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Faiz Ahmad Faiz 40th Death Anniversary : संघर्ष के सौंदर्य से ओत-प्रोत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी में एक ऐसी लय है जो सुनने वालों को बांध लेती है।

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अजीत कुमार   
Last Updated- November 20, 2024 | 10:36 AM IST

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़  की पुण्यतिथि (20 नवंबर) पर विशेष

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) पर लिखने की मेरी कोई हैसियत नहीं। लेकिन फिर भी एक पाठक के तौर पर उन्हें समझने की जिझासा हमेशा रही। बेशक फ़ैज़ अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय शायर रहे। लेकिन लोकप्रियता से इतर ज़ेहन में यह सवाल भी रहा कि आखिर उनकी शायरी में वह कौन सी चीज़ है जो उन्हें लोकप्रिय होने के साथ साथ बड़ा बनाती है।

आज के दौर में फ़ैज़ की शायरी का मतलब है विरोध की आवाज़। चाहे व्यवस्था से कैसी भी शिकायत हो आप उनकी शायरी का इस्तेमाल करते हैं। बगैर यह समझे कि आपके विरोध का मकसद समाज की बेहतरी से है भी या नहीं। या आपके अलगाव की शक्ल बेहद प्रतिक्रियावादी तो नहीं है। वहीं परस्तारों की ऐसी फ़ौज भी है जिनके लिए फ़ैज़ की राजनीतिक प्रतिबद्धता ही काफ़ी है।

मानवता के पक्षधर फ़ैज़ नि:संदेह तरक़्क़ीपसंद हैं जो हमेशा अन्याय और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं। यह आवाज़ शायर की आवाज़ तो है ही शायरी की भी है और यही आवाज़ जब सफ़र पर निकलती है तो अवाम की आवाज़ हो जाती है। फ़ैज़ की इंक़लाबी शायरी जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित है जो इंसान के दुख-दर्द, संघर्ष, त्रासदी और ख़ौफ़ के अंधेरों पर कहकशां का अहसास कराती है। उसमें प्रेम की सघन अनुभूतियां भी हैं। वे इश्क़ को यार/मा’शूक़ा की गलियों से निकालकर वतन, अवाम और इन्क़लाब की गलियों तक फैला देते हैं। वह कहते हैं-

मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

अपनी कई नज्मों में इन दोनों (ग़म-ए-जानां, ग़म-ए-दौरां) रंगों को एक साथ रखकर फ़ैज़ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को ज़ाहिर करते हैं। मसलन उनकी बेहद लोकप्रिय नज़्म – मुझसे पहली सी मेरी मुहब्बत न मांग…। लेकिन ये रंग एक दूसरे से अलहदा/जुदा नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। फ़ैज़ की शायरी का यही सौन्दर्य उन्हें बड़ा शायर बनाती है। अशोक वाजपेयी के मुताबिक फ़ैज़ की कविता में संघर्ष का सौन्दर्य और सौन्दर्य का संघर्ष हमेशा घुले-मिले मिलते हैं।

उनकी और भी इस तरह की नज्में हैं :
दो इश्क़
ताज़ा हैं अभी याद में ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम
वो अक्स-ए-रुख़-ए-यार से लहके हुए अय्याम…

इस नज्म का अंत फ़ैज़ जिस तरह से करते हैं उस पर ग़ौर कीजिए :
इस इश्क़ न उस इश्क़ पे नादिम है मगर दिल
हर दाग़ है इस दिल में ब-जुज़-दाग़-ए-नदामत 

मौज़ू-ए-सुख़न
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
और मुश्ताक़ निगाहों की सुनी जाएगी…

रक़ीब से !
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था…

उनके यहां दुख और उदासी के मंज़र भी दिखाई देते हैं। लेकिन यही उदासी की लय संघर्ष की उंगली पकड़कर जिंदगी के उजालों तक भी ले जाती है। संघर्ष और मानव-भविष्य में आस्था के दामन को फ़ैज़ कभी नहीं छोडते। फ़ैज़ अपनी नज़्म – निसार मैं तेरी गलियों … में कहते हैं –

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उन की रस्म नई है न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हम ने आग में फूल
न उन की हार नई है न अपनी जीत नई …

टूटी हुई तमन्नाओं की टीस और आगे संघर्ष जारी रखने का हौसला – ये दोनों तत्व फ़ैज़ की शायरी के प्राण हैं। उनकी ऐसी नज़्मों या ग़ज़लों को सुनकर या पढ़कर कोई विरक्त नहीं रह सकता। तुरंत ही ये पंक्तियां अनुगूंज पैदा करती है, लोग इन्हें गुनगुनाने लगते हैं और एक सामूहिक लय में वे बंध जाते हैं।

फ़ैज़ उम्मीदों के शायर हैं, संघर्ष में उनका यक़ीन मुकम्मल है और भविष्य की आहटों को वे सुन सकते हैं। संभवत: इसीलिए वे आह्वान करते हैं –

तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जाएगा…

जो लोग उनकी प्रगतिशील चेतना और प्रतिबद्धता की दुहाई देते नहीं थकते, वे रूमानियत के जरिए उभरते हुए यथार्थ, सामाजिक सत्य के महत्व को तो स्वीकार करते हैं किन्तु इसकी गहन अनुभूतियों की स्वायत्तता को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। यह समझने में भूल नहीं करना चाहिए कि इसी रूमानियत की वजह से फ़ैज़ की शायरी में एक ऐसी लय है जो सुनने वालों को बांध लेती है। अन्य बड़े शायरों की तरह उनकी शायरी की इंफ़िरादियत (तग़ज़्ज़ुल) या कहें उनकी शायरी में जो कैफ़ियत उभरता है उनके उन्हीं अहसासातों की तर्ज़-ए-बयानी है जिनसे वह रचना प्रक्रिया के दौरान या उससे पहले गुजरते हैं।

तसव्वुर के अनपहचाने क्षेत्रों में निकल पड़ने की लालसा फ़ैज़ को अनेकों अजब अहसास से भर देती है। उनकी नज़्मों में ऐसे मंज़र जगह जगह दिखाई पडते हैं। शायरी में यदि सचमुच ही कोई चुम्बकीय आकर्षण होता है तो वह इसी कारण होता है। इस नज़्म को इसी नज़रिये से देखना चाहिए:

इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज, न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचों पे किसी हुस्न की चिलमन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा

मुमकिन है कोई वहम था, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा

इक बैर न इक मेहर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना, न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त कड़ी है
लेकिन मिरे दिल ये तो फ़क़त इक ही घड़ी है
हिम्मत करो जीने को तो इक उम्र पड़ी है

इस पूरी नज़्म में फ़ैज़ मानो तज़बज़ुब, असमंजस में पड़े हों। एकांत की एक घड़ी का यह एक ऐसा वीरानापन है, जहां कोई भेद नहीं कोई अलगाव नहीं। यहां फ़ैज़ अरूप अहसासात की दुनिया में पहुंच गए हैं। ऐसे इंतिहाई अहसासात और ख़यालात जब फ़ैज़ की शायरी में उतरते हैं तो आप महसूस कर सकते हैं कि कैसी कैफ़ियत पैदा हो जाती है। प्रसिद्ध आलोचक शमीम हनफ़ी के मुताबिक सच्चाई की व्याख्या का एक रास्ता अहसास से भी होकर गुजरता है। अरुण कमल को यही चीज़ लुभाती है जब वे कहते हैं कि फ़ैज़ की शायरी हम बहुत ही एकांत के क्षणों में भी गा सकते हैं। इस अहसास की अभिव्यक्ति को वे शायरी का काफी आगे बढ़ा हुआ रूप कहते हैं।

फ़ैज़ की चिंताओं की शक्ल कुछ ऐसी ही है। ज़िंदगी की भंवर में फंसा हुआ, आत्मसंघर्ष (राजनीतिक संघर्ष भी इसी में शामिल है) के दंश झेलता हुआ फ़ैज़ का व्यक्तित्व कुछ अनपहचाने अहसासात के बवंडर से हमेशा दो चार होता है।

फ़ैज़ की आशा और निराशा, यथार्थ और स्वप्न, युद्ध और शांति, कल्पना और अनुभूति के प्रगाढ़ रंगों में डूबा हुआ बीसवीं सदी का ऐतिहासिक द्वंद्व अनेक शक्लों में बार-बार उभरता है। विरासत और हक़ीक़त – इन दोनों से रूबरू फ़ैज़ की शायरी जन-जन की आत्मा में बस जाती है, उसके संघर्षशील अस्तित्व का हिस्सा बन जाती है।

कर रहा था ग़म-ए-जहां का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए 

 
First Published : November 20, 2023 | 5:01 PM IST