यह इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनैशनल इकनॉमिक रिलेशंस (इक्रियर) द्वारा आयोजित सेमिनार में पढ़े गए पेपर का एक संग्रह है।
विदेश मंत्रालय की ओर से आयोजित सेमिनार में दो मुद्दों – कृषि सुधार और यूएसए-इंडिया एग्रीकल्चरल नॉलेज इनीशिएटिव के संरक्षण में व्यापारिक निवेश के परिदृश्य – पर चर्चा की गई। इस पुस्तक संग्रह में खास कर गरीब ग्रामीणों के लाभ के लिए कृषि में निजी-सार्वजनिक भागीदारी पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
‘रीशेपिंग एग्रीकल्चर ट्रेड पॉलिसी’ अध्याय में सुरभि मित्तल और अन्य लेखकों ने इस बात जोर दिया है कि भारत को उत्पादन बढ़ाकर आत्मनिर्भरता हासिल करने के बजाय व्यापारोन्मुखी कृषि विकास के मॉडल पर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन इसमें पूरी तरह से सावधानी बरते जाने की सलाह दी गई है।
व्यापार वार्ताओं के दोहा दौर में माना गया था कि कारोबार को आगे बढ़ाया जाएगा, लेकिन यह विफल रहा था। लेखकों ने ‘मार्केट प्लस’ दृष्टिकोण को तरजीह दी जिसमें व्यापार के इतर अन्य चिंताओं पर भी गौर किया जाता है।
ये चिंताएं किसानों की आजीविका की रक्षा और घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए महत्त्वपूर्ण भोजन के उत्पादन को बरकरार रखे जाने तथा सरकार की ओर से उठाए जाने वाले सक्रिय कदमों से जुड़ी हैं।
साथ ही समाज के कमजोर तबके के लिए पर्याप्त सुरक्षा तंत्र के अभाव को दूर करने के लिए एक व्यवस्थागत प्रणाली को योजनाबद्ध तरीके से लागू करने की जरूरत है ताकि व्यापार उदारीकरण के कारण उन पर पड़ने वाले अतिरिक्त भार को कम किया जा सके।
दरअसल, व्यापार उदारीकरण और कृषि से संबद्ध धारणाओं में हाल ही में कुछ बदलाव आया है। वैश्विक खाद्य संकट और वित्तीय संकट ने भारत में 90 के दशक से काफी अलग कर दिया है। आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा कभी भी फैशन से बाहर नहीं रहे हैं, लेकिन एक विकल्प भी पैदा हुआ है।
यदि आपके पास पैसा था तो आप आकर्षक कीमत पर उन लोगों से भोजन आयात कर सकते थे जिन्होंने इसे कुशलतापूर्वक तैयार किया। आज आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा प्राथमिकता सीढ़ी से ऊपर चले गए हैं।
लेकिन दीर्घावधि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबी को दूर करने के लिए भारत की कृषि में तत्काल बदलाव किए जाने की जरूरत है। यह कम उपज और कम आय वाली है। गांवों में व्याप्त इस धारणा कि खेती लाभदायक नहीं है, को समाप्त करने के लिए सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कृषि समर्थन मूल्य में लगातार इजाफा किया है। इसके परिणामस्वरूप नया अनाज बढ़ गया है और खाद्य कीमत काफी अधिक हो गई है।
इस दुविधा को लेकर एक नीति की रूपरेखा में मॉरिस आर लैंडिस ने अपनी प्रमुख रचना ‘इंडियन एग्रीकल्चर ऐंड पॉलिसी इन ट्रांजीशन’ में अमेरिकी कृषि विभाग के इकनॉमिक रिसर्च सर्विस द्वारा कराए गए शोध का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया है जिसमें अनाज, तिलहन और उत्पादों, पोल्ट्री सेब एवं कपास जैसे भारतीय कृषि क्षेत्रों को शामिल किया गया है।
एक विकल्प का विश्लेषण किया गया है, वह है खाद्य खरीद का विकेंद्रीकरण। शोध के निष्कर्ष में कहा गया है कि इससे गेहूं की मांग, आपूर्ति और कीमतों पर बहुत कम असर पड़ेगा। लेकिन सरकार पर पड़ने वाला असर काफी अधिक होगा। इससे खरीद में 29 फीसदी की गिरावट और सरकारी खर्च में 20 फीसदी से अधिक की कमी आएगी।
गेहूं और चावल व्यापार पर काफी कम असर पड़ेगा और अनाज विपणन में भागीदारी और निवेश के लिए निजी कारोबारियों की दक्षता के लिए बड़ी गुंजाइश पैदा होगी। शोध में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कटौती के असर का भी विश्लेषण किया गया है। उत्पादन और उत्पादक कल्याण में भी कमी आ सकती है, लेकिन खपत और उपभोक्ता कल्याण में इजाफा होगा।
स्टॉक में कमी आने के साथ-साथ गेहूं और चावल खरीद तेजी से घटेगी। कम घरेलू कीमतें अधिशेष यानी सरप्लस वाले वर्ष में भारतीय निर्यात की प्रतिस्पर्धा बढ़ा सकती हैं। जबकि अधिक खपत और कम स्टॉक की वजह से डेफिसिट कमी वाले वर्षों में आयात की क्षमता बढ़ सकती है।
शोध में यह भी सामने आया है कि बाजार समाशोधन स्तरों से ऊपर गेहूं और चावल की न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा होने से न सिर्फ कम कुल खपत को बढ़ावा मिलेगा बल्कि सार्वजनिक और निजी कृषिगत निवेश को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
अपूर्ण भुगतान प्रणाली के जरिये किसानों को मुआवजे का एक अच्छा रास्ता है, जैसा कि अमेरिका में होता है। इसके तहत किसानों को बाजार कीमत, जिस पर वे अपने अनाज को बेचते हैं और सरकार द्वारा समर्थित कीमत, के बीच अंतर के लिए सरकार से सीधे तौर पर भुगतान किया जाएगा। लेकिन इस तरह का भुगतान प्राप्त करने में एक जोखिम भी है।
यह भुगतान सभी उत्पादकों तक नहीं पहुंच रहा है और इसमें धोखाधड़ी की भी गुंजाइश है। लैंडिस कहते हैं, ‘ये मुद्दे भारत के लिए अलग नहीं हैं और अमेरिका और अन्य देशों में कृषिगत नीति बहस में छाए रहे हैं।’
पुस्तक समीक्षा
फूड फॉर पॉलिसी रिफॉर्मिंग एग्रीकल्चर
संपादन: सुरभि मित्तल और अर्पिता मुखर्जी
प्रकाशक: फाउंडेशन बुक्स, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस इंडिया
कीमत: 795 रुपये
पृष्ठ: 263
