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सत्यम मामले से मिले कई सबक

Last Updated- December 10, 2022 | 5:34 PM IST

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) में सूचीबध्द भारतीय करारों की ‘धारा 49’ को पेश किए हुए अभी दो ही वर्ष हुए हैं कि इसने कॉर्पोरेट जगत का ध्यान फिर अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यह धारा कॉर्पोरेट प्रशासन से संबंधित है।


इसमें एक मुख्य प्रावधान है कि निदेशक मंडल में कम से कम एक तिहाई स्वतंत्र निदेशक शामिल होने चाहिए। इसके अलावा इसके उपायों में कठोर ऑडिट मानक और वित्तीय प्रकाशन से संबंधित शरतॅ भी शामिल हैं।

इसे बेहद बढ़िया तरीके से बनाया गया है। छोटी कंपनियों में इसे बनाए रखने का मतलब है कि इसकाअनुपालन करने पर अधिक लागत। इसका प्रशासन की गुणवत्ता में वास्तविक तौर पर बहुत अधिक अंतर नहीं होता। कानून है तो उसकी काट भी मौजूद है।

उदाहरण के लिए परिवार के दूर-दराज के संबंधियों को शामिल करने और स्वतंत्र निदेशकों की अनिवार्य संख्या को कंपनी से जोड़ा जा सकता है। इनमें वे लोग शामिल होते हैं, जो प्रवर्तकों के दूर-दराज के भाई-बंधु या खास दोस्त हों।

धारा 49 ने ‘स्वतंत्र निदेशक’ कहलाने वाले लोगों का एक नया आला दर्जे का वर्ग खड़ा कर दिया, क्योंकि अच्छे स्वतंत्र निदेशकों की मांग अधिक थी, जबकि ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित थी।

एक मुख्य वित्त अधिकारी का कहना है कि यह लगभग वैसा ही है कि एकदम से आईसीसी एलीट अम्पायरों का पैनल बढ़ाए तो उसके लिए लोग तो ढेर सारे जुटा लिए जाएं, पर उनमें काबिल सिर्फ मुट्ठीभर ही हों।

शैक्षणिक क्षेत्र के पंडितों की खूब मांग होने लगी क्योंकि स्वतंत्र निदेशकों के लिए उन्हें सबसे बेहतर समझा जाने लगा। बिजनेस स्कूल के एक अच्छे प्रोफेसर को कंपनी के निदेशक मंडल में शामिल करना ठीक वैसे ही फायदेमंद है जैसे बैलेंस शीट में अच्छी साख का होना।

सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) सलाहकार भी खूब उत्साहित दिखाई दिए जो ऐसे स्वीकृत समाधानों की चर्चा करते नजर आए, जिन्हें छोटे और मझोले कारोबार लागू कर सकते हैं। बेशक, धारा 49 के प्रभावी होने के बाद छोटे कारोबारों के लिए इसका अनुपालन करने की लागत में अहम इजाफा हुआ।

धारा 49 लागू होने के बाद भारतीय कंपनियां स्वतंत्र निदेशकों को अपने निदेशक मंडल में शामिल कर रही हैं और उनका वित्तीय प्रकाशन भी बेहतर होने लगा है।

अगर बड़े स्तर पर देखें तो कंपनियों की ओर से मुहैया कराई जाने वाली वित्तीय जानकारी की गुणवत्ता निश्चित रूप से सुधरी है, हालांकि इसका धारा 49 के अनुपालन से ज्यादा मतलब विदेशी पैसे तक अपनी पहुंच बनाने की इच्छा से है।

लेकिन अगर सत्यम मायटास मामले को एक उदाहरण के रूप में लेते हैं तो धारा 49 का गलत प्रशासन से बचने के लिए कोई असली असर दिखाई नहीं देता है।

सच्चाई के खुलासे के बाद सत्यम के निदेशक मंडल में बड़े पदों पर मौजूद कई स्वतंत्र निदेशकों ने एक साथ त्यागपत्र दिया। शुरुआत में निदेशक या तो साथ थे या फिर उनका ध्यान इस और गया ही नहीं। क्या इस करार का करोड़ों डॉलर के सौदे में तब्दील करना गलत रहा?

इस मामले के लिए सत्यम ने धारा 49 के किसी नियम का उल्लंघन नहीं किया और यहां कानूनी तौर पर अनुपालन भी असलियत में कोई मुद्दा नहीं था। असली मुद्दा बाजार की प्रतिक्रिया थी। इस सौदे की घोषणा के बाद कंपनी का बाजार पूंजीकरण लगभग आधा रह गया।

कंपनी प्रवर्तकों ने मायटास सौदे से लगाव की तुलना कंपनी की गिरी कुल परिसंपत्ति से की और फिर उन्होंने फैसला लिया कि कंपनी को इसकी जो कीमत चुकानी पड़ेगी, वह सही नहीं है।

कानूनी स्थिति के विपरीत यह मामला पलक झपकाने में लगने वाले समय की तरह तय हो गया। सौदे की घोषणा की गई। कंपनी के शेयरों की कीमतें एकदम गिरीं। और आखिरकार सौदा रद्द कर दिया गया।

इससे पहले भी हम 2006 में डीएलएफ के आईपीओ के वक्त बाजार की ताकत देख चुके हैं। उस समय कंपनी ने अपने आईपीओ को वापस ले लिया था।

उस समय कंपनी में कम हिस्सेदारी वाले शेयरधारकों ने मामले को तूल देते हुए आरोप लगाया कि जिस समय डीएलएफ सूचीबध्द नहीं थी, उस वक्त उनसे राइट इश्यू में हिस्सेदारी लेने के मौके से वंचित रखा गया। इसके नतीजतन आईपीओ से होने वाले लाभ काफी कम हो सकते थे।

बुरी लोकप्रियता से आईपीओ शायद खत्म ही हो जाता। जोखिम उठाने से पहले ही आईपीओ आई-गई बात हो गई। डीएलएफ ने अपना इश्यू वापस ले लिया।

कंपनी ने कम हिस्सेदारी वाले शेयरधारकों के साथ मामले का निपटारा कर लिया और एक साल बाद फिर अपना आईपीओ पेश किया। किसी भी कानूनी परिणामों के डर से ज्यादा कंपनी ने अपने निर्णय का साथ देने वाले बाजार का सम्मान किया।

ये कुछ ऐसी बहुचर्चित परिस्थितियां हैं, जिनका बाजार में अग्रणी कंपनियों पर जबरदस्त असर हुआ। छोटी कंपनियों में बाजार की ताकत और बुरी लोकप्रियता का डर काफी कम है।

दर्व्यवहार का एक हानिकारक रूप गैर-सूचीबध्द समूह कंपनियों का एक सूचीबध्द कंपनी में अचानक मिल जाना या उनका विघटन हो सकता है।

यह हर समय होता है और कई बार प्रमुख ब्रांड जैसी परिसंपत्ति तक को सूचीबध्द कंपनी से गैर-सूचीबध्द कंपनी में डाल दिया जाता है। इसका मतलब है कि कम हिस्सेदारी वाले शेयधारकों को ब्रांड का लाभ नहीं मिल पाता।

मौजूदा भुलभुलैया के समान कॉर्पोरेट कानून और बर्फ से पानी के पिघलने की रफ्तार से आगे बढ़ने वाली कानूनी प्रक्रियाओं के साथ इस तरह की स्थितियां आगे बढ़ती रहेंगी।

हालांकि खराब कॉर्पोरेट प्रशासन साख पर असर डालता है और उससे कंपनी के मूल्यांकन और पैसा उगाहने या कारोबार करने की उसकी क्षमता पर असर पड़ता है।

ऐसा लगता है कि भारतीय बाजार पारदर्शिता की सराहना करने के लिए बखूबी परिपक्व हो चुके हैं और अगर उसकी कमी नजर आए तो सजा देने से भी चूकते नहीं हैं। हमेशा से ऐसा लगता है कि कॉर्पोरेट प्रशासन को बाजार लागू करता है, बजाए कानूनों का पालन करने की जरूरत के।

First Published - January 4, 2009 | 9:25 PM IST

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