अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध में कई अन्य देशों के साथ भारत भी पिस रहा है। अप्रैल में चीन ने कुछ भारी एवं मध्यम दुर्लभ खनिजों एवं इनसे जुड़े मैग्नेट के निर्यात पर पाबंदी लगाने की घोषणा की थी और कहा था कि इनके निर्यात के लिए लाइसेंस लेना आवश्यक होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तरफ से शुल्क एवं विभिन्न व्यापार प्रतिबंध लगाने की घोषणा के बाद चीन ने यह कदम उठाया था।
इन तत्त्वों के निर्यात के लिए लाइसेंस लेने में कठिनाई पेश आ रही है और यह साबित करना भी कम पेचीदा नहीं है कि किन उद्देश्यों के लिए इनका इस्तेमाल किया जाएगा। इसकी वजह से भारत में भी विनिर्माण गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं। चीन का आधिकारिक रूप से ज्ञात भंडार के 50 फीसदी हिस्से पर नियंत्रण है और निष्कर्षण और प्रसंस्करण क्षमता में इसकी क्रमशः 70 फीसदी और 90 फीसदी हिस्सेदारी है। ये खनिज वाहन, सोलर पैनल आदि के विनिर्माण में काफी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
अब चीन से इन दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति बाधित होने से भारतीय उद्योगों को दूसरे विकल्पों पर विचार करना होगा। यह निश्चित था कि चीन कभी न कभी इन तत्त्वों की आपूर्ति रोक कर इनका इस्तेमाल व्यापार में हथियार के रूप में करेगा। वास्तव में चीन अपने इस हथियार का इस्तेमाल पहले भी कर चुका है। जब एक दशक से अधिक समय पूर्व चीन और जापान में तनाव चल रहा था तो उस समय चीन ने जापान और उसकी कंपनियों को इन तत्त्वों की आपूर्ति रोक दी थी।
चीन के साथ अपने इस अनुभव से सबक लेते हुए जापान ने अस्थायी बाधाओं का सामना करने के लिए खनिजों का रणनीतिक भंडार तैयार कर लिया है और फिलिपींस और ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों के माध्यम से एक वैकल्पिक आपूर्ति व्यवस्था का भी बंदोबस्त कर लिया है। भारत को भी इस तरह की तैयारी करनी चाहिए थी, विशेषकर वर्ष 2000 में गलवान में चीन के साथ सैन्य झड़प के बाद उसे इन खनिजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का प्रयास शुरू कर देना चाहिए था।
अब भारत सरकार और कंपनियों ने इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिया है और यह दिख भी रहा है लेकिन इसमें तालमेल का अभाव दिख रहा है। सरकार ने ‘काबिल’ नाम से एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी स्थापित की है जिसका उद्देश्य आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त रखना है। इस बीच, वेदांत जैसी कुछ बड़ी कंपनियों और हैदराबाद स्थित मिडवेस्ट एडवांस्ड मटीरियल्स ने आपूर्ति व्यवस्था में भारी निवेश करना शुरू किया है।
हालांकि, इन प्रयासों को वास्तविक रणनीति का दर्जा नहीं दिया सकता। वास्तविक रणनीति आपूर्ति श्रृंखला में निष्कर्षण एवं प्रसंस्करण दोनों का ख्याल रखने और सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के साथ काम करने के साथ ही जापान जैसे विश्वसनीय देशों को भी अपने साथ जोड़ने की होनी चाहिए। भारत की रणनीतिक सोच के साथ अक्सर सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि यह केवल आंतरिक बाजार पर ध्यान देता है। भारतीय कंपनियां भी प्रसंस्करण एवं निष्कर्षण में अग्रणी बन सकती हैं।
प्रसंस्करण कार्यों के विस्तार में भारतीय इंजीनियर मानव पूंजी उपलब्ध करा सकते हैं। किंतु, इसके लिए सरकार से स्पष्ट संकेत एवं तालमेल की जरूरत होगी। इसके लिए विदेश नीति को लेकर भी सटीक व्यावहारिक दृष्टिकोण रखना होगा। उदाहरण के लिए चीन में जितनी मात्रा में खनिजों का निष्कर्षण होता है उसका ज्यादातर हिस्सा उत्तरी म्यांमार से आयात होता है। भारत ने ठीक अपने पड़ोस में इस संभावना को नजरअंदाज किया है मगर चीन ने ऐसा नहीं किया। भारत को यह भी अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि दुर्लभ खनिजों के लिए आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण मेजबान देशों की मांगों के अनुरूप होगा।
जैसे इंडोनेशिया यह मांग रख सकता है कि प्रसंस्करण उसके देश में ही होगा न कि भारत में। किसी भी रणनीति का प्रमुख उद्देश्य आपूर्ति व्यवस्था को जोखिम मुक्त रखना है, इसलिए भारत को यह शर्त स्वीकार होनी चाहिए।
अंत में, ऐसी किसी रणनीति में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि भारत एक व्यापक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बने जिसमें चीन पर निर्भर दूसरे देश भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए जापान जिस प्रकार आपूर्ति श्रृंखला जोखिम मुक्त रखने की दिशा में काम कर रहा है वह भारत के लिए वित्तीय निवेश का एक स्रोत हो सकता है।