सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों द्वारा कर्ज देने में जोखिम से बचने की प्रवृत्ति अब निजी क्षेत्र के बैंकों तक बढ़ता नजर आ रहा है। रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के मुताबिक इसकी वजह से आर्थिक सुधार पर बुरा असर पड़ सकता है।
नीतिगत कदमों से वित्तीय बाजारों की स्थिति सुधरी है और वित्तीय संस्थानों व परिवारों के नकदी का दबाव कम हुआ है। साथ ही उधारी की लागत कम हुई है और नकदी की स्थिति में सुधार हुई है। हालांकि जोखिम से बचने और मांग कम होने की वजह से बैंकों व गैर बैंक दोनों की स्थिति पर असर डाला है।
थोक कर्ज (कॉर्पोरेट और उद्योग को दिया जाने वाला कर्ज) में बढ़ोतरी के एक विश्लेषण से पता चलता है कि सरकारी बैंकों (पीएसबी) ने सिर्फ उच्च गुणवत्ता वाले कर्ज लेने वालों को कर्ज दिया है। एफएसआर में कहा गया है कि एए और उसके ऊपर की श्रेणियों को छोड़ दें तो हर रेटिंग श्रेणी को मिलने वाला कर्ज कम हुआ है।
इसके विपरीत निजी बैंकों ने सभी रेटिंग श्रेणियों में कर्ज बढ़ाया है और पीएसयू व गैर पीएसयू दोनों को ही कर्ज दिया है। इससे संकेत मिलता है कि सरकारी बैंकों के विपरीत निजी बैंकों ने जोखिम से बचने की कम कवायद की है, जबकि सरकारी बैंक अपने जोखिम प्रबंधन गतिविधियों में सुधार की कवायद कर रहे हैं।
इसमें कहा गया है कि बहरहाल निजी बैंकों का व्यवहार पिछली दो तिमाहियों में पिछले 3 साल में उनके व्यवहार की तुलना में बिल्कुल उलट है। केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जोखिम को लेकर ज्यादा चिंतित हैं और वह चुनिंदा ग्राहकों को ही चुन रहे हैं। बैंकिंग व्यवस्था में सुधार के लिए यह बेहतर है। जोखिम कम होने पर रिकवरी पर असर पड़ता है। इस पहलू से देखें तो सरकार ने पहले ही सूक्ष्म, लगु और मझोले उद्योगों के कर्ज पर गारंटी की योजना पेश की है। उन्होंने कहा कि यह कवर अन्य क्षेत्रों तक बढ़ाया जा सकता है।