दुनिया भर में फैली हुई आर्थिक मंदी और नकदी की किल्लत ने भारतीय कंपनियों की वित्तीय सेहत भी बिगाड़ कर रख दी है।
खास तौर पर अक्टूबर 2008 से इन पर ज्यादा बोझ पड़ा है। इसीलिए पहले से कहीं ज्यादा कंपनियां अपने कर्ज के भूत का इलाज ढूंढने पर जुट गई हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक ऐसी हालत में कर्ज की शर्तों को बदलने का हिमायती दिख रहा है, इसके बावजूद बैंकों के फंसे हुए कर्ज यानी गैर निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) में लगातार इजाफा होता जा रहा है। इन सबके बीच कंपनियां कर्ज की शर्तें बदलवाने यानी कॉर्पोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर) का रास्ता अख्त्यार कर रही हैं।
पिछले वित्त वर्ष के अंत में ऐसी कंपनियों की तादाद 34 थी, जबकि वर्ष 2007-08 के अंत में यह आंकड़ा केवल 10 था। सीडीआर की सुविधा 2002-03 में शुरू की गई थी। इसके जरिये कई कर्जदाताओं को एक साथ लाकर किसी कंपनी को संकट से उबारा जाता है, हालांकि विदेशी बैंक इसमें अभी अपने हाथ नहीं डाल रहे हैं।
सीडीआर की प्रणाली से जुड़े कुछ सूत्रों ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि जिन 34 कंपनियों के लिए कर्ज की शर्तें बदली जा रही हैं, उनमें से 14 वस्त्र उद्योग से जुड़ी हैं और तकरीबन आधा दर्जन इस्पात के क्षेत्र से जुड़ी हैं। इसके अलावा वाहन पुर्जे बनाने वाली कंपनियां और रिटेल क्षेत्र से सुभिक्षा भी इसी जमात में शामिल हैं।
सूत्रों ने यह भी बताया कि वॉकहार्ट भी कुछ हफ्तों में हस फेहरिस्त में शामिल हो सकती है। कंपनी ने आईसीआईसीआई बैंक के जरिये सीडीआर की बात कही है। कर्जदाताओं का कहना है कि कई कंपनियां इतने अधिक कर्ज को झेलने के लायक नहीं बची हैं, इसलिए अगले 6 से 9 महीने के दौरान सीडीआर के लिए कई और मामले सामने आ सकते हैं।
एक सरकारी बैंक के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अगर किसी कंपनी से वसूली करना मुश्किल हो, तो किसी भी परेशानी से बचने का सबसे अच्छा तरीका सीडीआर होता है। चौथी तिमाही के दौरान संकट में फंसी रिटेल स्टोर शृंखला सुभिक्षा को भी सीडीआर का सहारा दे दिया गया था।
यह अपने आप में पहला मामला है, जब ऐसे रिटेलर के कर्ज की शर्तें बदली जा रही हैं, जिसे पहली तिमाही में घाटा हुआ है और उसने यह भी कह दिया है कि अपने कर्मचारियों और संपत्ति मालिकों के बकाये वह चुका नहीं पाएगी। कर्जदाता आम तौर पर ऐसे मामले 90 दिन के अंदर निपटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सुभिक्षा का मामला लंबा खिंच सकता है क्योंकि उसके खातों की पड़ताल चल रही है और कुछ कर्जदाता कंपनी बेचने की भी मांग कर रहे हैं।
रिजर्व बैंक ने अगस्त 2008 में कर्ज की शर्तें बदलने के नियमों में बदलाव किया था और उसमें गैर औद्योगिक कर्ज को भी शामिल किया था। इस तरह अब गैर औद्योगिक कंपनियां भी सीडीआर का इस्तेमाल कर सकती हैं और सुभिक्षा के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है।
एक बैंक अधिकारी ने बताया कि सीडीआर में कई विकल्प होते हैं। इनमें कर्ज की अदायगी की अवधि बढ़ाना या कर्ज के एक हिस्से को परिवर्तनीय उपकरणों में बदल देना भी शामिल है। उन्होंने कहा, ‘अगर मामला बहुत बिगड़ जाता है और हमें लगता है कि कंपनी का प्रबंधन हालत सुधारने की कुव्वत नहीं रखता है, तो हम प्रबंधन को ही बदल डालते हैं।’
लेकिन सीडीआर का एक अंधियारा पहलू भी है। बैंकों को तो यह बहुत पसंद है क्योंकि इससे वसूली की उनकी उम्मीद बढ़ जाती है। लेकिन कंपनियों की साख तय करने वाली एजेंसियां इसे सख्त नापसंद करती हैं। ऐसी कंपनियों को वे खराब संपत्ति मानती हैं।
एक बड़ी रेटिंग एजेंसी के एक अधिकारी ने बताया, ‘पुराने मामलों पर नजर डालें, तो हमें पता चलता है कि ऐसी कई कंपनियां, जिनके कर्ज की शर्तें बदली गईं, बाद में खराब संपत्ति में तब्दील हो गईं।’
पैसा नहीं, इसलिए ज्यादा से ज्यादा कंपनियां पकड़ रही हैं सीडीआर का रास्ता
पिछले वित्त वर्ष में 34 कंपनियों ने किया आवेदन, उससे पहले केवल 10
ज्यादातर कंपनियां वस्त्र उद्योग की, सुभिक्षा भी शामिल
दवा निर्माता वॉकहार्ट भी शामिल हो सकती है इस जमात में
बैंकों को पसंद क्योंकि बढ़ जाती है वसूली की उम्मीद
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को नापसंद क्योंकि पैसा फंसने का अंदेशा
