महाराष्ट्र

समस्याएं थीं अपार, फिर भी महायुति पर लुटाया प्यार; जानें महाराष्ट्र में NDA की जीत के बड़े कारण

लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र सरकार ने किसानों नाराजगी दूर करने के लिए कई कदम उठाए थे। इसी के साथ कई अन्य कारण भी रहे, जिससे हवा सत्ताधारी गठबंधन के पक्ष चल निकली।

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संजीब मुखर्जी   
Last Updated- November 26, 2024 | 8:45 AM IST

महाराष्ट्र की लातूर मंडी में 19 नवंबर को सोयाबीन की कीमतें 4,200 रुपये प्रति क्विंटल थीं। यह इस उपज के लिए निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 4,892 रुपये से 14 प्रतिशत कम है। उसी दिन अकोला में देसी कपास की कीमत लगभग 7,396 रुपये प्रति क्विंटल थी। यह इस फसल की एमएसपी 7,121 रुपये से थोड़ा ही अधिक है।

इसी प्रकार लासलगांव की थोक मंडी में प्याज के भाव भी 6 नवंबर के 5,400 रुपये प्रति क्विंटल से गिर कर 19 नवंबर को केवल 4,000 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गए। एगमार्कनेट से लिए आंकड़ों के मुताबिक कीमतों में लगभग एक पखवाड़े में ही 26 प्रतिशत की गिरावट।

मुख्य कृषि फसलों की कीमतों में तेज गिरावट से ग्रामीण महाराष्ट्र के किसानों को तगड़ी चोट लगी है। राज्य में 20 नवंबर को ही विधान सभा चुनाव हुए हैं। ऐसी उम्मीद जताई जा रही थी कि जिस प्रकार लगभग छह माह पहले हुए लोक सभा चुनाव में किसानों ने सत्ताधारी महायुति गठबंधन से मुंह मोड़ा था, वही रुख उनका विधान सभा चुनाव में भी रहेगा, लेकिन 23 नवंबर को आए नतीजों ने सबको चौंका दिया।

कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ महीने पहले लोक सभा चुनाव में महायुति ने जो 117 विधान सभा सीट पर चोट खाई थी, विधान सभा चुनाव में उन पर जीत दर्ज कर सत्ताधारी गठबंधन ने उसकी भरपाई कर ली है।

मराठवाड़ा और विदर्भ जैसे कृषि प्रधान क्षेत्रों में जहां किसानों के मुद्दे राजनीति पर हावी रहते हैं, वहां महायुति ने इस बार शानदार प्रदर्शन किया है। मराठवाड़ा की 46 में से 41 और विदर्भ की 62 में से 37 सीट महायुति के खाते में गई हैं।

वास्तव में, एक्सिस माई-इंडिया के एक्जिट पोल सर्वेक्षण में मराठवाड़ा के लगभग 45 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने महायुति गठबंधन के पक्ष में हवा चलने की बात कही थी और केवल 38 प्रतिशत ने महा विकास आघाडी की सरकार बनने की संभावना जताई थी, जबकि विदर्भ में 48 प्रतिशत ने सत्ताधारी तो 36 प्रतिशत ने विपक्षी गठबंधन के पक्ष में मतदान की बात कही थी।

इसी सर्वे में लगभग 48 प्रतिशत किसानों ने महायुति तो 39 प्रतिशत ने आघाडी गठबंधन को वोट देना स्वीकार किया था। एक्सिस माई-इंडिया के आंकड़े अंतिम परिणामों के काफी करीब हैं। ग्रामीण इलाकों में किसानों की समस्याएं होने के बावजूद महायुति इन्हें अपने पक्ष में करने में कामयाब रहा। लेकिन, क्या राज्य सरकार की बहुप्रचारित लाडकी बहिन योजना है, जिसने अन्य मुद्दों को बेअसर कर दिया, क्योंकि किसान परिवार की महिलाओं को भी इस योजना के तहत नकद राशि मिलती है? कुछ विशेषज्ञ इससे इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि महायुति की तरफ किसानों का रुझान होने के लिए यह अकेला कारक नहीं है।

लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र सरकार ने किसानों नाराजगी दूर करने के लिए कई कदम उठाए थे। इसी के साथ कई अन्य कारण भी रहे, जिससे हवा सत्ताधारी गठबंधन के पक्ष चल निकली। हालांकि किसानों को यह शिकायत जरूर रही कि उपज की कीमतों को संतुलित करने के लिए कदम देर से उठाए गए। विशेष कर खाद्य तेलों पर आयात शुल्क (20 से 22 प्रतिशत) बढ़ाने का फैसला देर से लिया गया। इसी प्रकार जो सोयाबीन 3,500 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही थी, वह नवंबर में 4,000 से 4,200 रुपये पर आ गई। इस उपज की एमएसपी 4,892 रुपये प्रति क्विंटल है।

यही नहीं, केंद्र सरकार ने मतदान की तारीख से कुछ दिन पहले ही राज्य एजेंसियों द्वारा एमएसपी पर खरीद के लिए सोयाबीन के गुणवत्ता नियमों में भी बदलाव कर दिया था। इन नियमों के तहत सोयाबीन की खरीद 15 प्रतिशत नमी के साथ भी की जा सकती है, जबकि इससे पहले यह 12 प्रतिशत ही थी।

महाराष्ट्र के किसान काफी समय से अतार्किक गुणवत्ता मानकों के कारण सोयाबीन की खरीद धीमी होने की शिकायत कर रहे थे। सरकार ने किसानों से 32 लाख टन सोयाबीन एमएसपी पर खरीदने का लक्ष्य रखा है, जबकि कुल उत्पादन 1.2 करोड़ टन है।

इस लक्ष्य का बहुत बड़ा हिस्सा महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से पूरा किया जाता है। ये दोनों राज्य की देश में सोयाबीन के प्रमुख उत्पादक हैं। कुछ समय पहले तक उच्च गुणवत्ता मानकों के चलते केवल 40,000 टन सोयाबीन की खरीद की गई थी। लेकिन, कई विशेषज्ञ यह मानते हैं कि विपक्ष किसानों की समस्याओं और फसलों की गिरती कीमतों के मुद्दों को पूरी शिद्दत से नहीं उठा पाया।

राज्य से बाहर की एक प्रमुख ट्रेडिंग फर्म के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘सत्ताधारी गठबंधन के पास बहुत अधिक संसाधन मौजूद थे, जिनका उसने चुनाव से कुछ दिन पहले से भरपूर इस्तेमाल किया। इससे ग्रामीण महाराष्ट्र में उसके पक्ष में हवा बनती चली गई।’

महाराष्ट्र के प्रमुख किसान नेता और ऑल इंडिया किसान सभा के अध्यक्ष अशोक धवले ने कहा कि महा विकास आघाडी दीवाली के बाद तक भी सीट बंटवारे पर विवाद सुलझा नहीं पाया था। अनेक सीटों पर गठबंधन में एकजुटता की कमी साफ दिखी। इससे ग्रामीण इलाकों में उसका पक्ष कमजोर पड़ता चला गया।

उन्होंने कहा कि सीट बंटवारों पर बातचीत बहुत लंबी खिंच गई, जिससे अंत में तय हुए आघाडी प्रत्याशियों को मतदाताओं के बीच पहुंचकर अपनी बात रखने का बहुत कम समय मिल पाया और वे किसानों के मुद्दे पर अपनी नीति समझा ही नहीं पाए।

धावले कहते हैं, ‘आघाडी गठबंधन ने चुनाव से 8 से 10 दिन पहले ही सोयाबीन और कपास की गिरती कीमतों का मुद्दा उठाना शुरू किया। उस समय क्या हो सकता था।’

उन्होंने कहा कि आघाडी गठबंधन महायुति की लाडकी बहिन योजना का मुकाबला करने के लिए उससे बढ़कर रकम देने की बात करता दिखा जबकि उसे लगाता बढ़ती महंगाई और सोयाबीन तथा प्याज जैसी फसलों की गिरती कीमतों पर चोट करनी थी और किसानों, कमजोर तबकों के लोगों को समझाना था कि कैसे उनकी गाढ़ी कमाई महंगाई चाट रही है।

इसके अलावा आघाडी नेता लोक सभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बाद कुछ अधिक ही आश्वस्त हो गए और जितनी तीखी रणनीति बनाने की जरूरत थी, उस हिसाब से काम नहीं कर पाए। उत्तर भारत के किसान एक बार फिर एमएसपी की कानूनी गारंटी का मुद्दा उठा रहे हैं। अब देखना यह होगा कि महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों का उनके आंदोलन पर क्या प्रभाव पड़ता है।

First Published : November 26, 2024 | 8:42 AM IST