जंग और टकराव के कारण विदेशी बाजारों में मची उथल-पुथल, कोविड महामारी और पुरानी पड़ चुकी डिजाइन समेत तमाम चुनौतियों को ठेंगा दिखाकर लखनऊ की चिकनकारी एक बार फिर देश-विदेश में धूम मचा रही है। धागे की कारीगरी वाली नवाबी दौर की इस कला में नई पीढ़ी के उद्यमी भी हाथ आजमा रहे हैं। पिछले एक साल में ही लखनऊ में बड़ी तादाद में नई फर्में इस कारोबार में उतर गई हैं।
कारोबार में नई जान कई वजहों से आई है। उद्यमी अब नए अंदाज के कपड़े का इस्तेमाल कर रहे हैं, चिकन की पोशाक पर नए ढंग से कढ़ाई की जा रही है और डिजाइन भी आधुनिक कर दी गई हैं।
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने लखनऊ की चिकनकारी को महत्त्वाकांक्षी एक जिला एक उत्पाद योजना (ओडोओपी) में शामिल कर लिया है और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने इसकी बिक्री दोगुनी करा दी है। इन सब वजहों से चिकन की मांग में जबरदस्त इजाफा हुआ है। आलम यह है कि कभी गर्मियों की पोशाक कहलाने वाले लखनवी चिकन की मांग अब जाड़े के मौसम में भी कम नहीं हो रही।
लखनऊ का चौक इलाका देश में चिकन के कपड़ों का सबसे बड़ा बाजार है। वहां पुराने कारोबारी अजय खन्ना बताते हैं कि पहले इस धंधे में कुछ पुश्तैनी घराने ही थे और नए लोगों की आमद बहुत कम थी। नए लोग अगर आते भी थे तो रिटेल बिक्री तक ही सीमित थे। मगर खन्ना के मुताबिक कोरोना महामारी के बाद चिकनकारी में एक तरह से क्रांति ही हो गई।
सरकार ने चिकनकारी को ओडीओपी में शामिल कर लिया, जिसके बाद बड़ी तादाद में युवा उद्यमी धंधे में उतर गए। ये नए और युवा उद्यमी दुकान चलाने के बजाय अपने ही चिकनकारी के कारखाने चला रहे हैं, जिसमें लोगों और खास तौर पर महिलाओं को बड़ी तादाद में रोजगार दिए जा रहे हैं।
कारखाने बढ़े हैं तो रिटेल दुकानें भी खुलने लगी हैं। खन्ना का दावा है कि पिछले एक साल में ही राजधानी लखनऊ में चिकनकारी की करीब 70 नई दुकानें खुल गई हैं।
लखनऊ के काकोरी इलाके में चिकन का कारखाना चलाने वाले और पैरहन शोरूम के आसिफउल्ला बताते हैं कि इस परंपरागत धंधे में अब काफी प्रयोग हो रहे हैं। उनका कहना है कि पहले चिकन के करीब 80 फीसदी परिधान सूती ही होते थे मगर अब सिल्क, लिनेन, जार्जेट, शिफॉन और खादी के कपड़ों पर भी कढ़ाई की जा रही है। डिजाइन के मामले में भी नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं और पारंपरिक बूटी की जगह नए तरीके अपनाए जा रहे हैं।
बाजार में परिधान देखकर पता लग जाता है कि चिकनकारी अब कुर्ते या कमीज तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि शॉर्ट कुर्ते-कुर्ती, अद्धी, जैकेट, गाउन और शॉल में भी कढ़ाई की जा रही है।
आसिफ के मुताबिक युवा चिकन उद्यमी आक्रमक तरीके से मार्केटिंग भी कर रहे हैं और आज कम से कम दो दर्जन ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के जरिये अपने उत्पाद बेच रहे हैं। हाल ही में उन्होंने यूरोप के प्रमुख देशों जैसे नीदरलैंड और बेल्जियम में चिकन की कढ़ाई वाले पर्दे और वॉल हैंगिंग भेजे हैं।
चिकन के वस्त्रों के निर्यात की तस्वीर भी युवा उद्यमियों के आने के बाद काफी बदल गई है। खन्ना के मुताबिक पहले दिल्ली व मुंबई के कारोबारी लखनऊ से चिकन के कपड़े लेते थे और उन्हें विदेश भेजते थे। मगर अब आधे से ज्यादा निर्यात सीधे लखनऊ से ही हो रहा है।
लखनऊ चिकन एवं हैंडीक्राफ्ट एसोशिएसन के दीपक कुमार बताते हैं कि पिछले साल लखनऊ से 260 करोड़ रुपये के चिकन वस्त्रों का निर्यात किया गया था और इस बार इसमें 30 से 40 फीसदी इजाफा होने की उम्मीद है। उनका कहना है कि इस बार निर्यात का आंकड़ा 350 करोड़ रुपये के पार चला जाएगा मगर इसमें लखनऊ से सीधे होने वाले निर्यात के साथ मुंबई और दिल्ली के जरिये होने वाला निर्यात भी शामिल है।
दीपक बताते हैं कि पहले चिकन का सीजन होली से शुरू होकर दीवाली तक चलता था मगर अब बारहों महीने इसकी मांग बनी रहती है। गर्मियों में कुर्ते, कमीज और अद्धी की मांग ज्यादा रहती है और सर्दियों में साड़ी, शॉल तथा जैकेट की बिक्री शबाब पर दिखती है। निर्यात की बात करें तो रमजान के महीने में खाड़ी देशों को सबसे ज्यादा माल जाता है और नवंबर से जनवरी तक यूरोप के देशों और अमेरिका में इसकी ज्यादा मांग रहती है।
नई किस्म के कपड़ों पर नई डिजाइन की चिकनकारी शुरू होने के कारण कीमत बढ़ने की बात पर खन्ना कहते हैं कि लखनऊ के चिकनकारी के बाजार में हर तरह के ग्राहक के लिए माल मौजूद है। सिल्क और लिनेन पर हाथ की चिकनकारी का काम होता है, जो महंगा पड़ता है। इसलिए उसमें से ज्यादातर माल निर्यात हो जाता है। मगर मध्यम व निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए आज भी सूती चिकन के कुर्ते व कमीज 100 से 200 रुपये तक में मिल जाते हैं।