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बैंक जमाएंः गलत दिशा में बढ़ती प्राथमिकताएं? आकर्षित करने के लिए ढूंढने ही होंगे नए तरीके

स्विस बैंक यूबीएस की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय परिवार कम अय, ज्यादा खर्च और बढ़ते कर्ज के कारण कम बचत कर पा रहे हैं।

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- August 19, 2024 | 9:40 PM IST

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर शक्तिकांत दास बैंकिंग क्षेत्र की में जमा वृद्धि धीमी होने पर चिंतित हैं। बैंकिंग उद्योग जमा में भी ऋण के बराबर वृद्धि दर हासिल करने में सबसे कठिन चुनौतियों से जूझ रहा है। 26 जुलाई तक सभी वाणिज्यिक बैंकों के पास कुल 211.93 लाख करोड़ की जमा थीं किंतु उनके द्वारा दिया गया ऋण 168.14 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया।

इस वित्त वर्ष में अभी तक जमाओं में 3.5 फीसदी वृद्धि हुई है और ऋण में वृद्धि 2.3 फीसदी रही है। लेकिन पिछले एक वर्ष में जमा वृद्धि 10.6 फीसदी रही है, जो ऋण में हुई 13.7 फीसदी वृद्धि से काफी कम है। 2023 में लगभग इसी समय जमाओं में वृद्धि एक साल पहले की तुलना में 12.9 फीसदी थी और ऋण में वृद्धि 19.7 फीसदी थी। वर्ष 2022 में ये आंकड़े 9.2 फीसदी और 14.5 फीसदी थे।

जमाओं में वृद्धि जब ऋण वृद्धि से कम होती है तब बैंकों का ऋण-जमा (सीडी) अनुपात उच्च स्तर पर होता है। 100 रुपये की हर जमा राशि पर बैंकों को नकद आरक्षित अनुपात के तौर पर रिजर्व बैंक के पास 4.5 रुपये अवश्य रखना होते हैं और बाकी 18 रुपये का निवेश सरकारी बॉन्ड में करना होता है। इस कारण सैद्धांतिक रूप से बैंकों के पास 100 रुपये की हर जमा राशि में से कर्ज देने के लिए 78.5 रुपये बचते हैं। किंतु वास्तव में बॉन्ड में अधिक निवेश के कारण यह राशि अक्सर और भी कम होती है। यद्यपि बैंक इस पूंजी का इस्तेमाल ऋण देने के लिए बिल्कुल कर सकते हैं। जुलाई महीने के मध्य में बैंकिंग तंत्र का औसत सीडी अनुपात 79.39 फीसदी था, जो मार्च मध्य के 80.25 फीसदी से कम है।

जब जमा वृद्धि धीमी होती है तब बैंकों को वाणिज्यिक पत्र (सीपी) और जमा प्रमाणपत्र के जरिये बाजार से पूंजी जरूर जुटानी चाहिए। वित्त वर्ष 2024 में बैंकों ने जमा प्रमाणपत्र से 9.56 लाख करोड़ रुपये जुटाए, जो उससे पिछले वर्ष जुटाए गए 7.28 लाख करोड़ रुपये की तुलना में 31 फीसदी अधिक थे। इस तरह की रकम महंगी पड़ती है और वाणिज्यिक पत्र की अवधि तो और भी कम है।

पिछले साल कुल जमाओं में कम खर्च वाले चालू एवं बचत खातों (कासा) की हिस्सेदारी 43 फीसदी थी, जो उससे पिछले वर्ष के 45 फीसदी से कम है। फिलहाल इनकी हिस्सेदारी 41 फीसदी है। हालांकि यह बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि 2010 के दशक के मध्य में कासा और भी कम था। किंतु बढ़ती होड़ के कारण बैंकों को जमा आकर्षित करने के नए तरीके ढूंढने ही होंगे।

ऊंची ब्याज दर जमा आकर्षित करने का पुराना तरीका है। कुछ लघु वित्त बैंक एक से दो वर्ष की सावधि जमा पर 8-9 फीसदी ब्याज दे रहे हैं और दूसरे बैंक इसी अवधि के लिए 6.5 फीसदी से 8 फीसदी ब्याज दे रहे हैं। वरिष्ठ नागरिकों को आम तौर पर आधा फीसदी अतिरिक्त ब्याज मिलता है और कुछ बैंक 80 वर्ष या इससे भी अधिक उम्र के नागरिकों को और भी ज्यादा ब्याज देते हैं।

दूसरे देशों की बात करें तो जिम्बाब्वे में बैंक जमाओं पर सबसे ज्यादा 110 फीसदी ब्याज दे रहे हैं। अर्जेंटीना 69.89 फीसदी ब्याज के साथ दूसरे स्थान पर है। शीर्ष 10 देशों में तुर्की (43.5 फीसदी), वेनेजुएला (36 फीसदी), उज्बेकिस्तान (18.4 फीसदी), सिएरा लियोन (15.75 फीसदी), मिस्र (14.49 फीसदी), कोलंबिया (13.21 फीसदी), मैडागास्कर (13 फीसदी) और मंगोलिया (11.6 फीसदी) शामिल हैं। इतना ऊंचा ब्याज उच्च मुद्रास्फीति की वजह से दिया जा रहा है। भारत की बात अलग है। यहां बैंकों को ज्यादा जमा आकर्षित करने के तरीके ढूंढने होंगे ताकि इसे ऋण वृद्धि के अनुरूप रखा जा सके। अन्यथा ऋण वृद्धि की रफ्तार धीमी होगी जिसका असर आर्थिक वृद्धि पर भी पड़ेगा।

विभिन्न श्रेणियां बनाने और अलग-अलग नामों से उनकी ब्रांडिंग करने के अलावा जमाओं में कुछ नया कम ही किया गया है। बाहरी बेंचमार्क से जुड़ी फ्लोटिंग दर वाली जमा योजनाएं लोकप्रिय नहीं हुईं। बचत करने वाले लोग अक्सर आवर्ती जमा चुनते हैं और किसी खास मकसद से हर महीने पैसे लगाते हैं। कई बैंक अब स्वीपिंग सुविधा की पेशकश भी कर रहे हैं जिसके तहत बचत खाते में मौजूद रकम एक खास सीमा से ऊपर जाने पर खुद ही सावधि जमा खाते में पहुंच जाती है और उस पर अधिक ब्याज मिलता है।

बचत खाते पर ब्याज दर 2011 में नियंत्रण मुक्त कर दी गई लेकिन अधिकतर सरकारी बैंक अब भी कम ब्याज दे रहे हैं। कुछ निजी बैंक चरणों में ब्याज दर बढ़ाते हैं और जमा खाते में रकम बढ़ने पर ब्याज दर भी बढ़ती है। हालांकि चालू खाते पर ब्याज नहीं मिलता मगर खाताधारकों को कुछ फायदे मिलते हैं जैसे ओवरड्राफ्ट (खाते में रकम नहीं होने पर भी निकासी) सुविधा मिलती है। वाणिज्यिक बैंकों में बकाया रुपये की सावधि जमा की भारित औसत दर जून 2022 में 5.13 फीसदी थी। यह जून 2023 में बढ़कर 6.47 फीसदी और जून 2024 में 6.91 फीसदी हो गई। जमाकर्ताओं को लुभाने के लिए बैंक ऊंची ब्याज दर के अलावा कर ही क्या सकते हैं?

सीतारमण ने बैंकों से छोटी जमाएं जुटाने पर ध्यान देने को कहा है। इत्तफाक से लगभग एक सदी पहले वर्ष 1928 में सिंडिकेट बैंक (जिसका अप्रैल 2020 में केनरा बैंक में विलय हो गया) ने पिग्मी जमा योजना (रोजाना जमा योजना) शुरू की। बैंक के एजेंट किसानों और दुकानदारों के पास जाकर पैसे इकट्ठे थे। जमाकर्ता रोजाना, हर हफ्ते या हर महीने केवल चवन्नी यानी 25 पैसे भी जमा कर सकता था। रोजाना 25 पैसे की बचत 3.5 फीसदी सरल ब्याज दर के साथ सात वर्ष में 700 रुपये बन जाती थी।

सिंडिकेट बैंक ने अपने कर्मचारियों को खाली वक्त में पिग्मी बैंक का जमा एजेंट बनने के लिए प्रोत्साहित किया। वर्ष 1960 तक बैंक की शुद्ध जमाओं में पिग्मी जमाओं का योगदान 21 फीसदी हो गया था। मगर आज बैंक इस मॉडल पर नहीं चल सकते क्योंकि यह बहुत खर्चीला होगा। इन दिनों धारणा है कि बचतकर्ता पूंजी लगाने के लिए शेयर (सीधे तौर पर या म्युचुअल फंड के जरिये), रियल एस्टेट या सोना समेत विभिन्न विकल्प तलाश रहे हैं।

डीमैट खातों में तेजी और म्युचुअल फंड कंपनियों के पास मौजूद परिसंपत्ति में तेजी भी इसका प्रमाण है। हालांकि कुल मिलाकर पैसा अलग-अलग श्रेणियों में रहकर तंत्र में ही बना हुआ है। इसका अर्थ यह है कि बैंकों को विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह जमा के अलावा बाजार से रकम जुटानी होगी। कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार के विकास के लिए हरसंभव प्रयास किए जाने चाहिए।

अंत में हर किसी के पास बचाने को पैसे नहीं हैं। भारत में परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत घटकर वित्त वर्ष 2023 में 14.2 लाख करोड़ रुपये रह गई, जो पांस साल में सबसे कम थी। वित्त वर्ष 2022 में यह 17.1 लाख करोड़ रुपये थी। वित्त वर्ष 2023 में परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत घटकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 5.3 फीसदी रह गई, जो पांच दशकों में सबसे कम है। वित्त वर्ष 2012 और वित्त वर्ष 2022 के बीच (कोविड-19 वाले वित्त वर्ष 2021 को छोड़कर) शुद्ध वित्तीय बचत जीडीपी की औसतन 7-8 फीसदी रही।

स्विस बैंक यूबीएस की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय परिवार कम अय, ज्यादा खर्च और बढ़ते कर्ज के कारण कम बचत कर पा रहे हैं। देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नीचे के 20 फीसदी परिवार लगभग 80 फीसदी रकम खाने-पीने, ईंधन, बिजली और कपड़े पर खर्च करते हैं। इस समस्या का समाधान समावेशी वृद्धि में ही है।

यह स्तंभ मैं रवींद्रनाथ ठाकुर की एक कविता में दिए गए किस्से के साथ खत्म कर रहा हूं। नंगे पांव चल रहे एक राजा की इच्छा थी कि रास्ते की धूल उनके पांवों पर नहीं लगे। लेकिन ऐसा हो कैसे? पहले सफाई कर्मचारियों ने सड़क साफ की मगर धूल उड़ने से राजा बीमार पड़ गया। इसके बाद कसाइयों ने गाय-बकरी मारनी शुरू कर दीं ताकि पूरी सड़क ढकने के लिए चमड़ा मिल जाए मगर यह तरकीब भी नाकाम रही। आखिरकार राजा के दरबार में एक मोची आया और राजा के पांव का नाप लेकर एक जोड़ी चप्पल बना दी। समस्या हल हो गई। हमें पता है कि क्या करना चाहिए। तो क्या हमें गलत दिशा में निशाना लगाना बंद नहीं करना चाहिए?

First Published : August 19, 2024 | 9:40 PM IST