अधिकांश निवेशकों को भेड़-चाल चलने की आदत होती है। मतलब यह है कि अगर वे इक्विटी में निवेश कर रहे हैं तो अपनी अधिकांश बचत उसी में निवेश कर डालते हैं।
लेकिन, बाजार का उफान शांत होते ही वे ऋण की ओर रुख कर लेते हैं। जनवरी से शेयर बाजार में गिरावट का दौर शुरू हुआ और अधिकांश निवेशक सतर्कतापूर्वक अपने पैसे शेयरों से निकाल कर सुरक्षित ऋण योजनाओं में लगाते गए। कुछ मामलों में उन्हें घाटा भी उठाना पड़ा। इसका कारण था कि वे कम हानि उठाना चाहते थे।
एक तरफ, जहां ऋण योजनाओं के सुरक्षित होने पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता, वहीं एक निवेशक को खुद से यह सवाल करना चाहिए कि ‘मुझे अपने पैसे इक्विटी से ऋण में लगाने की आखिर जरूरत क्या है।’ तार्किक तौर पर हम सभी जानते हैं कि कम कीमत में खरीदो और अधिक कीमत पर बेच दो, यही शेयर में निवेश करने का आधारभूत फंडा है।
जब बाजार में बढ़त चल रही होती है तो खरीदारी का काम पूरा कर लिया जाता है। कई निवेशक तो शेयरों में निवेश के लिए कर्ज भी ले डालते हैं।
लेकिन जब बाजार में तेजी से गिरावट आनी शुरू होती है और वास्तव में शेयरों के मूल्य खरीदारी के लिहाज से आकर्षक हो जाते हैं तो निवेश करने में निवेशकों की दिलचस्पी बिल्कुल नजर नहीं आती है।
यही कारण है कि वित्तीय योजनाकार सलाह देते हैं कि निवेशकों का परिसंपत्ति आबंटन सटीक होना चाहिए। मोटे तौर पर इसका मतलब है कि शेयर और डेट में आवंटन के बीच एक संतुलन होना चाहिए और इसे बरकरार भी रखा जाना चाहिए।
परिसंपत्ति आबंटन के लिए सोचते समय एक मोटे नियम का ध्यान रखना चाहिए। 100 में से अपनी उम्र घटाएं और जो शेष बचता हो, उतने प्रतिशत का निवेश इक्विटी में करना चाहिए।
हालांकि, वास्तव में यह कई अन्य बातों पर भी निर्भर करता है जैसे आप पर आर्थिक रूप से निर्भर व्यक्तियों की संख्या कितनी है, आप कितना जोखिम उठाना चाहते हैं, सेवानिवृत्ति में कितना समय शेष रह गया है आदि।
इन सबको ध्यान में रखते हुए उचित परिसंपत्ति आबंटन किए जाने की जरूरत है। निश्चय ही वक्त और परिस्थितियों के अनुसार इसमें परिवर्तन किया जाता है।
लेकिन मुख्य बात यह है कि अगर आपने एक बार परिसंपत्ति आबंटन कर लिया तो आपको इस पर अडिग रहना चाहिए। भले ही बाजार परिस्थितियों में बदलाव आए लेकिन आपको अपने परिसंपत्ति आबंटन को बरकरार रखना चाहिए।
आइए, इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। रवि सिन्हा एक निवेशक हैं जिनकी उम्र 45 साल है। अनुमान है कि वह 60 साल तक की उम्र तक कार्य करेंगे।
उनकी नौकरी के अब 15 साल रह गए हैं और उनके वित्तीय सलाहकार ने सुझाव दिया है कि उन्हें 60 प्रतिशत इक्विटी और 40 फीसदी ऋण में निवेश करना चाहिए।
पिछले कई महीने में बाजार के धराशायी होने के कारण सिन्हा के इक्विटी आबंटन के मूल्य में गिरावट आई है। परिणामस्वरूप, पोर्टफोलियो में इक्विटी का आबंटन घट कर 40 प्रतिशत रह गया है। परिसंपत्ति आबंटन के सिध्दांत के मुताबिक इक्विटी आबंटन को फिर से 60 प्रतिशत किए जाने की जरूरत है।
लेकिन उनके पास इसके लिए पैसे कहां से आएंगे? सिन्हा के मामले में पैसे को ऋण से धीरे-धीरे निकाल कर इक्विटी में लगाने की जरूरत है। मान लीजिए, सिन्हा का पोर्टफोलियो 5 लाख रुपये का है और उसका 3 लाख इक्विटी में (60 प्रतिशत) तथा 2 लाख रुपये ऋण में (40 प्रतिशत) आबंटित है।
इक्विटी का मूल्य घटने के कारण आज उनका पोर्टफोलियो 4.5 लाख रुपये का रह गया है। दो लाख रुपये इक्विटी में और 2.5 लाख रुपये ऋण में हैं। अब उनका परिसंपत्ति आबंटन बदल कर इक्विटी में 55 प्रतिशत और ऋण में 45 प्रतिशत हो गया है।
परिसंपत्ति आबंटन को 60:40 के अनुपात में बरकरार रखने के लिए उन्हें 70,000 रुपये ऋण से निकाल कर इक्विटी में लगाना होगा। इक्विटी में 2.7 लाख रुपये और ऋण में 1.8 लाख रुपये उनकी परिसंपत्ति आबंटन के 60:40 के अनुपात को बरकरार रखेगा। सुनने में कितना आसान लगता है!
लेकिन निवेशक को यह बात समझाना कि इस तरीके से अपने पोर्टफोलियो का प्रबंधन करें, वाकई काफी मुश्किल है। उन्हें चिंता रहती है कि अगर बाजार में और गिरावट आई तो उन्हें ज्यादा घाटा उठाना पड़ेगा।
सारी बातें सही हैं लेकिन निवेश का मतलब होता है दीर्घावधि में धन-कोष बनाना। दीर्घावधि से यहां तात्पर्य 5 से 10 वर्षों से है। ऐसा नहीं है कि केवल ऋण से ही पैसे निकाल कर इक्विटी में लगाना चाहिए।
बाजार में तेजी के समय में परिसंपत्ति आबंटन को संतुलित बनाए रखने के लिए इक्विटी से पैसे निकाल कर ऋण में निवेश करना चाहिए।
लेखक लैडर 7 फाइनैंशियल एडवाइजर्स के निदेशक हैं।