देशभर में ‘अचानक आने वाली बाढ़’ (फ्लैश फ्लड) के नए खतरे की पहचान एक ताज़ा अध्ययन में हुई है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) गांधीनगर के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में देशभर में फ्लैश फ्लड हॉटस्पॉट्स का मानचित्र तैयार किया गया है। अध्ययन के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में भूमि संरचना जबकि पश्चिमी तट और मध्य भारत में जल प्रवाह से जुड़ी स्थितियाँ इन बाढ़ों को प्रभावित करती हैं। ये रिपोर्ट ‘npj Natural Hazards’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ है और इसमें भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) द्वारा 1981 से 2020 तक दर्ज किए गए तापमान और आपातकालीन घटनाओं के वैश्विक डेटाबेस (EM-DAT) का विश्लेषण किया गया।
शोध के अनुसार, देश में लगभग 75% फ्लैश फ्लड ऐसी स्थितियों में होती हैं, जब हाल ही में भारी और लगातार बारिश के कारण जमीन पहले से ही गीली होती है। वहीं, शेष 25% घटनाएं केवल अत्यधिक बारिश की वजह से होती हैं। IMD के अनुसार, फ्लैश फ्लड एक अत्यधिक स्थानीय घटना होती है, जिसमें बारिश शुरू होने से लेकर जलप्रवाह चरम पर पहुंचने तक आमतौर पर छह घंटे से भी कम समय लगता है।
रिसर्च रिपोर्ट में क्या कहा गया है:
IIT गांधीनगर के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में फ्लैश फ्लड की संवेदनशीलता को बेहतर समझने के लिए भू-आकृतिक (Geomorphological) और जल-वैज्ञानिक (Hydrological) कारकों को एक साथ शामिल करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। अध्ययन के अनुसार, हिमालय क्षेत्र के उप-बेसिन फ्लैश फ्लड के लिए मुख्यतः भू-आकृतिक विशेषताओं से प्रभावित होते हैं, जबकि मध्य भारत और पश्चिमी तट पर स्थित क्षेत्र ‘फ्लैशिनेस इंडेक्स’ यानी जलप्रवाह की तीव्रता से अधिक प्रभावित होते हैं।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि छोटे और बड़े दोनों प्रकार के उप-बेसिन फ्लैश फ्लड के लिए संवेदनशील हो सकते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि बेसिन का आकार नहीं बल्कि उसमें मौजूद भू-आकृतिक और जल-वैज्ञानिक कारकों का सम्मिलन ही जोखिम तय करता है।
भारत में अधिकांश फ्लैश फ्लड्स अत्यधिक वर्षा के 18 घंटे के भीतर होती हैं।
लेकिन केवल एक-चौथाई घटनाएं सीधे-सीधे अत्यधिक वर्षा के कारण होती हैं।
गीली मिट्टी और लगातार कई दिनों तक हल्की बारिश भी फ्लैश फ्लड को ट्रिगर कर सकती है।
बदलती जलवायु के कारण अब वे उप-बेसिन भी जोखिम में आ सकते हैं जो पहले फ्लैश फ्लड की दृष्टि से असुरक्षित नहीं माने जाते थे।
हिमालयी क्षेत्र में भू-आकृतिक कारकों के चलते फ्लैश फ्लड्स की घटनाएं अधिक होती हैं।
पश्चिमी तट और मध्य भारत में जल प्रवाह की तीव्रता (फ्लैशिनेस) एक मुख्य कारक है।
अत्यधिक वर्षा अब उन नदी बेसिनों में भी देखी जा रही है जो पहले फ्लैश फ्लड के लिए संवेदनशील नहीं माने जाते थे
इससे संकेत मिलता है कि जलवायु परिवर्तन के चलते भविष्य में नए फ्लैश फ्लड हॉटस्पॉट्स उभर सकते हैं।
हालिया घटना: उत्तरकाशी में बादल फटा, 4 की मौत, 50 से ज्यादा लापता
मंगलवार, 5 अगस्त को उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के धाराली क्षेत्र में बादल फटने से अचानक बाढ़ आ गई। इस आपदा में कम से कम चार लोगों की मौत हो गई है और लगभग 130 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। आधे से ज्यादा ऊँचाई पर बसे गाँव इससे प्रभावित हुए हैं। बचाव कार्य ज़ोर-शोर से जारी है।
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय क्षेत्र में बादल फटने, अत्यधिक वर्षा, फ्लैश फ्लड और हिमस्खलन जैसी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में वृद्धि हो रही है। अध्ययन इस बढ़ते खतरे की ओर स्पष्ट इशारा करता है। IIT गांधीनगर का यह अध्ययन न केवल मौजूदा खतरे को रेखांकित करता है, बल्कि भविष्य में संभावित नई चुनौतियों के लिए भी चेतावनी देता है। सरकार और प्रशासन के लिए यह ज़रूरी है कि समय रहते पूर्वानुमान, बाढ़-प्रबंधन और आपदा-नियंत्रण की रणनीतियाँ तैयार की जाएं।
IIT गांधीनगर के शोधकर्ताओं के प्रबंधन और तैयारी के सुझाव:
शोधकर्ताओं ने क्षेत्रीय टोपोग्राफी और मृदा स्थितियों के आधार पर क्षेत्र-विशिष्ट अनुकूलन रणनीतियों को अपनाने की सलाह दी है। यह बताया गया है कि सभी भारी बारिश की घटनाएं फ्लैश फ्लड का कारण नहीं बनतीं, इसलिए सब-बेसिन स्तर पर जोखिम का आकलन आवश्यक है।
उभरते फ्लैश फ्लड हॉटस्पॉट्स की पहचान
जलवायु-लचीला बुनियादी ढांचे का विकास
बाढ़ नीतियों की पुनर्रचना
पूर्व चेतावनी प्रणाली और सामुदायिक जागरूकता को मजबूत करना
शहरी नियोजन और भूमि उपयोग पर विशेष ध्यान देना
शोधकर्ताओं का कहना है कि बढ़ते तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न के चलते फ्लैश फ्लड का खतरा भविष्य में और बढ़ सकता है। इसीलिए, समय रहते तैयारी और योजना बनाना ज़रूरी है ताकि जानमाल की हानि को रोका जा सके।