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चीनी मिलों की राह में पड़े कांटे साफ करे सरकार

Last Updated- December 07, 2022 | 12:42 PM IST

देश का चीनी उद्योग फिलहाल कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं से यह उद्योग किस तरह उबरता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।


जानकारों के अनुसार आने वाले दिनों में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों की क्या स्थिति रहती है, इस बात पर ही यह निर्भर करेगा कि मुश्किल स्थितियों से यह कैसे और कब तक उबर पाता है। वैसे दुनिया के बाजारों में चीनी का भाव इस समय सुस्त है। फिलहाल मौजूदा सीजन (सितंबर 2008) में भारत दुनिया के प्रमुख चीनी निर्यातक राष्ट्रों में से एक बन चुका है।  

चीनी मिलों ने इस सीजन में निर्यात के जितने भी ऑर्डर मिले थे, उसे अब तक निबटा दिया है। खासकर, तटीय इलाके में स्थित चीनी मिलों ने। इसके बाद इन मिलों ने उच्च गुणवत्ता की कच्ची चीनी तैयार करने के लक्ष्य रखे हैं। इंडियन शुगर मिल्स एसोसियशन (आईएसएमए, इस्मा) के महानिदेशक एस. एल. जैन ने अनुमान जताया कि बढ़िया गुणवत्ता वाली कच्ची चीनी की काफी मांग होगी। नई स्थापित हुई रिफाइनरियों और आस-पास के देशों में विस्तार करने वाले फैक्ट्रियों की ओर से इस तरह की मांग होने का अनुमान है।

जानकारों के मुताबिक, चीनी का आयात करने वाले कई देशों ने चीनी रिफाइनिंग की विशाल क्षमता विकसित की है। इनके बारे में अनुमान है कि ये बाजार से काफी मात्रा में कच्ची चीनी खरीदेंगे। हालांकि भारत से अब तक तैयार चीनी का ही निर्यात होता रहा है। लेकिन वैश्विक बाजार में कच्ची चीनी की बढ़ती मांग को देखते हुए भारत ने भी कच्ची चीनी के निर्यात बाजार पर कब्जा जमाने के गंभीर प्रयास शुरू किए हैं। जैन के अनुसार, इंडियन शुगर एक्जिम कॉर्पोरेशन कच्ची चीनी की तेजी से बढ़ती मांग पर नजरें रख रहा है और वह संभावनाओं को भुनाने की पूरी जुगत लगा रहा है।

वह भारत के चीनी उद्योग को विश्वस्तरीय बनाने की कोशिशें कर रहा है। शुरुआती दौर में यह संस्था निर्यात इकाइयों को नगदी और तकनीकी सहायता की पेशकश कर रहा है। मौजूदा सीजन में चीनी का अनुमानित निर्यात 42 लाख टन रहने का अनुमान है। इनमें कच्ची चीनी की हिस्सेदारी लगभग 65 फीसदी रहने की उम्मीद है। पिछले सीजन में 2.833 करोड़ टन चीनी का रेकॉर्ड उत्पादन हुआ था। लेकिन जनवरी 2007 तक चले लगभग 7 महीनों के प्रतिबंध के चलते चीनी उद्योग को काफी नुकसान हुआ था।

हालत यह हुई कि चीनी मिल अपनी लागत भी न निकाल सके। इसका खामियाजा अंतत: किसानों को उठाना पड़ा क्योंकि चीनी मिल किसानों को ठीक से गन्ने की बकाया राशि भी चुकाने में  असमर्थ रहे। ऐसी दुर्गति बड़े उद्योगों तक को झेलनी पड़ी। स्थिति काफी गंभीर हो गई थी और सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। सरकार ने कई ऐसे उपाय किए जिससे न केवल उद्योगों की जान बची बल्कि किसानों का भी बेरा पार हो सका। 2006-07 और 2007-08 में तैयार की गई चीनी पर चुकाए गए उत्पाद शुल्क के बराबर चीनी मिलों को सरकार ने कर्ज उपलब्ध कराया। ऐसा किसानों को गन्ने का बकाया चुकाने के लिए दिया गया था।

सरकार द्वारा चीनी के तय मूल्य मिलों के लिए काफी नुकसानदायक साबित हुए क्योंकि चीनी के बाजार भाव में कोई वृद्धि नहीं हुई। राज्य स्तर पर गन्ने की कीमत तय करने वाले सट्टेबाजों के मुताबिक, सरकार ने गन्ने का बकाया चुकाने के लिए जो कर्ज अदा किया वो सरकार द्वारा तय किए गए वैधानिक न्यूनतम मूल्य पर आधारित था। इस्मा के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश धानुका ने बताया कि कोई भी केंद्र सरकार के इस संदेश को ग्रहण कर पाने में नाकाम रहा कि राज्य सरकारें गन्ने की एसएमपी के साथ छेड़छाड़ करना बंद कर दे।

हालांकि महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश ने चीनी मिलों से यह कहना बंद कर दिया कि वे एसएमपी पर प्रीमियम अदा करें। जबकि उत्तर प्रदेश ने गन्ने के भाव पर केंद्र सरकार के हर राय को नकार दिया। लंबे समय की निर्यात-नीति बनाने की केंद्र सरकार की कोशिशों से उद्योग के बीच विश्वास बना कि भविष्य में भारत भी चीनी बाजार में अपनी उपस्थिति बना सकेगा। यदि देश में कभी चीनी की कमी भी हुई तो यह सफेद चीनी की बजाए कच्ची चीनी का आयात करेगा। 

First Published - July 21, 2008 | 10:16 PM IST

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