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कैसी हो चुनावी निवेश नीति

Last Updated- December 10, 2022 | 11:23 PM IST

जोखिम विश्लेषण की शुरुआत यह मान कर की जाती है कि कीमतों में बदलाव आम तौर पर व्यापक स्तर पर आएगा। यह एक सुविधाजनक धारणा है।
आम तौर पर कीमतों में बदलाव का वितरण लोग अच्छी तरह समझते हैं और इस आधार पर काम करना भी आसान है। मूल्यों का लगभग आधा औसत से ऊपर और आधा इससे कम के स्तर पर रहेगा।
मूल्यों का लगभग दो-तिहाई औसत के एक मानक विचलन (एसडी) के दायरे में रहेगा (+- 1 एसडी), 95 प्रतिशत दो मानक विचलन और 99.7 प्रतिशत तीन मानक विचलन के दायरे में रहेंगे। अगर यह सब सही है तो फिर संभावित लाभ या घाटे के सटीक आकलन के साथ कारोबार करना संभव है।
हालांकि, समस्याएं इसलिए उठ खड़ी होती हैं क्योंकि कीमतों का बदलाव आमतौर पर ठीक-ठीक वितरित नहीं होता। तीन मानक विचलन के बाद खतरे का क्षेत्र शुरू हो जाता है। जनवरी 1994 के बाद के सत्रों से निफ्टी 3,778 की कीमतों में आए दैनिक बदलाव पर जरा निगाह डालिए।
कीमतों को विचलन +5.6 और -5.12 प्रतिशत से अधिक का रहा है (औसत (+- 3 एसडी) और अनुमान था कि ऐसा केवल 13 बार होगा। वास्तव में, कीमतों में इस तरह का बदलाव 63 सत्रों में देखा गया। इसके अलावा कीमतें तीन बार 10 प्रतिशत से अधिक चढ़ीं (दो बार 12 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई) और 28 मौकों पर इनमें 6 प्रतिशत से अधिक की बढ़त आई।
कीमतों में इस तरह के विचलन राजनीतिक अस्थिरता के दौरान ज्यादा आए। साल 1994 से 2004 के बीच भारत में चार बार आम चुनाव हुए और कई बड़ी गतिविधियों में इनमें से प्रत्येक का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त, जब विभिन्न सरकार की सत्ता में अनिश्चितता का माहौल बना तब अस्थिरता काफी अधिक बढ़ गई थी।
साल 1999 को छोड़ दें तो चुनाव की अवधि में बाजार में मंदी का रुख रहा है। चुनाव से मंदी का जुड़ाव तर्कसंगत है। भारत अभी भी नीतियों के बल पर अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखता है। राजनीतिक अस्थिरता के मूलभूत प्रभाव काफी बड़े होते हैं। सरकार बदलने का मतलब है कि महत्वपूर्ण नीतियां भी बदलेंगी और अस्थिरता से शासन की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।
हालांकि, इनमें से प्रत्येक मंदी की अवधि दीर्घकालीन धैर्यवान निवेशकों के लिए निवेश का एक बेहतर अवसर लेकर आई। पिछले उदाहरणों में हम देखते हैं कि कीमतों में हमेशा ही तेजी से सुधार हुआ है। मान लीजिए कि परिस्थितियां अगर बहुत बुरी भी होती हैं तो बढ़िया प्रतिफल अर्जित करने में 3 साल से अधिक नहीं लगेंगे। आम तौर पर नई सरकार बनने के बाद कीमतों में कुछ मजबूती आने में अपेक्षाकृत कम वक्त लगता है।
साल 2009 के चुनावों का बाजार पर कुछ अलग असर होने का क्या कोई कारण है? यहां हम चुनाव के दौरान उसके तुरंत बाद की राजनीतिक अस्थिरता को मान कर चल रहे हैं। वैश्विक मंदी के इस दौर में भारत को सक्षम शासन और अच्छे नीतिकार की जरूरत है। इसके अतिरिक्त बाजार जनवरी 2008 के शीर्ष स्तर से लगभग 50 प्रतिशत नीचे है।
लंबे समय से बाजार की मंदी का चलन इस संभावना को मजबूती देता है कि चुनाव के कारण बाजार में फिर से गिरावट आएगी। अगर, 15 से 20 प्रतिशत की अस्थायी गिरावट अभी और आती है तो मूल्यांकन ज्यादा आकर्षक हो जाएंगे और दीर्घावधि में जबर्दस्त प्रतिफल दे सकते हैं।
इस कारण 2009 का चुनाव खरीदारी का एक बेहतर अवसर लेकर आया है। लेकिन कुछ सावधानी बरतने की जरूरत भी है। पहला यह कि अगर एक स्थिर लेकिन अपेक्षाकृत कम सक्षम सरकार सत्ता में आती है तो अर्थव्यवस्था में सुधार मंथर गति से होगा। जिसका मतलब होगा निवेश को लंबे समय तक बनाए रखना।
दूसरा खतरा यह है कि एक निवेशक उच्च अस्थिरता के इस माहौल में किस कीमत पर खरीदारी करे। व्यावहारिक तरीका यह है कि थोड़ी-थोड़ी खरीदारी की जाए। इस तरीके से अगर किसी दिन ज्यादा और किसी दिन कम खरीदारी भी की जाए तो कीमतें औसत हो जाती हैं। चुनाव के कारण कीमतों में 20 से 30 प्रतिशत की गिरावट आना एक निवेशक के लिए खरीदारी की आदर्श परिस्थिति है।

First Published - April 6, 2009 | 4:10 PM IST

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