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कई ऐतिहासिक पलों का गवाह रही संसद की पुरानी इमारत

इस ऐतिहासिक सियासी गलियारे की दीवारों पर जो अनुभव दर्ज है उसे यादों के पिटारे में पिरोना इतना आसान नहीं है।

Last Updated- September 18, 2023 | 11:49 PM IST
Some seen, some hidden: Landmark moments in old Parliament's history

भारत पुराने संसद भवन को अलविदा कहने के पड़ाव पर आ चुका है और नए संसद भवन में प्रवेश करने की तैयारी हो रही है और लेकिन इस ऐतिहासिक सियासी गलियारे की दीवारों पर जो अनुभव दर्ज है उसे यादों के पिटारे में पिरोना इतना आसान नहीं है। यह संसद भवन कई घटनाक्रमों का गवाह रहा जिसे लोगों ने देखा और कुछ चीजें अनदेखी रह गईं, इस भवन के गलियारे ने काफी कुछ सुना गया और बहुत कुछ अनसुना भी रह गया।

संसद भवन में दिए गए कुछ भाषणों को ही याद करते हैं, जो बेहद चर्चित हैं। जिन प्रधानमंत्रियों को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने अंतिम भाषण को यादगार बनाने के लिए पूरा दमखम लगा दिया। ये संसद भवन में दिए गए सबसे अच्छे भाषणों में गिने जाते हैं और दिलचस्प बात यह है कि इन भाषणों को विपक्षी दलों के सदस्यों ने भी मंत्रमुग्ध होकर सुना और सत्र बाधित करने की कोशिश नहीं की। इनमें से एक अटल बिहारी वाजपेयी का वह भाषण भी शामिल है जो उन्होंने अपनी 14 दिन की सरकार (1996) के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान दिया था। इस भाषण की शुरुआत सरकार को बचाने की कवायद के रूप में शुरू हुई।

कई लोगों ने अंदाजा लगाया था कि उनके कुछ ‘गुप्त’ दोस्त उन्हें इस मुश्किल से बचा लेंगे। किसी को भी इस बात की जरा भी भनक नहीं थी कि वाजपेयी कौन सा कदम उठाने जा रहे हैं। वाजपेयी के भाषण में विपक्ष के लिए कई तंज थे जिसकी मूल बात यह थी कि उन्हें हराने के एकमात्र उद्देश्य के साथ सभी एक साथ मिले हैं।

उन्होंने कहा, ‘आज मुझ पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि मुझे सत्ता की लालसा है और सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हूं…..लेकिन मैं पहले भी सत्ता में रहा हूं और मैंने कभी भी सत्ता के लिए कुछ भी अनैतिक काम नहीं किए हैं।’ उन्होंने कहा, ‘अगर राजनीतिक दलों को तोड़ना ही सत्ता में बने रहने वाले गठबंधन को बनाने का एकमात्र तरीका है, तो मैं ऐसा गठबंधन नहीं चाहता हूं।’ उन्होंने अपने भाषण का अंत करते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय मैं अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को देने जा रहा हूं।’

चंद्रशेखर (वर्ष 1990-91) ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से 50 सांसदों के साथ सरकार बनाने का साहस दिखाया था। उनकी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘मैं कोई बड़ा दावा नहीं करना चाहता। मैं इस सरकार की सीमाओं को भी जानता हूं। लेकिन मैं आपको बता दूं, मेरे मित्र आडवाणी जी, मुझे काफी समय से जानते हैं। मैं कुछ भी हो सकता हूं, लेकिन मैं कठपुतली नहीं बन सकता। मैंने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखा जो मुझे कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर सके। मैंने इस देश में कई बड़े लोगों के साथ काम किए हैं। अगर मैं अब तक कठपुतली बनकर नहीं रहा तो आपके आशीर्वाद और समर्थन के साथ मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि भविष्य में भी कोई मुझे कठपुतली की तरह इस्तेमाल नहीं करेगा।’

पुराने लोगों को याद होगा कि संसद भवन में पहली बार और संभवतः एक बार ही पत्रकार सदन के बीचों-बीच आ गए थे। यह वर्ष 1978 की बात है और तब अशोक टंडन पीटीआई के एक रिपोर्टर थे जो बाद अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार बने।

उन दिनों इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया था, लेकिन उपचुनाव में जीत के साथ कुछ महीने के भीतर ही उन्होंने लोकसभा में वापसी कर ली थी। जनता पार्टी अपना हिसाब बराबर करने की फिराक में जुटी हुई थी। उनके मामले को लेकर ही एक विशेषाधिकार समिति का गठन किया गया था और इस समिति की 1007 पन्नों वाली दो खंडों की रिपोर्ट में इंदिरा गांधी को विशेषाधिकार हनन के साथ-साथ लोकसभा की अवमानना करने का दोषी ठहराते हुए कहा गया कि उन्होंने 1975 में ज्योतिर्मय बसु के मारुति पर किए गए एक प्रश्न के लिए चार सरकारी अधिकारियों को सूचना जुटाने से रोका था।

रिपोर्ट में सजा देने का विकल्प सदन के ‘सामूहिक विवेक’ पर छोड़ दिया। सदन ने गांधी को लोकसभा से निष्कासित करने और जेल में डालने के पक्ष में मतदान किया। टंडन याद करते हैं कि सजा की घोषणा के बाद सदन में पूरी तरह से अफरा-तफरी मच गई थी। दर्शक दीर्घा में मौजूद संवाददाताओं ने देखा कि गांधी उन्हें नीचे की ओर आने का इशारा कर रही हैं। वे सीढ़ियों से नीचे उतरे, लॉबी के दरवाजों और मार्शलों को पार करते हुए आश्चर्यजनक तरीके से सदन के बीचोंबीच आए गए जहां इंदिरा गांधी ने तुरंत संवाददाताओं को संबोधित किया था। इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था और शायद फिर ऐसा कभी नहीं होगा।

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार गांधी ने कहा था, ‘यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि सजा मामले के तथ्यों पर नहीं बल्कि पिछली शिकायतों पर है।‘ न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह भी लिखा, ‘जाने से पहले, उन्होंने अंग्रेजी के एक पुराने गीत को लिखा और इस गीत को उनके एक समर्थक ने भीड़ को पढ़कर सुनाया, जिसका अर्थ यह था कि ‘आप मुझे अलविदा कहते वक्त आंखों में आंसू लाकर नहीं बल्कि हौसला अफजाई करते हुए शुभकामनाएं दें। मुझे वह मुस्कान दें जिसे मैं अपने पास रख सकूं।‘

वर्ष 1993 में, इस लोकसभा को अदालत में बदल दिया गया था और पहली बार, एक न्यायाधीश के मामले को सदन के पटल पर रखा गया था और जिसका बचाव एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया जो किसी भी सदन का सदस्य नहीं था। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति वी रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे जो बाद में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बने।

यह मामला कई कानूनी अड़चनों से गुजरा तब जाकर इस पर निर्णय के लिए संसद में पेश किया गया। वर्तमान में सांसद कपिल सिब्बल को इस मामले में उनका वकील नियुक्त किया गया और उन्होंने लोकसभा में पांच घंटे तक रामास्वामी का बचाव किया। लोकसभा दर्शक दीर्घा और प्रेस दीर्घा समान रूप से खचाखच भरी हुई थी। सिब्बल एकमात्र वकील थे जिन्होंने संसद को संबोधित किया था।

संसद भवन इन गंभीर ऐतिहासिक घटनाक्रमों का गवाह बना है तो यहां कुछ अजीबोगरीब वाकये भी हुए हैं। एक अन्य बुजुर्ग नेता नाम न छापने की शर्त पर एक घटना का जिक्र करते हैं। लोकसभा में प्रेस दीर्घा इस तरह बनाई गई है कि यह अध्यक्ष की कुर्सी के बगल में ही मालूम पड़ती है।

मई की एक गर्मी वाली दोपहर में, अध्यक्ष जब किसी विषय पर बात कर रहे थे तब ऊपर बैठे रिपोर्टर एक-दूसरे के साथ कुछ तस्वीरें साझा कर रहे थे जो आपत्तिजनक थी और उनमें से कुछ तस्वीरें गिरकर लोकसभा अध्यक्ष की टेबल पर आ गई। उन दिनों अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगर थे, जिन्हें बिना तिलक लगाए किसी ने सार्वजनिक रूप से देखा नहीं था।

इन पत्रकारों को पूरा यकीन हो गया था कि उन्हें सदन में प्रवेश से निलंबित कर दिया जाएगा। दो पत्रकार उदासी के भाव के साथ अध्यक्ष के कमरे के बाहर खड़े होकर अपने बुलाए जाने का इंतजार कर रहे थे। जब अयंगर ने उन्हें बुलाया, तब वह उस आपत्तिजनक सामग्री को देख रहे थे। उन्होंने उनसे कुछ सवाल पूछे और फिर उन्हें भविष्य में अपने काम पर ध्यान देने की सलाह दी। इनमें से एक रिपोर्टर साहस दिखाते हुए वह तस्वीर मांग ली। अध्यक्ष ने उन्हें घूरकर देखा और उन्हें वहां से चले जाने को कहा। इन पत्रकारों ने उन्हें फाइल के नीचे तस्वीरें रखते हुए देखा।

और जब डॉ. एस राधाकृष्णन राज्यसभा के सभापति थे, तब उन्हें संसद में एक संगीत समारोह में मुख्य अतिथि बनाकर आमंत्रित किया गया था। उन्होंने एक रिपोर्टर को देखा जिसके बारे में उन्हें पता था कि वह सिगरेट पीते हैं तो उन्होंने एक माचिस की तीली मांग ली। रिपोर्टर भी हैरान हो गया। उसने हकलाते हुए कहा, ‘लेकिन सर आप धूम्रपान नहीं करते हैं न।’ राधाकृष्णन मुस्कुराए और उन्होंने अपने कान की तरफ ऊंगलियां घूमाने का इशारा किया। दरअसल वह चाहते थे कि अगर उन्हें माचिस की तीली मिल जाती तो कानों से मैल निकल जाता!

जैसा कि हम जानते हैं, नई संसद में कोई सेंट्रल हॉल नहीं है। अध्यक्ष के आसन पर कुछ भी गिरने का कोई खतरा नहीं है। लेकिन लोकतंत्र की भावना जीवित रहेगी, भले ही नया सदन कई लोगों को अपना सा न लगे।

First Published - September 18, 2023 | 11:14 PM IST

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