विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के लिए नियमन की व्यवस्था भारतीय पूंजी बाजार की बाहरी दुनिया के लिए एक खिड़की की तरह है।
ठीक उसी तरह जैसे किसी भी मकान की बाहरी खिड़की उस घर की स्थिति को बयां करती है। यह बात कुछ उसी तरह की है कि लिफाफा देख कर बता देते हैं कि खत का मजमून क्या है?
विदेशी संस्थागत निवेशकों के लिए नियामक की व्यवस्था बहुत ही खराब स्थिति में है। अघोषित नीतियों में तमाम तरह की अड़चनें हैं। और कानून प्रशासन के बारे में कुछ भी पहले से नहीं कहा जा सकता। कई बार नीतियों को बनाने की शुरुआत तो की गई लेकिन इसको लेकर बाद में गंभीरता नहीं दिखाई गई। इसका नतीजा यह है कि अभी तक पूंजी बाजार के मुताबिक कदम नहीं उठाए गए हैं।
भारतीय रुपया कैपिटल एकाउंट में परिवर्तनीय नहीं है और भारत अभी भी विनिमय नियंत्रण वाली स्थिति में है। भारत सरकार और रिजर्व बैंक इसकी निगरानी करते हैं। भारत से बाहर रहने वाले सारे व्यक्तियों को भी भारतीय शेयर बाजार में ट्रेड करने के लिए पूर्ण रूप से अनुमति नहीं मिली हुई है। केवल विदेशी संस्थागत निवेशकों को अपनी मर्जी से शेयर बाजार में पैसा लगाने और उसको बाहर कहीं भी ले जाने की अनुमति है।
एफआईआई के लिए किसी भी भारतीय कंपनी में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी होना जरूरी है। हर क्षेत्र जितने विदेशी निवेश की सरकार की ओर से मंजूरी है उतना निवेश लगभग प्रत्येक क्षेत्र में विदेशी निवेशकों ने किया भी है।भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को विदेशी संस्थागत निवेशकों को पंजीकृत करने और नियंत्रित करने के लिए अधिकृत किया गया है।
सेबी ने विदेशी संस्थागत निवेशकों के लिए 1995 में सबसे पहले कानून बनाया था जो उसी साल लागू भी किया गया था। इसके बाद से विदेशी संस्थागत निवेशकों के जरिये निवेश भी काफी हुआ है। तब से लेकर अब तक कई परिवर्तन आए हैं और विकास की दिशा भी तेज हुई इसके बावजूद भी इस कानून में मामूली से फेरबदल हुए हैं। और इस दौरान जो भी सुधार हुए उनको किसी भी सूरत में पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि ऑफशोर डेरिवेटिव इंसट्रूमेंट्स (ओडीआई )और पार्टिसिपेटरी नोट्स जैसे शब्दों से परिचित होने में कई साल लग गए। एक बात जरूर है कि एफआईआई को लेकर बनाए गए कानून नियंत्रक के लिए सुविधाजनक होते हैं।वैसे समय के साथ सेबी के अंदर भी आंतरिक नीति का विकास हुआ है लेकिन इसमें भी थोड़े-थोड़े अंतराल पर ही कुछ हुआ है।
मसलन सेबी का निर्णय कि स्टोक ब्रोकर फर्म को एफआईआई की तरह पंजीकरण के बिना ही मान्यता देने के फैसले को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। इस तरह जिस निवेशक को हेज फंड के रूप में मान्यता दी जाएगी उसको विदेशी संस्थागत निवेश के बतौर पंजीकृत नहीं किया जा सकता। वैसे एफएफआई रेग्युलेशन इस तरह की वरीयता और अयोग्यता को उपलब्ध नहीं करा पाता।
हाल ही में विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को एफआईआई के नाम से पंजीकृत करने के खिलाफ आवाजें तो उठने लगी हैं , लेकिन अभी इन्हें कानूनी जामा नहीं पहनाया गया है। एफआईआई से संबंधित कानून विदेशी संस्थाओं को एफआईआई के रूप में पंजीकृत होने की सुविधा देते हैं। लेकिन भारतीय नियामक संस्था सेबी के पास संस्थाओं के पंजीकरण के अधिकार नहीं है।
फिर भी एफआईआई के कानूनों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। इस बात को साबित करने के लिए बहुत से उदाहरण मौजूद हैं। पिछले साल ही सेबी के निदेशक मंडल ने विचार विमर्श करने के बाद ओडीआई की नीति में संशोधन किया और कानून में जरूरी फेरबदल भी किए थे। इसके तहत सेबी ने एफआईआई को ऐसे इन्स्ट्रूमेंट्स की आपूर्ति कम करने के निर्देश दिए थे।
सेबी के निर्देशों के मुताबिक किसी भी एफआईआई को उसके भारत में निवेश के अनुपात में ही इन इन्स्ट्रूमेंट्स की आपूर्ति की जाएगी। सेबी के परामर्शक पत्र को मिले प्रतिक्षेप से सेबी का ध्यान इस नीति की जटिलताओं की तरफ गया और सेबी ने पंजीकरण की प्रक्रिया को और ज्यादा सरल बनाने के लिए कई कदम भी उठाए। हालांकि 6 महीनें बाद भी एफआईआई रेग्युलेशंस के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं की गई।
उदाहरण के तौर पर पिछले साल नीति में किए गए बदलावों के लिए पंजीकृत होने वाले किसी भी व्यक्ति का कोई भी निजी निवेशक हो सकता है जिसकी उस फंड में 49 फीसदी तक की भागीदारी हो। ब्रॉड बेस्ड फंड के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए एफआईआई के नियम किसी भी निवेशक को उसके फंड में सबसे ज्यादा लगभग 10 फीसदी तक का मालिकाना हक देते हैं।