करीब दो वर्ष पहले 7 जुलाई, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में अब तक का सबसे बड़ा फेरबदल किया। उन्होंने मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या को 54 से बढ़ाकर 78 कर दिया। इस दौरान करीब एक दर्जन मंत्रियों को हटाया गया, आधा दर्जन मंत्रियों को राज्य मंत्री से केंद्रीय मंत्री का दर्जा दिया गया और स्वास्थ्य, श्रम, शिक्षा, संचार, रेलवे, नागर विमानन तथा पेट्रोलियम मंत्रालयों में नई नियुक्तियां की गईं। उस व्यापक फेरबदल की यह कुछ बानगी रही।
याद रहे कि उस दिन दो और बड़े बदलावों की घोषणा की गई थी। सहकारिता विभाग जो उस समय तक कृषि मंत्रालय के अधीन था उसे गृह मंत्री के अधीन स्वतंत्र मंत्रालय बना दिया गया। दूसरा बदलाव था सार्वजनिक उपक्रम विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन करना। उस वक्त तक यह विभाग भारी उद्योग मंत्रालय का हिस्सा था। बीते दो वर्षों में मंत्रियों के नए मंत्रालय का दायित्व संभालने के बाद के प्रदर्शन को देखें तो वह मिलाजुला रहा है।
स्वास्थ्य मंत्री शायद इस बात का श्रेय ले सकते हैं कि महामारी के दौरान हमें कोई बड़ा झटका नहीं झेलना पड़ा। शिक्षा मंत्रालय में भी कोई नई हलचल देखने को नहीं मिली। हालांकि बालासोर ट्रेन हादसे ने भारतीय रेलवे को जरूर हिलाकर रख दिया। उस हादसे के पहले भारतीय रेल नई वंदे भारत ट्रेनों और बढ़े हुए निवेश के लिए सुर्खियों में थी। इस बीच श्रम नीति सुधारों के लिए नई श्रम संहिताओं को अधिसूचित करने की दिशा में भी पहल हुई।
दूरसंचार उद्योग में स्पेक्ट्रम बकाये में इजाफे के कारण जो दिक्कत आ रही थी उसे दूर किया गया और 5जी सेवाओं को शुरू किया गया। इस बीच इस क्षेत्र में दो कंपनियों के दबदबे की आशंका भी लगातार बनी रही। इस बीच सरकारी कंपनी भारत संचार निगम लिमिटेड को एक और वित्तीय सहायता पैकेज प्रदान किया गया लेकिन महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड के भविष्य को लेकर कोई स्पष्ट खाका न होने के कारण वह संकट में बनी रही। नागर विमानन में एयर इंडिया का निजीकरण आखिरकार पूरा हो गया।
परंतु बढ़ता विमान किराया और एक और निजी विमानन कंपनी का पतन चिंता का विषय बना हुआ है। इसके विपरीत भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड के निजीकरण की योजना स्थगित है, कच्चे तेल के आयात पर हमारी निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है और ईंधन की कीमत तय करने के मामले में सरकारी तेल कंपनियां भी उतनी स्वतंत्र नहीं हैं जितना उन्होंने सोचा था।
इन दो वर्षों में सहकारिता मंत्रालय ने क्या हासिल किया? याद रहे कि नए बने सहकारिता मंत्रालय को गृह मंत्रालय को सौंपने की वजह थी सरकार का सहकारिता क्षेत्र को मजबूत बनाने पर जोर। ध्यान रहे देश के चीनी उत्पादन का 35 फीसदी सहकारिता क्षेत्र से आता है जबकि दूध उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 10 फीसदी है। वित्तीय क्षेत्र में भी यह तेजी से छाप छोड़ रहा है। नियमन भी एक अहम मुद्दा है जिसे नए मंत्रालय को निपटाना होगा क्योंकि माना जा रहा था कि गृह मंत्री राजनीतिक दृष्टि से भी सहकारिता क्षेत्र पर जो ध्यान देंगे वह सत्ताधारी दल को चुनावी लाभ दिलाएगा।
नए सहकारिता मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र और उसकी शक्तियों के अतिशय इस्तेमाल की कोई घटना भी सामने नहीं आई जबकि योजनाओं, राहत और रियायतों की भरमार रही। इसमें प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटीज (पैक्स) का कंप्यूटरीकरण, राज्यों द्वारा पैक्स को अपनाने के लिए आदर्श बाई लॉज की तैयारी ताकि वे 25 नई कारोबारी गतिविधियों में शामिल हो सकें और पैक्स एक सामान्य सेवा केंद्र के रूप में काम करके अपनी व्यवहार्यता में सुधार ला सकें तथा सहकारी समितियों को सरकारी खरीद पोर्टल जीईएम पर खरीदार के रूप में चिह्नित किया जा सके।
इसके अलावा संसद में एक विधेयक पेश किया गया ताकि बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम यानी एमएससीएस ऐक्ट, 2002 में संशोधन करके 97वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को लागू करके इनका संचालन मजबूत किया जा सके, पारदर्शिता बढ़ाई जा सके, जवाबदेही बढ़ाई जा सके और इनकी चुनाव प्रक्रिया में सुधार किया जा सके।
इसके अलावा बीते दो वर्षों के केंद्रीय बजट में भी सहकारिता क्षेत्र को उदारतापूर्वक कर राहत प्रदान की गई है। इसमें एक करोड़ से 10 करोड़ रुपये के बीच आय वाली सहकारी समितियों पर लगने वाले उपकर को 12 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करना शामिल है। इन समितियों पर लगने वाले न्यूनतम वैकल्पिक कर को भी 18.5 फीसदी से कम करके 15 फीसदी किया गया, नई सहकारी समितियों के लिए कर दरों को 30 फीसदी से कम करके सीधे 15 फीसदी किया गया। इन समितियों की नकदी निकासी की सीमा को एक करोड़ रुपये से बढ़ाकर 3 करोड़ रुपये कर दिया गया। सहकारी चीनी मिलों को उदारतापूर्वक कर रियायत प्रदान की गई।
अलग मंत्रालय के बाद जहां सहकारिता क्षेत्र को गति मिली वहीं सार्वजनिक उपक्रम विभाग को वित्त मंत्रालय के हवाले करने के बावजूद उसके निगरानी वाले क्षेत्रों में कोई खास बेहतरी नहीं नजर आई। यह विभाग केंद्र सरकार के सभी सार्वजनिक उपक्रमों के लिए नोडल एजेंसी का काम करता है और उनसे जुड़ी नीतियां तैयार करता है। चूंकि सरकार ने पहले ही निजीकरण की नीति घोषित कर दी है और सरकारी उपक्रमों की परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण की बात कही है इसलिए विभाग बदलने का निर्णय भी काफी अहम था। अतीत में अक्सर मंत्रालयों के बीच के मतभेद भी विनिवेश को बाधित करते थे। आशा थी कि वित्त मंत्रालय के अधीन आने के बाद उक्त समस्याएं नहीं आएंगी।
बहरहाल, बीते दो वर्षों में सरकारी उपक्रमों के विनिवेश या निजीकरण को लेकर सरकारी नीति में कोई बदलाव नहीं आया। कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के विनिवेश से जुड़ी अनिच्छा इसका उदाहरण है। शायद इस विभाग को भारी उद्योग मंत्रालय से वित्त मंत्रालय स्थानांतरित करने का निर्णय अधूरा था और इससे वांछित नतीजे हासिल नहीं हो सके। सरकार या वित्त मंत्रालय को तमाम गैर रणनीतिक सार्वजनिक उपक्रमों को सार्वजनिक उपक्रम विभाग के अधीन करने करने के लिए पहल करनी थी। फिलहाल वित्त मंत्रालय का नियंत्रण चंद सरकारी उपक्रमों पर ही है।
अगर प्रधानमंत्री मोदी सहकारी क्षेत्र की तरह ही सरकारी उपक्रमों के क्षेत्र में विनिवेश में गति लाना चाहते हैं तो यह जरूरी है कि वित्त मंत्रालय को अधिकार संपन्न बनाया जाए और सभी गैर रणनीतिक सरकारी उपक्रमों को सार्वजनिक उपक्रम विभाग के अधीन लाया जाए। फिलहाल इन्हें अलग-अलग मंत्रालय चलाते हैं।
आर्थिक और सामाजिक-आर्थिक नीति के नजरिये से मोदी मंत्रिमंडल में बदलाव का सबसे बड़ा प्रभाव सहकारिता क्षेत्र और सार्वजनिक उपक्रम क्षेत्र में पड़ना था। सहकारिता क्षेत्र में कुछ नीतिगत कदम देखने को मिले लेकिन सार्वजनिक उपक्रम विभाग की शक्तियों या दायरे में कोई इजाफा नहीं किया गया। इस विभाग को लेकर वित्त मंत्रालय का एजेंडा केवल पूंजीगत व्यय लक्ष्यों की समीक्षा, सरकारी उपक्रमों के संचालन, कर्मचारियों के वेतन की समीक्षा, जीईएम के तहत सरकारी खरीद या सरकारी उपक्रमों के कारोबारी उत्तरदायित्व के आकलन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। सरकार को सभी गैर रणनीतिक सरकारी उपक्रमों के विनिवेश और निजीकरण पर भी ध्यान देना चाहिए।