facebookmetapixel
Editorial: वैश्विक व्यापार में उथल-पुथल, भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अहम मोड़भारत की एफडीआई कहानी: विदेशी निवेशकों को लुभा सकते है हालिया फैक्टर और मार्केट सुधारभारत की हवा को साफ करना संभव है, लेकिन इसके लिए समन्वित कार्रवाई जरूरीLuxury Cars से Luxury Homes तक, Mercedes और BMW की भारत में नई तैयारीFiscal Deficit: राजकोषीय घाटा नवंबर में बजट अनुमान का 62.3% तक पहुंचाAbakkus MF की दमदार एंट्री: पहली फ्लेक्सी कैप स्कीम के NFO से जुटाए ₹2,468 करोड़; जानें कहां लगेगा पैसाYear Ender: युद्ध की आहट, ट्रंप टैरिफ, पड़ोसियों से तनाव और चीन-रूस संग संतुलन; भारत की कूटनीति की 2025 में हुई कठिन परीक्षाYear Ender 2025: टैरिफ, पूंजी निकासी और व्यापार घाटे के दबाव में 5% टूटा रुपया, एशिया की सबसे कमजोर मुद्रा बनाStock Market 2025: बाजार ने बढ़त के साथ 2025 को किया अलविदा, निफ्टी 10.5% उछला; सेंसेक्स ने भी रिकॉर्ड बनायानिर्यातकों के लिए सरकार की बड़ी पहल: बाजार पहुंच बढ़ाने को ₹4,531 करोड़ की नई योजना शुरू

कब तक रहेगा शेयर बाजार पर मंदड़ियों का राज?

Last Updated- December 08, 2022 | 1:42 AM IST

बाजार पर मंदड़ियों की मजबूत पकड़ बन चुकी है। पिछले सप्ताह सेंसेक्स में 15 प्रतिशत की गिरावट आई और शुक्रवार को भारी नुकसान देखने को मिला क्योंकि बेंचमार्क सूचकांक 10.96 प्रतिशत लुढ़क कर 8701 अंकों पर आ गया।


शुक्रवार को बाजार धराशायी होने के बाद इस वर्ष की शुरुआत से अब तक सेंसेक्स में कुल मिलाकर 57.1 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है, यह एक ऐसे स्तर पर आ गया है जहां पिछले तीन साल में अर्जित किया गया लाभ छू-मंतर हो गया है।

पैसे निकालने के दबाव और अपनी पूंजी में इजाफा करने के लिए विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) तथा हेज फंडों ने भारतीय बाजार में अपनी हिस्सेदारी बेच डाली। डर और जोखिम से परहेज करने के कारण निवेशक नकदी, सरकारी पेपर तथा सावधि जमा के विकल्पों को इक्विटी और कॉरपोरेट ऋणों की अपेक्षा अधिक तरजीह दे रहे हैं। मंदी के वर्तमान और पिछले चक्र, उसकी अवधि और इससे उबरने में लगे समय को ठीक से समझने के लिए स्मार्ट इन्वेस्टर ने पिछले आंकड़ों का विश्लेषण किया।

समझें मंदी के चक्र को

मंदी के चक्र की कोई मानक परिभाषा नहीं है। विकसित बाजारों में जब तीन महीने की अवधि में कीमतों में 20 प्रतिशत या उससे अधिक की कमी होती है तो उसे मंदी का चक्र कहा जाता है। भारत जैसे विकासशील बाजार में आम तौर पर मंदी का चक्र तब समझा जाता है जब न्यूनतम छह महीने में कीमतों में 33 प्रतिशत से अधिक की कमी आ जाए।

मंदी के पांच चक्र इस मानदंड पर खरे उतरते हैं जिसमें 1994 की मंदी सबसे अधिक दिनों की थी और सबसे छोटा चक्र साल 1996 का था। विभिन्न समयावधियों और तरह-तरह के मैक्रोइकनॉमिक रुझानों के बावजूद मंदी का चक्र एक जैसा होता है। अब बाजारों में मंदी आ गई है तो कीमतों में काफी गिरावट देखने को मिली है और घाटा भी 35 से 60 प्रतिशत तक हो गया है।

इसके बाद समय की मंदी देखी जाती है जो अधिक अवधि की होने के साथ-साथ दुखी करने वाली होती है। इस अवधि में बाजार में कारोबार में कमी देखने को मिलती है। डॉटकॉम की तेजी के बाद आए मंदी के चक्र में बाजार की स्थिति सितंबर 2001 से लेकर अगस्त 2003 तक दिशाहीन बनी रही।

एचडीएफसी सिक्योरिटीज के रीटेल रिसर्च के प्रमुख दीपक जासानी मंदी के चक्र को कुछ इस तरह समझाते हैं, ‘जब निवेशक उल्लास और उन्माद की मन:स्थिति के बाद चिंता और निराशा में जाने लगते हैं तो बाजार अपनी तेजी खो बैठता है (जनवरी 2008)। आरंभ में तो ऐसा लगता है कि परिस्थितियां फिर से बेहतर हो जाएंगी।

लेकिन, आशाएं खत्म हो जाती हैं और रह जाता है केवल भय, चिंता, आतंक और अंत में आत्म समर्पण (मौजूदा दौर)। अभी हम जिस दिशा में हैं वह उदासी और अवसाद का चरण है। इस चरण की समाप्ति तब होती है जब लोग यह भरोसा करने लगते हैं कि बुरा वक्त गुजर चुका है और तब बाजार में भी सुधार देखा जाता है।’

कैसे भिन्न है यह चक्र?

बीते समय में कई बार ऐसा हुआ है जब बाजार क्षेत्रीय संकट के दौर से गुजरा  लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक साथ इतने सारे देश सामूहिक रुप से इतने बड़े ऋण संकट के शिकार हो गए हों।

रेलिगेयर हिचेंस हैरिसन के रिसर्च के उप मुखिया विनोद नायर कहते हैं, ‘एक तरफ जहां कई देशों ने बैकों और वित्तीय संस्थानों को आर्थिक राहत उपलब्ध कराई है वहीं पाकिस्तान, अर्जेंटीना, यूक्रेन और आइसलैंड जैसे देश पैसों के अभाव में बिल नहीं चुकाने की वजह से दिवालिया हो चुके हैं।’

मंदी का मौजूदा दौर चक्रीय मंदी के बाजार से काफी बड़ा है और यह ‘1929 के डिप्रेशन’ जितना गंभीर नहीं हो सकता है। नायर कहते हैं, ‘कारोबारियों और उपभोक्ताओं का भरोसा टूटने के कारण वर्तमान चरण गंभीर लगता है और इसे संभलने में लंबा समय भी लग सकता है।’ इसका परिणाम एक ऐसे चक्र के रूप में आता है जब उपभोक्ता और कारोबारी एक दूसरे पर विवास नहीं करते और नकदी ही सबकुछ होता है।

के आर चोकसी के प्रबंध निदेशक देवेन चोकसी कहते हैं, ‘कोलेटरल के मूल्यों में आई गिरावट और ऋण संकट के कारण बैंकों और एनबीएफसी ने अपने बकाए को वापस पाने के लिए शेयरों की बिकवाली शुरू कर दी जिससे कमजोर बाजार में और गिरावट आई।’

मंदी के वर्तमान चरण में विदेशी निवेश भी एक बड़ा फर्क लाता है। जासानी कहते हैं, ‘साल 1992 और 2000 में जब बाजार में तेजी का दौर था तो स्थानीय पैसों के साथ-साथ एफआईआई का निवेश भी बढ़ा था।’ वर्तमान चक्र में बाजार की तेजी के लिए भी एफआईआई प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे और बाजार में आई गिरावट का कारण भी वही हैं। मूल्यांकन के मामले में भी भिन्नता है।

पिछले उदाहरणों से अलग इस बार प्राइस टु अर्निंग (पीई) स्तर उचित है और इसे कॉर्पोरेट की अच्छी आय का सहारा प्राप्त है। एनसीडीईएक्स के प्रमुख अर्थशास्त्री मदन सबनविस कहते हैं, ‘शेयर बाजार पैसे से चलते हैं, जिनके पोर्टफोलियो विविध होते हैं। एक श्रेणी में हुए घाटे की भरपाई के लिए वे दूसरे सेक्टरों और देशों में बिक्री करते हैं और परिणामस्वरूप इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं।’ मंदी के पिछले चक्र के गुणधर्मों की तुलना में इस बार कई भिन्नताएं देखने को मिली हैं।

अप्रैल 1992 से अप्रैल 93

मंदी के पहले चरण में बाजार में 53 प्रतिशत की गिरावट आई थी। यह वही समय था जब भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला गया था (विदेशी निवेश के लिए) और कॉरपोरेट निवेश की शुरुआत हो रही थी। वित्त वर्ष 92 के नकारात्मक औद्योगिक विकास, दहाई अंकों में मुद्रास्फीति और सकल घरेलू उत्पाद 1.3 प्रतिशत होने के बाद इस अवधि की शुरुआत हुई थी।

ब्याज दरों के 17 प्रतिशत बने रहने से गिरावट का दौर लंबे समय तक चला। हालांकि, इस गिरावट की शुरुआत प्रतिभूति घोटाले से हुई थी। हर्षद मेहता द्वारा बैकों से पैसे उधार लेकर चुनिंदा शेयरों में निवेश किए जाने और साथ ही विभिन्न शेयरों की बिकवाली से एक बुलबुला बना था और बाजार धराशायी हो गया था।

न चल सकने वाले भाव रिप्लेसमेंट वैल्यू जैसों सिध्दांतों के नतीजे थे (सेंसेक्स का कारोबार आय के 37 गुना पर किया जा रहा था)। उस दौर की तेजी के दिनों के चहेते शेयर-एसीसी-में 200 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई थी और इसका कारोबार 10,500 रुपये पर किया जा रहा था। एक साल की मंदी के बाद तीन महीने तक मजबूती का दौर चला था।

सितंबर 94 से दिसंबर 96

उदारीकरण का प्रभाव भारत में बहुत अच्छे रूप में सामने आया। वित्त वर्ष 96 में औद्योगिक विकास दर 13 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई और तीन सालों तक (वित्त वर्ष 95 से वित्त वर्ष 97 तक) सकल घरेलू विकास की दर 7 प्रतिशत से अधिक बनी रही।

ब्याज दरों के कम होने और विनिमय दर लचीली होने के कारण कॉरपोरेट्स ने 1994 से 96 के दौरान विदेशी बाजारों से 7 अरब डॉलर जुटाए थे। मोतीलाल ओसवाल सिक्योरिटीज के रिसर्च और पालिसी के उपाध्यक्ष मनीष संथालिया कहते हैं, ‘उस समय क्षमताओं में बढ़ोतरी के लिए कदम उठाए जा रहे थे (खास तौर से कपड़ा और स्टील उद्योग द्वारा)।

आर्थिक मंदी से निपटने के लिए ये उद्योग पहले से तैयार नहीं थे।’ अत्यधिक मूल्यांकन (साल 1994 में सेंसेक्स का पीई 44 गुना था) और साल 1996 में चुनाव से पहले महंगाई से निपटने के लिए की गई मौद्रिक कड़ाई से शेयर बाजार में लगभग 40 प्रतिशत की बढ़त देखी गई। इस चरण में कई महंगे आईपीओ भी आए। मंदी के चरण की समाप्ति 17 महीनों में हुई (जनवरी 1996)। इसके बाद मजबूती का दौर आया और इस दौरान मंदी भी देखी गई। साथ ही अगले 10 महीनों तक शेयरों की कीमतों में गिरावट का दौर जारी रहा था।

अगस्त 97 से दिसंबर 98

मंदी के इस चरण में बाजार में अपेक्षाकृत अधिक गिरावट देखी गई। एक तरफ कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह सितंबर 1994 में शुरु हुए मंदी के दौर का ही एक हिस्सा था जबकि अन्य इसे एक अलग मामला मानते हैं। यह चरण औद्योगिक मंदी का था जहां विकास दर घट कर वित्त वर्ष 98 में 6.7 प्रतिशत और वित्त वर्ष 99 में 4.1 प्रतिशत रह गई थी।

एशियाई संकट का प्रभाव रुपये के मूल्य पर भी देखा गया और इसमें लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट आई थी। वित्त वर्ष 96 में की गई मौद्रिक कड़ाई, जब सीआरआर को लगभग 1.5 प्रतिशत बढ़ाया गया था, से औद्योगिक विकास भी प्रभावित हुआ था। अतिरिक्त क्षमताओं के कारण निवेश और औद्योगिक विकास में कमी आई थी।

फरवरी 2000 से सितंबर 01

ब्याज दरों के कम होने के बावजूद इस अवधि के दौरान वित्त वर्ष 2001 और 2002 में औद्योगिक विकास में कमी देखी गई। इस चरण में एनरॉन, वर्ल्डकॉम जैसी कंपनियां दिवालिया हो गई थीं और आर्थर एंडरसन बंद हो गई थी।

हालांकि, इस अवधि को डॉटकॉम बुलबुले के लिए ज्यादा याद किया जाएगा क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी, कम्युनिकेशन तथा मीडिया कंपनियों की कीमतें और मूल्यांकन आसमान को छू रहे थे। संतुलित होने के बाद नई अर्थव्यवस्था वाली कंपनियों के मूल्यों में लगभग आधे की गिरावट आई और बाजार पर इसका प्रभाव साफ तौर पर देखा गया।

जानी मानी कंपनियों में सर्वाधिक गिरावट विप्रो में देखी गई, इसके शेयर की कीमतों में लगभग 84 प्रतिशत की कमी देखी गई थी। बाजार में आई गिरावट के बाद केतन पारिख का घोटाला उजागर होने के बाद के10 शेयरों जैसे डीएसक्यू सॉफ्टवेयर, पेंटामीडिया और एचएफसीएल आदि का बुलबुला फूटा था।

19 महीने की अवधि के दौरान सेंसेक्स और निफ्टी में लगभग 51 प्रतिशत की गिरावट बनी रही। सबसे अधिक तकलीफदेह बात यह थी कि अगसत 2003 तक इस तरह की गतिविध थोड़ी-बहुत बनी रही थी। इस प्रकार मंदी का प्रभाव लगभग साढ़े तीन साल तक बरकरार रहा।

जनवरी 2008 से–?

बाजार में आई वर्तमान गिरावट में वैश्विक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगस्त 2007 में प्रकाश में आए ऋण संकट के साथ मुद्रास्फीति, ब्याज दरों और कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से विश्व भर में शेयरों की कीमतों में गिरावट आने लगी और भारतीय बाजार भी विदेशी घटनाओं के साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगा।

तेजी के दिनों में सबसे अधिक लाभ बुनियादी ढांचा, बैंकिंग और रियल्टी को हुआ था। आश्चर्य की बात नहीं है कि हाउसिंग सेक्टर को मंदी का सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। बीएसई रियल्टी सूचकांक में एक महीने में 56 प्रतिशत और पिछले एक साल में 82 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है।

इसके अलावा भी कई ऐसे शेयर हैं जिनकी कीमतों में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है। इससे पता चलता है कि बढ़ा-चढ़ा कर किए गए मूल्यांकन का समापन होना शुरू हो गया है और समस्या अभी खत्म होने वाली नहीं है।

गिरावट के पिछले चरण से अलग इस बार कंपनियों के मूल्यांकन उतने अधिक नहीं थे जितने साल 2000 की डॉटकॉम अवधि में थे। इस बार घोटाले या गड़बड़झाले की भी कोई खबर नहीं है और उल्लेखनीय बात यह है कि पिछली बार की गिरावटों में यह एक महत्वपूर्ण कारक था। साल 2004-06 की मंदी की अवधि की तरह ही फार्मास्युटिकल्स और एफएमसीजी कंपनियों का प्रदर्शन बेहतर रहा है और इनमें क्रमश: मात्र 26 प्रतिशत और 15 की गिरावट देखी गई है।

निष्कर्ष

मंदी का यह दौर पिछले 10 महीने से जारी है और हमें यह नहीं मालूम कि सेंसेक्स और विश्व के अन्य सूचकांकों का न्यूनतम स्तर क्या होगा। विश्व भर के केंद्रीय बैंकों द्वारा तरलता के लिए तीन लाख करोड़ रुपये लगाए गए हैं। सवाल यह है कि इस दर्द का अंत कब होगा? इस बारे में विशेषज्ञों की मान्यताएं अलग-अलग हैं।

नायर का मानना है कि बाजार का न्यूनतम स्तर 8,500 से 9,500 के बीच होगा और मजबूती आने की अवधि 12 से 18 महीनों की होगी। जासानी को भरोसा है कि मंदी का यह दौर 13 से 21 महीने तक जारी रहेगा। जासानी कहते हैं, ‘जब बिजनेस चैनल देखने वालों की संख्या अभी तक के न्यूनतम स्तर पर आ गई हो तो यह प्रदर्शित करता है किलोगों की आशाएं अब समाप्त हो गई हैं और बुरे दिन गुजर चुके हैं।’

कंपनियों की वर्तमान समस्या उनकी दीर्घावधि के प्ररिप्रेक्ष्य या उनके कारोबारी मॉडल की मजबूती को लेकर नहीं है बल्कि कठिन अवधि से निपटने की उनकी क्षमताओं को लेकर है जब परिचालनों और विस्तार योजनाओं को जारी रखने के लिए ऋण के जरिए कोष जुटाना मुश्किल हो रहा है, उपभोक्ता अपने खर्च और विभिन्न संपत्ति वर्गों में निवेश में कटौती करके नकदी पर भरोसा कर रहे हैं।

हिंडाल्को, टाटा स्टील तथा टाटा मोटर्स जैसी कंपनियां न केवल कठिन कारोबारी परिदृश्यों से गुजर रही हैं बल्कि बड़े अधिग्रहणों के कारण ऋण का बोझ भी झेल रही हैं। इसी तरह, भारतीय कंपनियों, जिनने कुल मिलाकर विदेशी बाजार से 31 अरब डॉलर जुटाए थे (इसमें परिवर्तनीय बॉन्ड भी शामिल हैं) को अपने वादे पूरे करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि अगले तीन वर्षों में उन्हें वापस भुगतान भी करना है।

वर्तमान आर्थिक परिस्थितियां फंडामेंटल कमजोर होने की तरफ इशारा करती हैं। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ऋण संकट के लिए कई तरह के उपाय (सीआरआर तथा रेपो रेट में कटौती, ईसीबी नियमों में कटौती, एयरलाइन कंपनियों के लिए ईंधन-उधारी की समय-सीमा में बढ़ोतरी और पूंजी पर्याप्तता अनुपात बढ़ाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पैसे डालना) किए हैं जिससे अर्थव्यवस्था और कॉरपोरेट को कठिन परिस्थितियों से जूझने में मदद मिलनी चाहिए।

एक तरफ जहां इन उपायों और घटनाओं से सहारा मिलता है वहीं वैश्विक संकट अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त बाजार के न्यूनतम स्तर का अभी तक अंदाजा नहीं लग पाया है। कुछ लोग अभी भी आस लगाए बैठे हैं। अगर इतिहास का कोई वजूद है तो स्थिति में सुधार होने से पहले निराशा और अवसाद के चरण भी देखे जाएंगे।

First Published - October 26, 2008 | 11:09 PM IST

संबंधित पोस्ट