उच्चतम न्यायालय द्वारा सहकारी समितियों के प्रभावी प्रबंधन और कामकाज से संबंधित 97वें संविधान संशोधन अधिनियम के कुछ प्रावधानों को रद्द करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले के एक दिन बाद भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) ने फैसले पर नाखुशी जताई है। संघ ने उम्मीद जताई है कि नया सहकारिता मंत्रालय कोई राह निकालेगा।
एनसीयूआई यह भी चाहता है कि सहकारिता पर एक राष्ट्रीय नीति बने, जिससे सभी राज्यों के सहकारिता अधिनियमों में एकरूपता सुनिश्चित हो सके और सहकारिता आंदोलन में पारदर्शिता बनी रहे। एनसीयूआई सहकारिता आंदोलन का शीर्ष संगठन है।
उच्च न्यायालय ने कल एक अहम फैसले में 2013 के गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने संवैधानिक संशोधन अधिनियम के कुछ हिस्सों को हटा दिया था। यह संशोधन संसद में दिसंबर 2011 में पारित किया गया था और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में 15 फरवरी, 2012 से प्रभावी हुआ था।
सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को मूल अधिकार बनाया गया था और इसे लेकर राज्यों के कानूनों संबंधी कुछ दिशानिर्देश तैयार किए गए थे, जिससे सहकारी समितियों का संचालन होता है। इसके मुताबिक सहकारी समितियों के अनिवार्य पंजीकरण सहित कुछ विशेषज्ञों को शामिल किया जाना, बोर्ड के सदस्यों की न्यूनतम योग्यता, उनका कार्यकाल तय किया जाना शामिल है।
इन कानूनों को लेकर गुजरात उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर कर चुनौती दी गई कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है। याचियों का मुख्य तर्क यह था कि इस संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों का समर्थन जरूरी है क्योंकि यह राज्य सूची के विषयों पर असर डालता है।
आल इंडिया किसान सभा ने नए सहकारिता मंत्रालय के गठन का विरोध किया है और उसका कहना है कि यह केंद्रीयकरण की ओर बढऩे जैसा है और भारत के संघीय ढांचे को इससे खतरा है। साथ ही भविष्य में देश के सहकारिता आंदोलन पर भी इसका विपरीत असर पड़ेगा।
उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि नए सहकारिता मंत्रालय और राज्य सहकारिता में उसकी भूमिका को लेकर भी स्थिति साफ किए जाने की जरूरत है। बहरहाल एनसीयूआई के पूर्व अध्यक्ष जीएच एमीन ने सुझाव दिया कि मौजूदा सरकार को एक बार फिर कानूनी प्रावधानों के तहत संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया की पहल करनी चाहिए।