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Explainer: यूरोप ने ग्रीन एनर्जी अपनाकर उत्सर्जन में कमी तो लाई, लेकिन क्या अर्थव्यवस्था यह बोझ उठा पा रही है?

यूरोप द्वारा उत्सर्जन कम करने के प्रयास से पर्यावरण को लाभ तो मिला है, लेकिन बढ़ती ऊर्जा लागत, फैक्ट्रियों के बंद होने और राजनीतिक विरोध ने इसपर सवाल भी खड़े कर दिए हैं

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अभिजित कुमार   
Last Updated- December 02, 2025 | 8:56 PM IST

यूरोप ने धरती को बचाने का बीड़ा उठाया था, वो बड़े कॉन्फिडेंस के साथ। ऐसा लगता था कि सिर्फ अच्छा आइडिया ही सारा खर्चा उठा लेगा। सेल्स पिच बहुत सिंपल थी कि साफ आसमान होगा, हरी-भरी नौकरियां और सस्ती बिजली होंगी। सब एक झटके में हो जाएगा। लेकिन कोयले के प्लांट बंद करते-करते और पवन चक्कियों को सब्सिडी देते-देते कहानी उल्टी पड़ गई है। फैक्टरियां हांफने लगीं, बिजली का बिल आसमान छूने लगा और अब पूरा महाद्वीप सोच रहा है कि अर्थव्यवस्था का कितना हिस्सा और कुर्बान करना पड़ेगा।

लगभग 20 साल बाद जब यूरोप ने अपनी एनर्जी सिस्टम की सर्जरी की कोशिश की, नतीजे बहुत उलझे हुए निकले। न्यूज वेबसाइट वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ) की रिपोर्ट के मुताबिक, यूरोप ने दुनिया में सबसे तेज ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती की है। 2005 के मुकाबले 30 फीसदी तक कटौती की गई है। अमेरिका में यह कटौती सिर्फ 17 फीसदी रही। लेकिन इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। बिजली महंगी हो गई, इंडस्ट्री पर दबाव बढ़ा और राजनीतिक तनाव भी बढ़ गया।

यूरोप ने उत्सर्जन तो घटाया, लेकिन बिजली के दाम बढ़ाए

नवीकरणीय ऊर्जा की दौड़ ने उल्टा बिजली के दाम बढ़ा दिए। जर्मनी में घरेलू बिजली के दाम विकसित देशों में सबसे ज्यादा हैं, जबकि ब्रिटेन में इंडस्ट्री को सबसे महंगी बिजली मिल रही है। ये बातें इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने 28 बड़े देशों के तुलनात्मक आंकड़ों में कही है। इटली भी पीछे नहीं है। यूरोपीय संघ की भारी इंडस्ट्री को अमेरिका के मुकाबले दोगुनी और चीन के मुकाबले करीब 50 फीसदी ज्यादा बिजली के पैसे चुकाने पड़ रहे हैं। साथ ही, मौसम पर निर्भर बिजली स्रोतों की वजह से दामों में उतार-चढ़ाव भी बढ़ गया है।

ये सारे दबाव अब यूरोप की अर्थव्यवस्था पर साफ दिख रहे हैं। AI और एडवांस्ड कंप्यूटिंग जैसी बिजली भूखी इंडस्ट्री को लुभाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि उन्हें सस्ती और भरोसेमंद बिजली चाहिए। ऊपर से आम घरों का लिविंग कॉस्ट भी बढ़ रहा है।

यूरोप में इंडस्ट्री क्यों पीछे हट रही है और बिजली की किल्लत क्यों बढ़ रही है?

हालांकि पूरी महाद्वीप की कहानी एक जैसी नहीं है। स्पेन को धूप का फायदा मिलता है, नॉर्डिक देश हाइड्रोपावर से ग्रिड को संभाल लेते हैं। फ्रांस के न्यूक्लियर प्लांट की वजह से वहां दाम अभी भी कम हैं। लेकिन बाकी ज्यादातर जगहों पर दबाव साफ दिख रहा है।

अक्टूबर में ब्रिटिश केमिकल कंपनी इनियोस ने पश्चिमी जर्मनी में अपने दो प्लांट बंद करने का ऐलान किया, जिसकी मुख्य वजह थी ऊंची बिजली कीमतें। कुछ दिन पहले एक्सॉनमोबिल ने स्कॉटलैंड में अपना केमिकल प्लांट बंद करने और यूरोप के केमिकल सेक्टर से बड़े पैमाने पर बाहर निकलने की धमकी दी। उन्होंने इसके लिए ग्रीन पॉलिसी को जिम्मेवार ठहराया, जिन्होंने प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर दिया।

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पिछले 15 सालों में यूरोप में बिजली की मांग घटी है, वजह सिर्फ एक है कि बिजली बहुत महंगी हो गई। दूसरी तरफ सप्लाई की दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं।

आयरलैंड के ग्रिड ऑपरेटर ने नए डेटा सेंटर की मंजूरी 2028 तक रोक दी है, क्योंकि पिछले साल डेटा सेंटरों ने देश की कुल बिजली का 20 फीसदी से ज्यादा खा लिया।

क्या फॉसिल फ्यूल को पूरी तरह हटाने की रणनीति गलत साबित हो रही है?

अमेरिका, चीन, भारत और ब्राजील जहां नई रिन्यूएबल एनर्जी जोड़ते हुए फॉसिल फ्यूल प्लांट भी बना रहे हैं, वहीं यूरोप ने सिर्फ “या तो हां या तो न” वाला रास्ता चुना। हाई कार्बन टैक्स, रिन्यूएबल सब्सिडी और फॉसिल फ्यूल प्लांटों को जल्दी बंद करने की नीति अपनाई।

ब्रिटेन पिछले साल दुनिया का पहला बड़ा औद्योगिक देश बना जिसने सारे कोयले के पावर स्टेशन बंद कर दिए। नए ऑफशोर ऑयल-गैस ड्रिलिंग पर भी बैन लगा दिया। डेनमार्क 2035 तक घरों में गैस हीटिंग खत्म करने जा रहा है। जर्मनी में करीब 20 फीसदी नगरपालिका यूटिलिटी आने वाले सालों में गैस नेटवर्क बंद करने की योजना बना रही हैं।

नतीजा यह हुआ कि पुराना ऊर्जा स्रोत बंद कर दिया गया, नया पूरी तरह तैयार नहीं था। अब उपभोक्ता और कारोबार दोनों का नुकसान हो रहा है। एक तरफ फॉसिल फ्यूल की कीमतों के झटके, दूसरी तरफ रिन्यूएबल इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भारी शुरुआती खर्च, दोनों मिलकर समस्या बढ़ा रहे हैं। ब्रिटेन में घरेलू बिल का करीब आधा हिस्सा अब लेवी और कार्बन टैक्स का है, जो रिन्यूएबल और ग्रिड अपग्रेड के लिए लगाया जाता है। ये शुल्क गैस की थोक कीमत से भी तेज बढ़े हैं।

क्या अगले दशक का निवेश यूरोप उठा पाएगा?

गोल्डमैन सैक्स रिसर्च का अनुमान है कि अगले दशक में बिजली उत्पादन और इंफ्रास्ट्रक्चर पर यूरोप को 3 ट्रिलियन यूरो तक खर्च करने होंगे, यानी पिछले 10 साल के खर्च से दोगुना। ऊपर से सरकारों के पास पहले से ही बुजुर्ग होती आबादी (यानी काम करने वाली उम्र की आबादी घट रही है), बढ़ता रक्षा खर्च और कर्ज का बढ़ता ब्याज भुगतान जैसे बोझ हैं।

इसलिए यूरोप का एनर्जी ट्रांजिशन, जिसे कभी बिना रुके और पैसे बचाने वाला बताया जाता था, अब बहुत जटिल और विवादास्पद मोड़ पर आ गया है। आने वाला दशक यह परीक्षा लेगा कि क्या क्षेत्र अपनी ग्रीन महत्वाकांक्षाओं को आर्थिक रूप से टिकाऊ बना पाएगा या नहीं।

First Published : December 2, 2025 | 8:56 PM IST