कहते है कि जब खिलाड़ियों का ही अंदाज बदल जाए तो खेल के तौर तरीके ही पूरी तरह से बदल जाते हैं।
बॉलीवुड में भी इन दिनों कुछ इसी तरह की बयार चल रही है, जहां नये खिलाड़ी ही खेल के कायदे-कानून तय कर रहे हैं और पुराने दिग्गजों की चाल पस्त पड़ती जा रही है।
मसलन, बिग पिक्चर्स (ऐडलैब्स), यूटीवी (यूटीवी मोशन पिक्चर्स और यूटीवी स्पॉट बॉय) और परसेप्ट पिक्चर्स जैसे बैनरों की बादशाहत बढ़ती जा रही है और यशराज फिल्म्स, मुक्ता आट्र्स और राजश्री जैसे बैनरों की रफ्तार सुस्त पड़ गई है। इन नये खिलाड़ियों की फिल्में टिकट खिड़की पर तो कामयाबी हासिल कर ही रही हैं साथ ही समीक्षकों की वाहवाही बटोरने में भी सफल हो रही हैं।
कुछ भी हो इनमें और बॉलीवुड के स्थापित बैनरों में एक अंतर साफ है। वह यह कि पुराने दिग्गज जहां विशुद्ध फिल्मकार हैं या फिर नामचीन फिल्मकारों की विरासत संभाल रहे हैं। वहीं नये खिलाड़ी मूल रूप से कारोबारी जगत के दिग्गज हैं, लेकिन इनके फिल्म बनाने के सेंस पर किसी को कोई शक-शुबहा नहीं है। तभी तो ये बैनर नये ऊर्जावान फिल्मकारों के शरणगाह बनते जा रहे हैं।
फिल्म विश्लेषक तरण आदर्श कहते हैं, ‘इन प्रोडक्शन हाउसों में सिर्फ एक ही चीज को तरजीह दी जाती हैं, वह है काम और सिर्फ काम। यहां पर नये फिल्मकारों को उनकी आजादी से फिल्में बनाने की छूट दी जाती है। इसका नतीजा भी हम सबके सामने है।’ दूसरी ओर परसेप्ट के प्रबंध निदेशक शैलेंद्र सिंह नये बैनरों के बढ़ते दबदबे को उनकी सोच को बताते हैं।
वह कहते हैं, ‘हम अलग-अलग विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिशों में लगे रहते हैं ताकि दर्शकों को कुछ न कुछ नया मिलता रहे। हम किसी एक खास चीज के साथ बंधना पसंद नहीं करते। ‘
अवार्ड में जलवा
इन नये दिग्गजों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तो नोट कमा ही रही हैं, अवार्ड समारोहों में भी इनका जलवा कायम होता जा रहा है। मसलन-इस साल अभी तक हुए फिल्मफेयर अवार्ड्स और स्टार स्क्रीन अवार्ड में ‘जोधा अकबर’ और ‘फैशन’ ने ही लगभग सारे अवार्ड पर हाथ साफ कर लिया। इसी तरह पिछले साल ‘रंग दे बसंती’ ने भी कुछ ऐसा ही किया था।
दो नये निर्देशकों नीरज पांडेय की ‘ऐ वेडनेसडे’ और राजकुमार गुप्ता की ‘आमिर’ ने आम आदमी को झझकोर कर रख दिया। अनुराग कश्यप की देवदास के रीमिक्स के तौर पर बनी ‘देव डी’ ने आधुनिक देवदास को दिखाकर एक बिलकुल नये देवदास का छवि पेश की।
गंभीर फिल्म बनाने वाले श्याम बेनेगल ने ‘वेलकम टू सानपुर’ के रूप में ऋषिकेश मुखर्जी की शैली की हल्की फुल्की फिल्म बनाकर दर्शकों को एक नायाब तोहफा दिया। इन सभी फिल्मों में एक ही समानता है कि इन्हें यूटीवी ने बनाया है। इसी तरह बिग पिक्चर्स की ‘रॉक ऑन’ और परसेप्ट की ‘फिराक’, ‘खुदा के लिए’ और ‘रामचंद पाकिस्तानी’ जैसी फिल्मों ने भी काफी सुर्खियां बटोरीं।
दूसरी ओर इस दौरान यशराज फिल्म्स की ‘रब ने बना दी जोड़ी’ को अगर छोड़ दें तो उनकी कोई फिल्म कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाई। सुभाष घई के ‘मुक्ता आट्र्स’ के नाम ‘युवराज’ के तौर नाकामयाबी ही हाथ लगी। इस फिल्म को तगड़ी स्टार कास्ट भी नहीं बचा पाई। दूसरी ओर राजश्री प्रोडक्शंस भी ‘विवाह’ के बाद अभी तक सफलता का इंतजार भर कर रहा है।
फिल्मों के जानकार कोमल नाहटा इन नये बैनरों की सफलता का बहुत ज्यादा श्रेय इनकी मार्केटिंग करने के तरीके को देते हैं। वह कहते हैं, ‘ये बैनर फिल्मों की मार्केटिंग बहुत बढ़िया तरीके से करते हैं। कई बार तो फिल्म के कुल बजट के बराबर रकम ही मार्केटिंग पर खर्च की जाती है।’
कमाई में दम
कमाई के मोर्चे पर भी इन बैनरों के तले बनने वाली फिल्मों का प्रदर्शन काफी बेहतर है। मिसाल के तौर पर ‘रंग दे बसंती’ का ही उदाहरण लें, जो लगभग 25 करोड़ रुपये में बनकर तैयार हुई थी। लेकिन इसने निर्माता की जेब में 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कमाई डाल दी।
इसी तरह आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘जोधा-अकबर’ का बजट 40 करोड़ रुपये के आसपास था, लेकिन इसने 60 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कमाई की। छोटे बजट की ‘ऐ वेडनेसडे’ कमाई के मामले में काफी बड़ी साबित हुई। ‘बिग पिक्चर्स’ और रितेश सिद्धवानी ने मिलकर ‘रॉक ऑन’ के जरिये काफी कमाई की।
