उच्चतम न्यायालय ने राज्यपालों के अधिकारों पर एक महत्त्वपूर्ण आदेश दिया है। शीर्ष न्यायालय ने मंगलवार ने राज्य विधान सभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों द्वारा मंजूरी देने की एक तय समयसीमा निर्धारित कर दी है। न्यायालय ने 10 विधेयकों पर कोई निर्णय नहीं लेने के लिए तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि की आलोचना की। न्यायालय ने रवि के कदम को गैर-कानूनी एवं गलत बताया।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और आर माधवन के पीठ द्वारा दिया गया निर्णय राज्यों के लिए एक बड़ी जीत मानी जा रही है। खासकर तमिलनाडु, केरल और पंजाब जैसे राज्यों के लिए यह निर्णय काफी अहमियत रखता है क्योंकि इन राज्यों ने शिकायत दर्ज कराई थी कि उनकी विधान सभाओं द्वारा पारित कई विधेयकों को संबंधित राज्यपालों ने राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए अग्रसारित नहीं किया था।
तमिलनाडु के मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद 10 विधेयक स्वतः ही पारित हो गए हैं। उनमें एक विधेयक साल 2020 से ही राज्यपाल के पास विचाराधीन था। न्यायालय ने कहा, ‘राज्य विधान सभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को अपने पास सुरक्षित कर राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजने का राज्यपाल का निर्णय कानून सम्मत नहीं है, इसलिए उनके इस कार्रवाई को रद्द किया जाता है।‘ न्यायालय ने कहा कि ये 10 विधेयक उसी दिन से पारित माने जाएंगे जब वे राज्यपाल को दोबारा भेजे गए थे।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को ऐतिहासिक बताया। स्टालिन ने राज्य विधान सभा में कहा, ‘यह आदेश न केवल तमिलनाडु के लिए बल्कि देश के सभी राज्यों के लिए एक बड़ी जीत है।‘ तमिलनाडु सरकार ने राज्य विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा मंजूरी देने में विलंब और उन पर हस्ताक्षर करने से इनकार करने के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील की थी।
केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को लोकतंत्र की जीत बताई और कहा कि यह राज्यपालों के लिए सीधी चेतावनी है कि वह राज्य विधान सभाओं के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करें। केरल के मामले में पूर्व राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य विधान सभा द्वारा पारित कई विधेयकों को अपने पास सुरक्षित रख लिया था।
तमिलनाडु का पक्ष रखने वाले वरिष्ठ वकील पी विल्सन ने कहा कि उच्चतम न्यायालय का आदेश तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ डीएमके सरकार की बड़ी जीत है। विल्सन ने कहा, ‘अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को एक निश्चित समयसीमा में निर्णय लेना होता है। राज्यपाल के पास इसे अनिश्चितकाल तक रखने या इस पर वीटो करने का अधिकार नहीं है। जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष रखा जाता है तो राज्यपाल को उपलब्ध तीन विकल्पों में एक का चयन करना होता है।‘
उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘हालांकि, इस संबंध में कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है मगर अनुच्छेद 200 की व्याख्या इस रूप में नहीं की जा सकती जिससे राज्यपाल को उनके समक्ष प्रस्तुत विधेयक पर कोई निर्णय नहीं लेने का अधिकार मिल जाता है। इससे सरकार के कानून बनाने वाले अंग के कार्यों में बाधा आती है।‘
न्यायालय के पीठ ने कहा कि किसी विधेयक को मंजूरी नहीं देने और मंत्रिपरिषद की सलाह के साथ राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए इसे सुरक्षित रखने के मामले में अधिकतम अवधि 1 महीने होगी। अगर राज्यपाल मंत्रिपरिषद के परामर्श एवं सलाह के बिना विधेयक को मंजूरी नहीं देने का निर्णय लेता है तो संबंधित विधेयक तीन महीने के भीतर राज्य विधान सभा को लौटा दिया जाना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि राज्य विधान सभा के पुनर्विचार के बाद विधेयक दोबारा राज्यपाल के समक्ष आने पर उन्हें एक महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी। पीठ ने आगाह किया कि इस समयसीमा का अनुपालन नहीं करने पर राज्यपाल की निष्क्रियता की न्यायपालिका समीक्षा करेगी।
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल को इस बात का अवश्य ख्याल रखना चाहिए कि वह राज्य विधान सभा के काम करने की प्रक्रिया को बाधा न पहुंचाएं। पीठ ने कहा कि राज्यपाल अपने पास ‘पॉकेट वीटो’ का इस्तेमाल कर विधेयक लंबे समय तक नहीं रख सकता। ‘पॉकेट वीटो’ के अंतर्गत राज्यपाल कोई विधेयक अपने पास बिना हस्ताक्षर किए रख लेते हैं जिससे यह (विधेयक) स्वतः ही निष्प्रभावी हो जाता है।
राज्यपाल से विधेयक पर मंजूरी मिलने में देर के बाद राज्य सरकार ने 2023 में शीर्ष न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। राज्य सरकार ने अपनी याचिका में दावा किया था कि राज्यपाल के पास 12 विधेयक विचाराधीन है जिनमें एक विधेयक तो साल 2020 से ही लंबित है।