आय कर विभाग ने विदेशी कंपनियों से अनुबंध करने और अंतरराष्ट्रीय लेन-देन के लिए एक विशेष विभाग बनाया है।
इस विभाग में ट्रांसफर प्राइसिंग ऑफिसर (टीपीओज) स्तर के अधिकारी नियुक्त होंगे, जो ट्रांसफर प्राइस पर निर्णय लेने के लिए अधिकृत होंगे। यदि कोइ अधिकारी किसी भी भारतीय कंपनी के विदेशी कंपनी के साथ लेद-देन मार्जिन और लाभ को लेकर संतुष्ट नहीं होंगे, इस स्थिति में ये अधिकारी भारतीय कंपनी की करयोग्य आय में समन्वय कर सकते हैं।
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के 20 मई 2003 के अनुदेश संख्या 32003 के अनुसार यदि अंतरराष्ट्रीय लेन-देन 5 करोड़ रुपये से अधिक का है तो इस स्थिति में किसी भी एस्सेसिंग ऑफिसर के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह ट्रांसफर प्राइसिंग मामले को टीपीओ के हवाले कर दे। यदि मामला टीपीओ को नहीं सौंपा जाता, तब इस स्थिति में कानून की दृष्टि से एसेसमेंट बुरा माना जाएगा।
ट्रांसफर प्राइसिंग प्रावधान भारतीय कंपनियों के विदेशी कंपनियों के साथ लेन-देन, मार्जिन और लाभ को रेग्युलेट करने के उद्देश्य के साथ बनाए गये हैं। यह कानून कहता है कि विदेशों से होने वाला लेन-देन ‘आर्म्स लेंग्थ प्राइस’ (एएलपी) पर होना चाहिए।
(आर्म्स लेंग्थ प्राइस वह कीमत होती है जिसमें दो अलग-अलग कंपनियां लेन-देन की रकम पर उम्मीद के साथ सहमत होती हैं) इस उद्देश्य के लिए भारतीय कंपनी के मार्जिन की समान लेन-देन पर दूसरी कंपनी द्वारा लगाए गए मार्जिन के साथ तुलना करने की आवश्यकता होती है।
एक भारतीय करदाता के पास विकल्प है कि वह अपने आप को या अपने सहयोगी उद्यम को ‘टेस्टेड पाटी’ घोषित कर सकता है। ‘टेस्टेड पार्टी’ से मतलब है कि भारतीय कंपनी ने किसके साथ अंतरराष्ट्रीय लेन-देन किया है। इसके बाद, एएलपी को निश्चित करने के क्रम में, टेस्टेड पार्टी के मार्जिन की उसी व्यापार में शामिल दूसरी कंपनी के मार्जिन से तुलना की जाती है।
रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज बनाम एडीडीएल सीआईटी (2008) मामले में, भारतीय कंपनी ने अपनी 17 सहयोगी कंपनियों को टेस्टेड पार्टी घोषित कर दिया था। तब इन 17 कंपनियों के औसत मार्जिन की कुछ अन्य विदेशी फार्मास्युटिकल्स कंपनियों के साथ तुलना की गई थी।
ट्राइब्यूनल का मानना है कि ट्रांसफर प्राइसिंग विनियमन के लिए विदेशों में बसी सहयोगी कंपनियों का भारतीय करदाता द्वारा चयन गलत है। यदि कोई करदाता विदेश में बसी किसी सहयोगी कंपनी को टेस्टेड पार्टी बनाना चाहता है और मार्जिन की विदेशी कंपनियों के साथ तुलना करना चाहता है। इस स्थिति में यह सुनिश्चित होना चाहिए कि संबंधित कंपनी तुलना के लिए प्रासंगिक डाटा उपलब्ध करा पाए।
ट्राइब्यूनल ने यह भी कहा है कि यदि कंपनियां अलग-अलग देशों में हैं तो अलग-अलग लेन-देन को कुल औसत के रूप में नहीं जोड़ना चाहिए। ट्राइब्यूनल ने ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) मॉडल पर भी जोर दिया है, जिसमें लगातार लेन-देन से एएलपी के निर्धारण को वरीयता दी जाती है।
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि रैनबैक्सी ने जो ऑडिट रिपोर्ट दी थी वह अधूरी थी। इसमें कई बातें नदारद थीं। इसमें 17 सहयोगी कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय लेन-देन का विशेष ब्यौरा भी नहीं था और विदेशी कंपनियों का तुलनात्मक कंपनियों के रूप में भी ब्यौरा नहीं था।
इन सभी की गैरमौजूदगी में कंपनी द्वारा तय एएलपी को मान्य नहीं ठहराया गया था। रैनबैक्सी का मामला न्यायालय के विचाराधीन पड़ा रहा जब तक कंपनी द्वारा एस्सेसिंग ऑफिसर को इसकी जांच के लिए जरूरी दस्तावेज मुहैया नहीं कराए गए।
इसमें एस्सेसिंग ऑफिसर द्वारा जो आंकलन किया गया वो अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अवैध भी हो सकता है और उसको दोबारा खोला भी जा सकता है। इसमें स्पष्ट है कि किसी भी चार्टेड एकाउंटेंट का सर्टिफिकेट पर्याप्त नहीं है। इससे एक और संदेश जाता है कि तुलना के उद्देश्य के लिए किसी भी विदेशी कंपनी के डाटा को भारत में स्वीकार्यता शायद न मिले।