facebookmetapixel
सुप्रीम कोर्ट ने कहा: बिहार में मतदाता सूची SIR में आधार को 12वें दस्तावेज के रूप में करें शामिलउत्तर प्रदेश में पहली बार ट्रांसमिशन चार्ज प्रति मेगावॉट/माह तय, ओपन एक्सेस उपभोक्ता को 26 पैसे/यूनिट देंगेबिज़नेस स्टैंडर्ड के साथ इंटरव्यू में बोले CM विष्णु देव साय: नई औद्योगिक नीति बदल रही छत्तीसगढ़ की तस्वीर22 सितंबर से नई GST दर लागू होने के बाद कम प्रीमियम में जीवन और स्वास्थ्य बीमा खरीदना होगा आसानNepal Protests: सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ नेपाल में भारी बवाल, 14 की मौत; गृह मंत्री ने छोड़ा पदBond Yield: बैंकों ने RBI से सरकारी बॉन्ड नीलामी मार्च तक बढ़ाने की मांग कीGST दरों में कटौती लागू करने पर मंथन, इंटर-मिनिस्ट्रियल मीटिंग में ITC और इनवर्टेड ड्यूटी पर चर्चाGST दरों में बदलाव से ऐमजॉन को ग्रेट इंडियन फेस्टिवल सेल में बंपर बिक्री की उम्मीदNDA सांसदों से PM मोदी का आह्वान: सांसद स्वदेशी मेले आयोजित करें, ‘मेड इन इंडिया’ को जन आंदोलन बनाएंBRICS शिखर सम्मेलन में बोले जयशंकर: व्यापार बाधाएं हटें, आर्थिक प्रणाली हो निष्पक्ष; पारदर्शी नीति जरूरी

आर्थिक एक्सप्रेस को मिले रफ्तार

Last Updated- December 07, 2022 | 2:46 PM IST

भारत के इतिहास में 22 जुलाई 2008 का दिन काफी महत्वपूर्ण हो गया। उस दिन मनमोहन सिंह की सरकार ने विश्वास मत हासिल किया, वहीं स्टॉक मार्केट भी अच्छी उछाल लेकर बंद हुआ।


उस दिन तो तेल की कीमतें भी थोड़ी कम हुई और इससे भारतीय कंपनियों में थोड़ी खुशी की लहर दौड़ गई। इस दिन का महत्व इस मायने में भी अहम हो गया कि अब सरकार को आर्थिक सुधारों की गाड़ी दौड़ाने में भी कोई मुश्किल नहीं आएगी, क्योंकि वाम दलों से उसका पाला जो छूट गया है। वाम दलों के सरकार से हट जाने के बाद वित्तीय बिल को हरी झंडी मिलने की संभावना बलवती हो गई है।

अब जब वामदलों के रुप में सरकार की एक बड़ी अड़चन खत्म हो गई है, उसे कई सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इन सुधारों में पेंशन कोष विनियामक प्राधिकरण कानून (पीएफआरडीए) और बहुत सारी बैंकिंग सुधार पर सरकार को बहुत कुछ करना चाहिए। पीएफआरडीए के तहत इस बात की जरूरत है कि नई पेंशन योजना को इस तरह से लागू किया जाए ताकि वृद्धों को सुरक्षा प्रदान की जा सके।

अभी जो पेंशन को लेकर हमारे यहां तंत्र मौजूद है, उसके तहत केवल संगठित क्षेत्र और सरकारी कर्मचारियों को ही शामिल किया जाता है। वर्तमान तंत्र में पोर्टेबलिटी की कमी है और यह कुछ ही सरकारी सिक्योरिटीज में निवेश की अनुमति देता है। लेकिन एक बात है कि इस तंत्र में रिटर्न की गारंटी होती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर यह तंत्र सटीक होता, तो वैद्यानिक प्राधिकार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन घाटे में नहीं जाती।

जबकि कर्मचारी भविष्य निधि संगठन लो-रिटर्न बाजार में अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर वसूल करता है। इसमें सरकारी सिक्योरिटीज और पीएसयू बॉन्डों में  सटीक निवेश पैटर्न की भी व्यवस्था है। ऐतिहासिक तौर पर देखें, तो ईपीएफओ में सरकारी यूनियनबाजी का भी दबदबा रहा, इसमें प्रगतिशील संरचना में ढ़लने की भी क्षमता नहीं दिखी, इसके बावजूद सरकार ने इसके बदले किसी और विकल्पों पर सोचने की जेहमत नहीं उठाई। लेकिन इसमें भी जो कुछ सकारात्मकता है वह है कि जितनी भी रकम ली जाती है, उसपर लाभ गारंटी मिलता है।

इसके अलावा सेवा की अवधि में सरकारी कर्मचारियों को बिना किसी योगदान के या प्रत्यक्ष जोखिम के लाभ की गुंजाइश बनी रहती है। वैसे अगर प्रक्रियाओं में देरी को कुछ देर तक अगर टाल भी दें, तो उक्त बातें सकारात्मक श्रेणी में तो रखा ही जा सकता है। इस मामले में अगर ईपीएफओ घाटे में जाती है, तो इससे घाटा अंतत: सरकार को ही उठाना है। नई पेंशन स्कीम में इस बात की आवश्यकता है कि किसी खास व्यक्ति की मासिक आय में से समानुपातिक रूप से कुछ रकम इस फंड में जमा करवाया जाएगा।

कर्मचारियों के पास यह विकल्प होगा कि वे म्युचुअल फंड, शेयर और अन्य बाजार सिक्योरिटी में से किसी एक में निवेश कर सकते हैं। जब इस निवेश की प्रक्रिया से बाहर होने की बात होगी, तो इन्हें खरीदने की रकम काटकर बाकी राशि कर्मचारियों को लौटा दी जाएगी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें सारा जोखिम कर्मचारियों को स्वयं उठाना होगा। इस पूरी प्रक्रिया में हर कोई एक बात तो देख ही सकता है कि किस प्रकार कोई कर्मचारी शत प्रतिशत आरामदायक जोन से बाहर होकर ज्यादा रिटर्न पाने के लिए जोखिमों को गले लगा रहा है।

वैसे इससे पहले वाली योजना के तहत सरकार को तो घाटा हो रहा था, लेकिन कर्मचारियों को राहत मिली हुई थी। अब नई नीति के मुताबिक सरकार को फायदा कहां तक होगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन कर्मचारियों की जोखिमों में तो इससे इजाफा जरूर होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। अब इस बात की पड़ताल करना जरूरी है कि बुजुर्गों की एक पूरी बिरादरी के पसीने की कमाई के कुछ अंश को निजी कंपनियों के हाथों रखा जाएगा और इक्विटी के जरिये उनकी पूरी जिंदगी की कमाई का हिसाब लगाकर उनकी बची खुची जिंदगी का भविष्य तय किया जाएगा।

इस संबंध में वाम दलों ने जो मांग की थी वह थी कि शत प्रतिशत फंड को सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश किया जाए, एक अवास्तविक गारंटी रिटर्न,  सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की नियुक्ति बतौर फंड मैनेजर किया जाए,  योगदान तंत्र को पूरी तरह से परिभाषित किया जाए और 26 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को किसी भी तरह रोका जाए। हालांकि ये जितनी भी मांगे थी, उससे कोई निर्माणात्मक बात की गुंजाइश नही नजर आ रही थी। इस पूरे प्रक्रम में जो एक बात नहीं आ रही थी, वह थी कि आम आदमी है कौन?

दूसरा सवाल यह उठ रहा था कि इक्विटी के जरिये किस प्रकार का रिटर्न संभव हो पाएगा और इससे वह आम आदमी कैसे लाभान्वित हो पाएगा। क्या अभी के समय में आम आदमी को अपेक्षित प्रतिनिधित्व मिल रहा है ? अभी ईपीएफओ के तहत जिसमें लोक भविष्य निधि भी शामिल है, में 90 प्रतिशत लोगों की भागीदारी नहीं है। हालांकि इस सुविधा की व्यवस्था सबों के लिए की गई है। अगर संयुक्त परिवार की संरचना का विरोध भी करें, तो भी ईपीएफओ ने समस्या को सुलझाने के बजाय, जो मिला सही है, के आधार पर ही काम चलाती रही।

वैसे इससे जुड़ी समस्याओं की पहले पहल व्याख्या 2002-03 में की गई थी, जब पीएफआरडीए की अंतरिम रिपोर्ट और नई पेंशन स्कीम को कार्यक्रम के तौर पर लाने की बात की जा रही थी। वैसे इसमें एक बात की और चर्चा की गई थी कि कम जोखिम कम निवेश में भी सुधार करने की जरूरत है। 2004 को इस संबंध में आया हुआ ऑर्डिनेंस खत्म हो गया। और तो और 2005 तक पीएफआरडीए बिल भी इस दरम्यान संसद में झूलता ही रहा।

वैसे एक बात से खुश तो हुआ जा सकता है कि इन सबको लेकर पहल तो हो ही रही थी। इसमें कुछ और मानदंडों को भी लागू किया गया, जिसके तहत मां-बाप के साथ बच्चों के भी देखभाल की बात इसमें की गई थी। वैसे संगठित प्रणाली के तहत यह बात किसी विकल्प के तौर पर नहीं देखी जाती है। किसी भी तरह के बड़े और जटिल सुधारों से आदमी की संवेदनाएं प्रभावित होती है। लोग कभी कभी इस तरह के सुधारों से काफी उम्मीद भी लगा बैठते हैं। पीएफआरडीए और नई पेंशन योजना से जुड़ी बातों को लेकर सरकार के अंदर और बाहर भी काफी हंगामा मचा और वाम दलों ने तो इसे रोकने के लिए वीटो का भी प्रयोग कर डाला।

इस तरह से विकास करने को बेताब सरकार की पूंछ पकड़ कर वामदलों ने अपनी मनमानी करनी शुरू कर दी। लेकिन संतुलन बनाने के लिए यह जरूरी है कि विनियामक, इंटरमीडियरीज आदि की संरचना और कार्यप्रणाली और उसकी परिसंपत्तियों को लेकर पारदर्शिता लाना जरूरी है। और इस सबसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि बुजुर्गों की जरूरतों के हिसाब से निवेश की प्रक्रिया बनाई जाए और उस बाबत सुविधाओं और उनके भविष्य का ख्याल रखा जाए।

First Published - August 4, 2008 | 1:21 AM IST

संबंधित पोस्ट