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मंदी का रोना, बिना अक्ल सोना

Last Updated- December 06, 2022 | 12:02 AM IST

सोना महज धातु ही नहीं बल्कि मंदी के बारे में सूचना देने का काम भी करता है। लेकिन कीमती धातुओं की कीमतों में आने वाले वक्त में कमी होने के आसार मंदी पर नजर रखने वालों के लिए खासे चौंकाने वाले हो सकते हैं।


हम इस वक्त घोर अनिश्चतता के दौर से गुजर रहे हैं। यह अनिश्चितता इसलिए नहीं है कि लोगों का पैसा डूबा है, बल्कि नौकरियां कम हुई हैं, उपभोक्ताओं की संख्या में कमी आई है, लोगों का विश्वास कम हुआ है। उनका आत्मविश्वास कमजोर हुआ है। हमने बेंचमार्क  भी खोया है, जिससे बाजार के विशेषज्ञ बाजार के बारे में कयास लगाते रहे हैं।


तो फिर यह समझा जाए कि क्या जेपी मॉर्गन की क्वांटिटेटिव स्किल्स और नॉर्दन रॉक की गुणवत्ता उस लायक नहीं रही कि वह बाजार की स्थिति के बारे में बता सकें? हम तो शायद इकनॉमिक्स की उसी तरह गवाही दे रहे हैं जैसा कभी इलियट ने दिया था कि इकनॉमिक्स के नियम बिल्कुल उसी तरह होते हैं,जैसे उसे खुद होने चाहिए बिल्कुल निष्ठुर और अगर आप ऐसा सोचते हैं कि विफल हो रही अर्थव्यवस्था से हम कुछ सीख सकते है तो हम मुगालते में हैं।


क्योंकि मूर्खों का सोना एक मृगमरीचिका की भांति है जो नियमित अंतराल पर उत्पन्न होते रहते हैं। लिहाजा कुछ तो सीख पाते हैं मगर कुछ हाथ पर हाथ धरे रह जाते हैं। इस बाबत अब्राहम लिकंन का कहना था कि कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बनाया जा सकता है, सभी लोगों को कभी कभार लेकिन सभी लोगों को एक साथ मूर्ख कभी नहीं बनाया जा सकता है।


बाजार भी बिल्कुल इसी की भांति काम करता है। वह खुद को बचाये रखने की जुगत में हम में से कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बनाने को काम जारी रखता है। लेकिन हम लोग सच्चाई जानने को हमेशा तत्पर रहते हैं,लिहाजा हमारे लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होती है कि कम से कम धोखा खाया जाए या फिर कम से कम मूर्ख बना जाए। इस वक्त सोना के  साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है।


यह एक दूसरी मृगमरीचिका का निर्माण कर रहा है जो एक शार्ट टर्म में ही चौंकानेवाले नतीजे दे सकता है। कहा जाए तो कुछ महीनों के दौरान ही हमें नतीजे प्राप्त हो सकते हैं। लेकिन कड़वा सच यह भी यह है कि बाजार को बर्बाद करने के लिए भी महज कुछ ही हफ्तों की दरकार होती है। अगर हम इतिहास के पन्नों में झांके तो हमें मालूम पड़ेगा कि 1857-1929 तक के 70 साल में बनी मिल्कियत को बर्बाद होने में महज तीन हफ्ते लगे।


लेकिन यहां इस वक्त हमारा ध्यान मौजूदा मंदी पर है कि किस कदर सोने की उफनती कीमतों ने स्टॉक,पेपर मनी से लेकर स्वैप ऑप्शन तक को प्रभावित किया है। सोने का चढ़ना और डॉलर का कमजोर होना एक सार्वभौमिक तथ्य की गवाही देता है और इस पर अगर एक गंभीर चिंतन किया जाए तो ज्यादातर लोगों की मानसिकता इसी की वकालत करेगाी कि बाजार बिल्कुल उलझ  कर रह गया है।


लिहाजा मंदी के चलते यदि सोना उफान पर है तो कायदे से इसकी कीमतें कम होने पर मंदी का दौर भी खत्म होना चाहिए। है न? पिछली दफा जब हमने सोने और चांदी के अनुपात की चर्चा की थी तो इनमें कमी होने के कोई संकेत हमें नही मिले थे। बल्कि तस्वीर बिल्कुल  उलटी हो चुकी है और लाखों लोगों के बेघर होने और 1 लाख से ज्यादा लोगों की नौकरी चले जाने के बावजूद भी सेंटीमेंट इंडीकेटर में कोई खास बदलाव नही आया है।


इससे दो बातों का पता चलता है,पहला यह कि साल 1980 और 2000 में बाजार में आई गिरावट को प्रिडिक्ट करने के बाद सोने-चांदी के अनुपात ने काम करना बंद कर दिया है,या फिर नही तो वास्तविक मंदी अभी शुरू नही हुई है। सो अगर ऐसी बात है तो फिर यह तूफान आने के पहली की शांति है। लिहाजा, सच जानने के इस पडाव पर हमें इस बात का पता नही है कि वास्तविक मंदी क्या कहर ढ़ाएगी।


लेकिन इंडीकेटर इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि क्राइसिस निश्चित तौर पर मौजूदा सोने और डॉलर की यथास्थिति से कहीं ज्यादा घातक साबित होगी। इस बात को बिल्कुल 1 साल हो चुके हैं जब अप्रैल 2007 में सोने की कीमत 1,000 डॉलर पर रखने का लक्ष्य बनाया गया था। अपेक्षित और निश्चित स्थिति फ्रैक्टल वाचिंग पर आधारित होते हैं।


मुझसे किसी व्यक्ति ने हालिया इलियट वेव्स पर हुए सम्मेलन में पूछा कि क्या होगा अगर इलियट वेव्स और फ्रैक्टल वाचिंग दोनों ही प्रसिद्ध हो जाएं या फिर यह काम करना बंद कर देगा? अपफ्रान्ट पर यह हमें थोड़ी खुशी देता है,कि इलियट वेव्स ने अनुमानत:काम किया था।


जबकि फ्रैक्टल वाचिंग की चर्चा हम करें तो पाएंगे कि इसका जवाब बेहद सरल है कि हम मानव की यह फितरत होती है कि हम शॉर्ट टर्म गेन पर इतने केन्द्रित हो जाते हैं कि लांग-टर्म गेन इंवेस्टमेंट्स वारेन बफेट्स जैसे निवेश गुरूओं के लिए छोड़ देते हैं और इनके परिणाम हमारे सामने हैं। हालांकि बफेट पिछले तीन दशकों से बाजार में हैं,जबकि जिन लांग-टर्म इंवेस्टमेंट्स की बात हम कर रहे हैं वो ज्यादा से ज्यादा कुछ महीनों के होते हैं या फिर नही तो बमुश्किल साल या दो साल के होते हैं।


मुनाफे की लड़ाई की प्रवृति ज्यादा लंबे समय की नही होती। यही वजह है कि वैश्विक स्तर पर भी इलोटिसीयन नंबर क्यूं न बढ़े,वो सिर्फ शॉर्ट-टर्म कांउट होते हैं जो ज्यादा ऊहापोह की स्थिति पैदा करते हैं। जबकि लांगर टर्म पर देखा जाए तो मौके हमेशा मौजूद होते हैं। सोने पर वापस लौटूं तो अब जबकि इसने अपेक्षित कीमत दर्ज कर ली है,हमारे लिए जरूरत इस बात की है कि हम अब सचेत हो जाएं।


क्या कुछ हफ्तों से सोने की कीमतों में जारी तेजी का दौर बीत चुका या फिर कुछ महीनों के लिए इसकी कीमतें गिरने की कगार पर हैं,कहां तक? और अगर मंदी का दौर खत्म मान लिया जाए तो गिरती सोने की कीमतों का मतलब होगा डॉलर में मजबूती और डॉलर में मजबूती का साफ मतलब होगा कि डाऊजोन्स में फिर से नई उछाल दर्ज होगी।


लिहाजा इससे कइयों की सोच और कॉमन सेन्स को चकरा कर रख देगी कि क्यूं अमेरिकी बाजार के मजबूत होने पर ब्राजील, रूस, भारत, चीन और रोमानिया की अर्थव्यवस्था को गिरना चााहिए। वक्त और कीमत मेल (टाइम एंड प्राइस सिमेट्री) के मुताबिक ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सोना अपनी चरम ऊंचाई को पा चुका है और अब यह फिर से 800 डॉलर के स्तर पर आने की दहलीज पर है।


इसका दिलचस्प पहलू यह है कि अगर हम सही ओर हैं तो इस ओर इक्विटीज में नई ऊंचाइयां दर्ज होंगी जबकि नए मूर्ख नए सोने की तलाश में चल पड़ेंगें।


मुकुल पॉल (ऑरफेयस कैपिटल्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं)

First Published - April 28, 2008 | 2:21 PM IST

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