यूरो की मजबूती से पिछले बजट में सरकार द्वारा ऑलिव (जैतून) ऑयल के आयात पर लगने वाले शुल्क में की गई कटौती का असर अब धीमा पड़ने लगा है।
सरकार ने इसकी कीमतें कम करने की कोशिशों के तहत पिछले बजट में आयात शुल्क को 40 फीसदी से घटाकर 7.5 फीसदी कर दिया था। सरकार के इस कदम के बाद कारोबारियों को ऑलिव ऑयल की कीमत में 15 फीसदी की कमी होने की उम्मीद थी।
उल्लेखनीय है कि पिछले 6 महीने में यूरोपीय मुद्रा यूरो में रुपये की तुलना में 27 फीसदी की मजबूती आ चुकी है। 6 महीने पहले जहां एक यूरो के बदले 55 रुपये मिल रहे थे, वहीं गुरुवार को एक यूरो की कीमत 70 रुपये तक पहुंच गयी थी। अप्रैल में 62 रुपये में एक यूरो मिल रहा था। जाहिर है कि सरकार ने उपभोक्ताओं के लाभ के लिए जो राहत उद्योगों को पहुंचाए थे, उसका असर अब अप्रभावी हो चला है। इसके साथ जो सबसे महत्वपूर्ण चीज है वह ये कि खाद्य तेलों की कुल खपत का एक तिहाई ऑलिव ऑयल ही होता है।
आश्चर्यजनक बात है कि बगैर किसी भौतिक और रासायनिक बदलाव के इस तेल का इस्तेमाल तीन बार तक हो सकता है। तीन बार इस्तेमाल होने के बावजूद इसका स्वाद, इसकी खुशबू और इसकी चिकनाई लगभग जस की तस बनी रहती है। भारतीय ऑलिव एसोसियशन के अध्यक्ष वी. एन. डालमिया ने बताया कि ऑलिव ऑयल की आपूर्ति के लिए देश को शत-प्रतिशत इसके आयात पर निर्भर रहना पड़ता है, जो यूरोप से होता है। ऐसे में यूरो की मजबूती ने ऑलिव ऑयल पर खर्च होने वाली राशि में वृद्धि ही की है।
उपभोक्ताओं को राहत दिलाने के लिए सरकार ने पिछले बजट में ऑलिव ऑयल के आयात पर लगने वाले आयात शुल्क को 40 फीसदी से घटाकर 7.5 फीसदी कर दिया था। मालूम हो कि देश में तीन तरह के ऑलिव ऑयल पाए जाते हैं। सबसे अच्छी क्वालिटी की कीमत जहां 700 रुपये प्रति लीटर है, वहीं मीडियम क्वालिटी की कीमत 600 रुपये प्रति लीटर और औसत क्वालिटी का 350 रुपये प्रति लीटर होता है।
ऑलिव ऑयल की लोकप्रियता मध्यम वर्गीय लोगों के बीच इसके स्वास्थ्यवर्द्धक गुणों के चलते है। इसलिए उद्योग जगत को उम्मीद है कि इस साल इसकी खपत पिछले साल के 2,300 टन की तुलना में दोगुना होकर 4,600 टन हो जाएगा। डालमिया ने बताया कि चूंकि इसकी खपत काफी धीमे से बढ़ रही है लिहाजा इसके विकास की दर इसी तरह से आगे बढ़ने की संभावना है। डालमिया ने बताया कि फिलहाल आयात, विपणन और वितरण की किसी उचित योजना के बाजार में कई नए खिलाड़ी आ रहे हैं। इनमें से केवल दो ही ऐसे अच्छे ब्रांड हैं जिनके पास कोई उचित योजना है।
भारत में राजस्थान सरकार ने 2007 में 250 हेक्टेयर में ऑलिव के पेड़ लगाए हैं। अनुमान है कि इन पेड़ों से 2012 तक फल मिलने शुरू हो जाएंगे। अंगूर के उत्पादन के लिए जैसी जलवायु होनी चाहिए, वैसी जलवायु इसके उत्पादन के लिए भी जरूरी होता है। महाराष्ट्र में नासिक और आंध्रप्रदेश में नंदी हिल ऑलिव उत्पादन के लिए सबसे बढ़िया जगह माना जाता है।
लेकिन इस्रराइल को मरुस्थल में भी ऑलिव वृक्ष लगाने में महारत हासिल है। इसलिए राजस्थान सरकार ने इसके लिए इस्रराइली तकनीक को अपनाया है। ऑलिव उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने के लिए देश में 1,500 हेक्टेयर में ऑलिव लगाने होंगे। उद्योग जगत के मुताबिक, एक हेक्टेयर में लगे ऑलिव के पेड़ से लगभग 15 टन ऑलिव बीज मिलते हैं और इससे 20 फीसदी रिकवरी की दर से लगभग 3 टन के आसपास तेल निकल पाते हैं। एक हेक्टेयर में लगे पेड़ से 3 टन ऑलिव तेल की प्राप्ति हो पाती है। राजस्थान सरकार के प्रयासों के सफल हो जाने पर 1,000 हेक्टेयर में इसके पौधे लगाये जा सकेंगे।