आखिरकार, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नए कंपनी विधेयक 2008 को मंजूरी दे दी है। इस विधेयक को संसद में पेश किया जाना है। कानून मंत्रालय की आधिकारिक प्रेस विज्ञप्तियों के आधार पर मीडिया ने इसकी तारीफ ही की है।
हालांकि, इस बात की पूरी संभावना है कि विधेयक जल्द ही कानून का रूप नहीं लेने जा रहा। कानून के बारे में बातें तभी साफ हो पाएंगी जब इसका ड्राफ्ट सामने आएगा और तब ही इसके कुछ प्रावधानों के समर्थन और विरोध में खेमेबंदी का दौर चलेगा। वैसे चुनावी वर्ष में, इस तरह का कानून राजनीतिक दलों के लिए मुफीद साबित नहीं होगा।
नये कंपनी कानून की चर्चा केवल हाल के कुछ वर्षों में ही नहीं हुई है, (इसके लिए ईरानी समिति धन्यवाद की पात्र है) बल्कि 90 के दशक के मध्य में देवेगौड़ा सरकार में भी वित्त मंत्री रहे चिदंबरम के वक्त में भी एक स्पेशल टास्क ने एक नया ड्राफ्ट वित्त मंत्री को सौंपा था। नया कंपनी कानून भी अंग्रेजी राज में मौजूद कानून के आधार पर तैयार किया गया है।
अंग्रेजी राज में मौजूद कानून के कई प्रावधान अभी भी मौजूद हैं जबकि ब्रिटेन में कंपनी कानून को ही बदल दिया गया है। अंग्रेजों के बाद की विरासत की बात करें तो, समाजवादी नीतियों के लंबे दौर में भी इसमें कई चीजें शामिल की गईं। नतीजतन, हमारे पास एक ऐसा पेचीदा कानून है जिसमें 660 से अधिक प्रावधान हैं।
बस, केवल उम्मीद की जा सकती है कि प्रस्तावित कानून में कुछ खास मुद्दों को सुलझाया गया होगा। इसमें एक तो शेयरों के मुक्त स्थानांतरण को रोकने का प्रावधान था जिसका जमकर उल्लंघन किया गया। कंपनी कानून में प्रावधान है कि एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के शेयरों की बेरोकटोक अदला-बदली होगी। इस प्रावधान की व्याख्या में तरह-तरह की बातें सामने आई हैं।
कई लोगों का मानना है कि कि किसी पब्लिक लिमिटेड कंपनी के शेयरों की अनुबंधित रोक को हटाना चाहिए। जिस कंपनी के चार्टर दस्तावेज में शेयरों की अदला बदली पर रोक हो तो कुछ लोग तर्क करते हैं इस तरह की रोक भारतीय कंपनी कानून का मखौल उड़ा रहे हैं और इसको निष्प्रभावी बना रहे हैं। इस स्थिति को स्पष्ट किया जाना बेहद जरूरी है।
संपत्ति के अधिकार के मुताबिक कोई भी व्यक्ति अपनी संपत्ति का कुछ भी कर सकता है, यह उसके विवेक पर निर्भर है। दूसरे, भारतीय कंपनी कानून में इस तरह का प्रावधान भी है जो किसी कंपनी को अपने खुद के शेयर खरीदने से रोकता है। मौजूदा प्रावधानों के चलते किसी कंपनी को खत्म करने या बंद करने की प्रक्रिया बहुत जटिल बनी हुई है।
यहां तक कि जब सारे अंशधारक और लेनदार भी कंपनी को बंद करने पर सहमत हो जाते हैं, बावजूद इसके पूरी प्रक्रिया के संपन्न होने में कई साल लग जाते हैं। सहमति, निपटारे, और कंपनी को बंद करने जैसे कई तरह के मामले अभी भी उच्च न्यायालयों के न्यायिक क्षेत्र में आ रहे हैं जबकि कई साल पहले किए संशोधन के जरिये ऐसे मामलों के लिए विशेष कंपनी कानून ट्राइब्यूनल बनाए गए।
चौथा, ऐसे प्रावधान जो कंपनियों पर बारीक नजर रखते हैं और उनके गवर्नेंस की व्यवस्था करते हैं। इनसे कंपनी लॉ के बारे में एक स्पष्ट पहचान बन जाती है कि वह रेगुलेशन के लिए नियम कानून तो काफी बनाता है पर उन्हें लागू कम ही किया जाता है।
पांचवां, कंपनी कानून के शिल्पकारों ने यह ध्यान में रखा कि इसमें जो प्रावधान किए जाएं वह सिक्योरिटीज से जुड़े कानूनों का मुकाबला कर सकें। कंपनी कानून के तहत असूचीबद्ध कंपनियों को वरीयता के आधार पर आवंटन, स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति से जुड़ा मामले जैसी कई चीजें हैं जिन पर विचार किया जाना है।
कंपनी बिल 2008
कालक्रम
2003
राज्यसभा में कंपनी संशोधन विधेयक पेश। वर्ष 1956 में कंपनी कानून की व्यापक समीक्षा का निर्णय लिया गया।
अगस्त 2004
नये कंपनी कानून से जुड़ा एक अवधारणा पत्र मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला गया।
दिसंबर 2004
कंपनी मामलों के मंत्रालय द्वारा नियुक्त जे जे ईरानी समिति ने कंपनी कानून 1956 की समीक्षा की।
मई 2005
जे जे ईरानी समिति ने अपनी ओर से रिपोर्ट तैयार कर सरकार को समीक्षा के लिए सौंप दी।
अगस्त 2008
कैबिनेट ने संसद में पेश किए जाने के लिए कंपनी विधेयक 2008 को अपनी मंजूरी दे दी।
मुख्य प्रावधान
संयुक्त उपक्रमों को बढ़ावा देना और उन पाबंदियों में ढिलाई जो साझेदार इकाइयों, बैंकिंग कंपनियों में साझेदारों की संख्या को कम रखने का निर्देश देती हैं।
निदेशकों के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का साफ साफ उल्लेख किया गया। हर कंपनी के पास भारत में कम से कम एक रेसीडेंट निदेशक होना चाहिए। जहां जरूरी हो वहां कंपनी के बोर्ड में शामिल कुल निदेशकों में से 33 फीसदी स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति की जाए।
जब तक विशेष कानूनों से छूट नहीं मिली हो तब तक कंपनियां आम लोगों से पैसे की उगाही नहीं कर सकती हैं। अगर कंपनी के निदेशक या केएमपी इनसाइड ट्रेडिंग करते हैं तो इसे कानून का उल्लंघन समझा जाए।
शेयरधारकों के संगठनों या शेयरधारकों के समूहों को यह इजाजत दी जाए कि अगर कंपनी किसी धोखाधड़ी में लिप्त होती है तो वे अपनी ओर से कोई कदम उठा सकें। उन्हें निवेशकों के हितों को ध्यान में रखकर कदम उठाने की छूट हो।
स्त्रोत: सरकारी प्रेस विज्ञप्ति