते हैं। अगर बुनियादी दर के ढांचे में सुधार किया जाए, कच्चे माल पर मानक दर को 18 फीसदी से घटाकर 12 फीसदी किया जाए और एमएसएमई की भागीदारी को सहज कर अनुपालन बढ़ाया जाए तो इससे उन्हें मदद मिलेगी।

राजकोषीय संघवाद

जीएसटी फंड हस्तांतरण के समय को लेकर हो रही बहस जिसे राहुल गांधी ने राजकोषीय संघवाद का पतन बताया है, वह संरचनात्मक डिजाइन की खामियों से उपजे राजनीतिक टकराव को दिखाती है। हस्तांतरण को लेकर टकराव एकीकृत जीएसटी यानी आईजीएसटी की संरचना से उपजा है। आईजीएसटी संग्रह केंद्र के पास आता है और उसके बाद उसे राज्यों के साथ साझा किया जाता है। ऐसे में देरी या विवाद राजनीतिक टकराव बन जाते हैं। यहां असली मुद्दा डिजाइन का है। ऐसे में बेहतर यह होगा कि आईजीएसटी को दो अलग-अलग शुल्कों में विभाजित कर दिया जाए। एक केंद्र का आईजीएसटी और दूसरा राज्य का आईजीएसटी। ऐसा करने से क्रॉस क्रेडिट के निपटान की जटिल समस्या समाप्त हो जाएगी और राज्यों के साथ टकराव को दूर करने में मदद मिलेगी।

पेट्रोलियम, बिजली और सुधार

पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी ढांचे में शामिल करने की मांग मौजूदा कराधान ढांचे के आर्थिक उद्देश्य को गलत ढंग से प्रस्तुत करती है। पेट्रोलियम पर केंद्र सरकार द्वारा लगाया गया उत्पाद शुल्क एक सुधारात्मक कर के रूप में काम करता है। इसका उद्देश्य इसके नकारात्मक बाहरी प्रभावों मसलन कार्बन उत्सर्जन, यातायात जाम आदि के असर को कम करना है। वहीं राज्य सरकारें जो मूल्यवर्धित कर लगाती हैं वह एक उपभोग कर के रूप में काम करता है।

इसमें सतही नहीं बल्कि गहन बदलाव की आवश्यकता है। पेट्रोलियम पर लगाया जाने वाला उत्पाद शुल्क एक एकीकृत इको या कार्बन कर में बदल देना चाहिए जो पेट्रोलियम और कोयले दोनों पर लागू हो और जो केंद्र सरकार द्वारा प्रशासित हो। ऐसा इन उद्योगों के अंतिम दशक के लिए किया जाना चाहिए। जब यह बदलाव हो जाए तो पेट्रोलियम उत्पादों और कोयले को सामान्य दर वाले जीएसटी का एक हिस्सा बना देना चाहिए। बिजली पर लगने वाले कर में भी तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है। बिजली को लेकर अलग-अलग कर व्यवहार का असर देश के निर्यात तक पर पड़ता है। बिजली को जीएसटी के तहत एक सामान्य उत्पाद बना देना समझदारी भरा होगा।

सोने और विलासिता की वस्तुओं पर लगने वाले कर में भी सुधार करने की आवश्यकता है। सोने पर अभी 3 फीसदी जीएसटी लग रहा है, इस पर नए सिरे से विचार होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे बचत का उपाय माना जाता है न कि खपत वस्तु। ऐसे में यह सीमा शुल्क और मूल्यवर्धित कर से मुक्त रखा जाता है। आभूषणों पर नई एकल जीएसटी दर के तहत पूरा कर लगना चाहिए। विलासिता वाली और हानिकारक वस्तुओं पर एक खास उत्पाद शुल्क लगाया जाना चाहिए जिसे केंद्र और राज्य सरकारें समानांतर रूप से लगा सकती हैं। लेकिन यह पूरी तरह से जीएसटी से अलग होना चाहिए।

इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जीएसटी एक व्यापक उपभोग वाला कर बन सके। इस तरह जीएसटी से जुड़ी सभी छूटों को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिए। पुनर्वितरण के उद्देश्य नकद हस्तांतरण के जरिये पूरे किए जाने चाहिए। भारत की कामयाबी के लिए कर नीति में सुधार करना अहम है। जो घोषणाएं की गई हैं वे तरक्की तो दर्शाती हैं लेकिन अधूरा एजेंडा अभी भी साफ नजर आ रहा है। हमें एकल दर की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है, आईजीएसटी निस्तारण व्यवस्था में ढांचागत बदलाव की आवश्यकता है और बिजली जैसे अहम उत्पाद को जीएसटी में शामिल करने की भी जरूरत है।


(लेखक पुणे इंटरनैशनल सेंटर और एक्सकेडीआर फोरम से संबद्ध हैं।)

First Published : August 21, 2025 | 11:21 PM IST