संगीत की दुनिया के शहंशाह ए. आर. रहमान के प्रशंसकों के समूह के पीछे एक काफी दिलचस्प कहानी है।
इन्होंने रहमान की म्यूजिक एलबमों के कवर की छोटी-छोटी तस्वीरों को इकट्ठा करने के लिए कई रातों तक अपनी नींद को भुलाकर कंप्यूटर पर निगाहें जमाए रखीं। इन कवर में एक खासियत यह थी की उनको मिला दिया जाए तो उनसे रहमान का चेहरा एक बड़ी तस्वीर के रूप में उभर कर सामने आता है।
बस अपने प्रशंसकों के इसी मजबूत इरादे का सम्मान करते हुए रहमान और उनकी टीम ने उनके साथ मिलकर दुनियाभर में एक कॉन्सर्ट का आयोजन किया। उन्होंने संगीत को फैलाने और पाइरेसी यानी नकल रोकने के लिए एक नया तरीका ढूंढ़ा है। इसे इसी तरह एक छोटी-सी कहानी के रूप में पेश किया गया है और इसी तरह बंबई में फिल्म उद्योग पर छोटे-छोटे टुकड़ों में दी गई जानकारी पढ़ने में काफी दिलचस्प बन जाती है।
निबंधों के इस संग्रह का एक बड़ा उद्देश्य बॉलीवुड के वैश्विक पटल पर दस्तक देने की घटना का विश्लेषण करना और उसका जिक्र करना तो है ही, साथ ही दूसरे पहलुओं के साथ इसे समझने की कोशिश करना भी है।
इनमें पहले बनी फिल्मों पर भारतीय विसर्जन का कितना प्रभाव पड़ता है, फिल्मों में उद्योग के संगठित होने से उद्योग और सरकारी संस्थानों के बीच के रिश्तों में क्या फर्क आने लगता है या फिर पश्चिमी सौंदर्य के प्रेमी आखिर भारतीय फिल्म संगीत से जुड़ी उम्मीदों में कैसे-कैसे बदलाव करते हैं, आदि भी शामिल है।
डिजिटल और उपग्रह तकनीकों में प्रगति ने ज्यादा से ज्यादा हिंदी फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करने को ही आसान बनाया है। इसके साथ-साथ सरकार की मदद से उद्योग और अधिक संगठित हुआ है, जिसके बारे में माना जा रहा है कि अब वह अपने कारोबार को विदेशों में भी बढ़ा सकता है।
हालांकि उद्योग में गलने वाले पैसे के सूत्रों पर संदेह अब भी बरकरार है, लेकिन आईडीबीआई के फिल्मों को पैसा मुहैया कराने के फैसले से काफी अंतर आया है। निर्माताओं के लिए वैश्वीकरण का मतलब है कमाई के ज्यादा स्रोत, खासतौर पर लुभावने विदेशी बाजार। लेकिन पहले से ही कई निर्देशक इन बाजारों को भुनाने के लिए ‘क्रॉसओवर’ थीम पर दांव लगा चुके हैं।
क्या ज्यादा भारतीय निर्देशकों को क्रॉसओवर फिल्में बनानी चाहिए या नहीं तथा हॉलीवुड और बॉलीवुड के बीच सांस्कृतिक तौर पर कितना घुलना-मिलना चाहिए, जैसी बातों की चर्चा करते हुए लेखकों ने पाठकों के नजरिये से ऐतिहासिक और सामयिक उदाहरण भी पेश किए हैं, फिर चाहे वह फिल्म पत्रकारिता पर हो या संगीत पर।
मुख्य अभिनेता के रूप में अमिताभ बच्चन वाली फिल्म ‘दीवार’ की चर्चा के दौरान 1970 के दशक में उस समय मौजूद राजनीतिक हलचल, व्यापार यूनियनों के नेताओं का लड़ाकापन और माफिया की ताकत को किताब में बखूबी दिखाया गया है। फिल्म हर तबके के दर्शकों को बेहद पसंद आई।
संगीत की चर्चा के दौरान बताया गया कि कैसे प्रेम जैसे भावों को गानों के माध्यम से दर्शाया गया और कैसे अलग-अलग राग का इस्तेमाल माहौल को बनाने में किया जाता था। लेखक का कहना है कि गानों की बनावट कई सालों तक एक समान रही, जिसमें वायलन या दूसरे वाद्यों जैसे गिटार आदि का खूब इस्तेमाल किया गया। बाद में जैसे-जैसे ज्यादा फिल्मों की पहुंच अंतरराष्ट्रीय दर्शकों तक बढ़ती चली गई, संगीत पर भी बाहरी प्रभाव पड़ा और उसमें भी ‘पश्चिमी धुनें सुनाई देने लगीं।’
कंटेंट के लिहाज से हिंसा को दिखाना क्या मानव स्वभाव की भूल थी या ‘स्वाभाविक’ रूप से एक अनिवार्यता, इसकी भी खोजबीन की गई। लेखक का मानना है कि जिस तरह से भारतीय सिनेमा में हिंसा को पेश किया गया है, वह असभ्य और जोर-जबरदस्ती हो सकता है, लेकिन वह गैर-हिंसा के मुख्य तर्कशास्त्र के नियम के काफी हद तक करीब-करीब था।
फिल्म पत्रकारिता ऐसा विषय नहीं है, जिसे बहुत बड़ी जगह मिलती रही हो, इसलिए स्टारडस्ट की सफलता को एक बार फिर याद करना काफी दिलचस्प रहेगा। अमेरिकन फोटोप्ले की तर्ज पर बनी इस पत्रिका को 23 वर्षीय शोभा राजाध्यक्ष (बाद में डे) ने सिर्फ एक पेस्टिंग वाले आदमी के साथ शुरू किया। माना जाता था कि यह अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले ज्यादा आकर्षक लगी, क्योंकि इसमें कुछ ज्यादा ही मसाला मौजूद था।
किसी किताब को पढ़ना हमेशा आसान नहीं होता, इसके वाक्य काफी लंबे हैं और जरूरत से ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन इसमें ढेर जानकारी है जो सामगी और नजरिया, दोनों के लिहाज से काफी उपयोगी साबित हो सकती है।
साथ ही इसमें हालिया चलन जैसे कि विदेशी स्टूडियो और कई विदेशी वित्तीय निवेशकों का हिंदी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरना और अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप का स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ हाथ मिलाने जैसी घटनाओं और स्लमडॉग मिलियनेयर की सफलता का भी जिक्र किया गया है।
पुस्तक समीक्षा
ग्लोबल बॉलीवुड
संपादन: आनंदम पी कावूरी और अश्विन पुणतांबेकर
प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
कीमत: 695 रुपये
पृष्ठ: 305